किसी दिन ढूंढे नहीं मिलेंगे सरकारी दूल्हे
इस समय केंद्र सरकार में सचिव स्तर के अधिकारी की फिक्स्ड सैलरी 26,000 रुपए हैं। इसमें एचआरए और दूसरे भत्ते मिला दिए जाएं तो यह पहुंच जाती है 63,110 रुपए महीने पर यानी साल भर में करीब 7.5 लाख रुपए का पैकेज। इससे कई गुना ज्यादा वेतन तो आईआईएम से निकले 24-25 साल के नए ग्रेजुएट को मिल जाता है। आज स्थिति ये है कि जिस आईएएस अफसर को, चाहे अपने संस्कारों से या अपनी पोस्टिंग से, बेईमानी करने का मौका नहीं मिलता, वह अपनी तनख्वाह को लेकर हमेशा जलता-भुनता रहता है। ऊपर से सीबीआई के छापे का डर। कहीं अंदरूनी राजनीति के चलते किसी सीनियर की वक्री दृष्टि पड़ गई तो समझिए पूरा करियर चौपट। रेलवे में काम कर रहे मेरे एक आईएएस मित्र मारुति-800 से ऊपर की कार नहीं खरीद रहे क्योंकि उन्हें बेकार में सीबीआई की नज़रों में आने का डर लगता है।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय में मेरे हॉस्टल (ए एन झा, या म्योर हॉस्टल) से निकले मेरे ही बैच के करीब दर्जन भर आईएएस अफसर हैं, जिन्हें मैं जानता हूं। उनमें से एक-दो के ही चेहरों पर मैंने अफसरी की लुनाई देखी है। बाकी तो किसी दफ्तर के सामान्य बाबू की तरह मुश्किलों का रोना रोते रहते हैं। ऊपर से आप में स्वामिभान हुआ और आपने किसी नेता से पंगा ले लिया तो सचिवालय में ऐसे निर्वासित कर दिए जाएंगे कि ज़िंदगी पर अपने ‘मान’ को कोसते रह जाएंगे। मुझसे चार साल सीनियर एक बाबूसाहब ग्वालियर के डीएम हो गए। तब माधवराव सिंधिया ज़िंदा थे। बाबूसाहब पुराने जिलाधिकारियों की तरह महाराज के दरबार में हाज़िरी बजाने नहीं गए। नतीजा ये हुआ कि पहले तो वे अपने ही ज़िले में ज़लील किए गए। फिर उठाकर वस्त्र मंत्रालय के हथकरघा विभाग में फेंक दिए गए, जहां वो कुछ साल पहले तक हिंदी साहित्य की अटरम-बटरम किताबें बांचा करते थे। अब क्या हाल है, पता नहीं।
ऐसी ही वजहों के चलते आज के काबिल नौजवान सिविल सर्विसेज से मुंह मोड़ रहे हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड या नॉर्थ ईस्ट जैसे पिछड़े राज्यों को छोड़ दिया जाए तो बाकी देश में सिविल सर्विसेज का क्रेज बुरी तरह घटा है। इसे देखकर तो लगता है कि कहीं भविष्य में इन सेवाओं की हालत हमारी सेनाओं की तरह न हो जाए जहां बड़े-बड़े विज्ञापन निकालकर नौजवानों को अफसर बनने के लिए लुभाना पड़ता है।
इस ट्रेंड से हमारा कॉरपोरेट जगत भी बड़ा परेशान हो गया है। उसे लगता है कि जिन तंत्र की गोंद में खेल-कूद कर वह इतना महारथी बना है, वह तंत्र ही अगर मिट गया तो वह नए सिरे से कैसे सामंजस्य बैठाएगा। शायद इसीलिए कुछ महीने पहले देश के तीसरे नंबर के उद्योग संगठन एसोचैम (एसोसिएटेड चैंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्रीज) ने एक सर्वे कराया। सर्वे में सैंपल रखा गया है 300 नौजवानों का। इसके आधार पर उसने ज़ोर-शोर से प्रचारित करवाया कि 80 फीसदी नौजवानों की पहली पसंद आज भी सिविल सर्विसेज हैं और वो ज्यादा तनख्वाह के बावजूद निजी क्षेत्र की नौकरियों में इसलिए नहीं जाना चाहते क्योंकि वहां पर स्थायित्व नहीं है, सुरक्षा नहीं है।
