अनोखेलाल तो तुम हो नहीं!
हम अगर खुद को यूनीक मानते हैं, अनोखा मानते हैं, तो ये सरासर एक भ्रांति है। खुद को धोखे में रखने जैसा है। आज ही नहीं, बीते कल और आनेवाले कल में भी हमारी अनुकृतियां मिल जाएंगी। हम अनोखे इसी मायने में होते हैं जैसे हर जेबरा के शरीर की रेखाएं अलग-अलग होती हैं, हमारे फिंगर प्रिंट अलग होते हैं। असल में, आदमी का भूत और भविष्य हमेशा उसके इर्दगिर्द कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में मौजूद रहता है, बशर्ते हम उसे देखना चाहें। लेकिन हम अपना वर्तमान तो ठीक से देख नहीं पाते, फिर भूत और भविष्य की क्या पहचान कर पाएंगे।
मयंक कहता जा रहा था। मैं कभी तेज हवा से उड़ते उसके बालों को देखता तो कभी आंखों की तरफ और कभी उसके मुंह से निकलती भाप की तरफ। बाहर का तापमान पांच डिग्री तक गिर चुका था। ऊपर से तेज हवाएं भी चल रही थी। हाथों की उंगलियां कड़क कर जमी जा रही थीं। हम फटाफट कदम बढ़ा रहे थे क्योंकि अब ट्रेन छूटने में बीस मिनट ही बचे थे।
- मैं नहीं कहता कि भूत और भविष्य ठीक-ठीक वही होगा जो अभी इस वक्त दिखाई दे रहा है। उसमें यकीनन काल और परिस्थिति के हिसाब से दस-बीस परसेंट का फर्क होगा। लेकिन ये फर्क काफी कम होता है क्योंकि बीस-तीस साल के दरम्यान आमतौर पर हालात नहीं बदला करते। ये अलग बात है कि इधर वक्त की रफ्तार काफी तेज हो गई है। दस सालों में ही जनरेशन गैप पैदा हो जा रहा है। लेकिन अपने को देखने के लिए, सही-सही आंकने के लिए हमें अपने आसपास अपने भूत और भविष्य को टटोलते रहना चाहिए।
फिर मयंक कहीं खो गया। काफी देर तक चुप रहा। चुप्पी का फायदा ये हुआ कि हमारे कदमों की रफ्तार और बढ़ गई। हम रेलवे स्टेशन तक जा पहुंचे और ट्रेन में खिड़की के पास आमने-सामने वाली सीट पर जम गए। डिब्बे में ज्यादा भीड नहीं थी। दूसरी तरफ की सीधी बर्थ पर एक मोटा, बल्कि काफी मोटा आदमी झपकी ले रहा था। मयंक ने मेरी तरफ तौलने की निगाह से देखा और झुक कर पास आकर बोला – देखो, तुम्हारा भविष्य झपकी ले रहा है। अगर तुमने अपने मोटापे को कंट्रोल नहीं किया तो दस साल बाद तुम्हारा यही भविष्य होने जा रहा है।
मैंने खिसियानी हंसी हंसकर बात टाल दी। फिर भी मैं सोचने लग गया। एक दिन मैं नारद में सभी पंजीकृत ब्लॉगों की सूची देख रहा था कि तो वहां मुझे ब्रह्मराक्षस का शिष्य नाम का एक ब्लॉग मिला। उसके प्रोफाइल से मुझे कोई जानकारी नहीं मिली। लेकिन याद आया कि बीएससी करने के दौरान मैंने मुक्तिबोध को जमकर पढ़ा था और ब्रह्मराक्षस का शिष्य नाम की एक कविता भी लिखी थी। मुझे आश्चर्य हुआ कि कैसे मेरी कोई अनुकृति