लेकिन एसोचैम के इस बेहद छोटे आकार के सैंपल सर्वे में भी आधे से ज्यादा युवाओं ने स्वीकार किया कि आज उन्हें ‘सिस्टम’ की तरफ से सिविल सर्विसेज में जाने के लिए हतोत्साहित किया जा रहा है। इनमें से ज्यादातर लोगों ने ये भी कहा कि सरकारी विज्ञापन संस्था डीएवीपी को सिविल सर्विसेज के सकारात्मक पहलुओं पर विज्ञापन निकालने चाहिए ताकि इस सेवा से प्रतिभा पलायन को रोका जा सके।
सर्वे में ज्यादातर लोगों ने ये भी सुझाव दिया गया कि हर राज्य की राजधानी में नौजवान लड़कों-लड़कियों को सिविल सर्विसेज में करियर बनाने की ट्रेनिंग देने के लिए एकेडमी बनाई जाए। इस एकेडमी को पूरी तरह सरकार अपनी देखरेख में अपने फंड से चलाएं। इस व्यग्रता को देखकर क्या आपको नहीं लगता कि एक दिन ऐसा आनेवाला है जब सर्चलाइट लेकर ढूंढने पर भी आईएएस-पीसीएस बनने के लिए `सरकारी दूल्हे’ नहीं मिलेंगे।...समाप्त
इलाहाबाद विश्वविद्यालय में मेरे हॉस्टल (ए एन झा, या म्योर हॉस्टल) से निकले मेरे ही बैच के करीब दर्जन भर आईएएस अफसर हैं, जिन्हें मैं जानता हूं। उनमें से एक-दो के ही चेहरों पर मैंने अफसरी की लुनाई देखी है। बाकी तो किसी दफ्तर के सामान्य बाबू की तरह मुश्किलों का रोना रोते रहते हैं। ऊपर से आप में स्वामिभान हुआ और आपने किसी नेता से पंगा ले लिया तो सचिवालय में ऐसे निर्वासित कर दिए जाएंगे कि ज़िंदगी पर अपने ‘मान’ को कोसते रह जाएंगे। मुझसे चार साल सीनियर एक बाबूसाहब ग्वालियर के डीएम हो गए। तब माधवराव सिंधिया ज़िंदा थे। बाबूसाहब पुराने जिलाधिकारियों की तरह महाराज के दरबार में हाज़िरी बजाने नहीं गए। नतीजा ये हुआ कि पहले तो वे अपने ही ज़िले में ज़लील किए गए। फिर उठाकर वस्त्र मंत्रालय के हथकरघा विभाग में फेंक दिए गए, जहां वो कुछ साल पहले तक हिंदी साहित्य की अटरम-बटरम किताबें बांचा करते थे। अब क्या हाल है, पता नहीं।
ऐसी ही वजहों के चलते आज के काबिल नौजवान सिविल सर्विसेज से मुंह मोड़ रहे हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड या नॉर्थ ईस्ट जैसे पिछड़े राज्यों को छोड़ दिया जाए तो बाकी देश में सिविल सर्विसेज का क्रेज बुरी तरह घटा है। इसे देखकर तो लगता है कि कहीं भविष्य में इन सेवाओं की हालत हमारी सेनाओं की तरह न हो जाए जहां बड़े-बड़े विज्ञापन निकालकर नौजवानों को अफसर बनने के लिए लुभाना पड़ता है।
इस ट्रेंड से हमारा कॉरपोरेट जगत भी बड़ा परेशान हो गया है। उसे लगता है कि जिन तंत्र की गोंद में खेल-कूद कर वह इतना महारथी बना है, वह तंत्र ही अगर मिट गया तो वह नए सिरे से कैसे सामंजस्य बैठाएगा। शायद इसीलिए कुछ महीने पहले देश के तीसरे नंबर के उद्योग संगठन एसोचैम (एसोसिएटेड चैंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्रीज) ने एक सर्वे कराया। सर्वे में सैंपल रखा गया है 300 नौजवानों का। इसके आधार पर उसने ज़ोर-शोर से प्रचारित करवाया कि 80 फीसदी नौजवानों की पहली पसंद आज भी सिविल सर्विसेज हैं और वो ज्यादा तनख्वाह के बावजूद निजी क्षेत्र की नौकरियों में इसलिए नहीं जाना चाहते क्योंकि वहां पर स्थायित्व नहीं है, सुरक्षा नहीं है।
लेकिन एसोचैम के इस बेहद छोटे आकार के सैंपल सर्वे में भी आधे से ज्यादा युवाओं ने स्वीकार किया कि आज उन्हें ‘सिस्टम’ की तरफ से सिविल सर्विसेज में जाने के लिए हतोत्साहित किया जा रहा है। इनमें से ज्यादातर लोगों ने ये भी कहा कि सरकारी विज्ञापन संस्था डीएवीपी को सिविल सर्विसेज के सकारात्मक पहलुओं पर विज्ञापन निकालने चाहिए ताकि इस सेवा से प्रतिभा पलायन को रोका जा सके।
सर्वे में ज्यादातर लोगों ने ये भी सुझाव दिया गया कि हर राज्य की राजधानी में नौजवान लड़कों-लड़कियों को सिविल सर्विसेज में करियर बनाने की ट्रेनिंग देने के लिए एकेडमी बनाई जाए। इस एकेडमी को पूरी तरह सरकार अपनी देखरेख में अपने फंड से चलाएं। इस व्यग्रता को देखकर क्या आपको नहीं लगता कि एक दिन ऐसा आनेवाला है जब सर्चलाइट लेकर ढूंढने पर भी आईएएस-पीसीएस बनने के लिए `सरकारी दूल्हे’ नहीं मिलेंगे।...समाप्त
Comments
इतनी बेरोजगारी में दुल्हे न मिलें..अजब बात सी लगती है.
शायद चयन का स्तर घट जाये मगर लोग तो मिलते रहेंगे.
शायद मेरा ख्याल सही न हो, मगर मुझे ऐसा लगता है.
यदि आप सरकारी नौकरी में हैं और ईमानदार और स्वाभिमानी भी हैं तो अच्छी जिंदगीआपके लिए हमेशा एक सपना ही रह जाएगी।
अभी कुछ दिनों पहले सी.के.अनिल, जिन्होंने सीवान के डी.एम. के रूप में शहाबुद्दीन पर क़ानून का शिकंजा कसने की हिम्मत दिखाई, जब अपने पिताजी के अंतिम संस्कार के लिए घर जाने वाले थे, तो उनके मित्रों को मदद करने के लिए आगे आना पड़ा। मैं उनको छात्र जीवन से जानता हूं, इतने वर्षों तक आईएएस की नौकरी के बाद आज भी उनके बैंक खाते में कुछेक हजार रुपये से ज्यादा न होंगे।
जब सरकारी कर्मचारियों के लिए वेतन आयोग का गठन होता है तो मीडिया के हमारे साथी स्यापा करने लगते हैं कि निकम्मे सरकारी बाबुओं का वेतन बढ़ाया जा रहा है। इन पत्रकारों में से ज्यादातर वे होते हैं जो चाहकर भी सरकारी सेवा में नहीं आ सके और अब मीडिया में रहते हुए एक चैनल से दूसरे चैनल में कूद-फांद करके अपनी वेतन-वृद्धि और कैरियर को आगे बढ़ाने की जुगत में हमेशा लगे रहते हैं।
बेईमानों और कमीनों की बात तो मैं नहीं करता, लेकिन इस देश का सिस्टम अब भी जिन सरकारी सेवकों की ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा के बलबूते चल रहा है, उनकी वास्तविक हालत दयनीय ही है। उन्हें न तो अपने कार्य का श्रेय मिलता है और न ही उचित प्रतिदान।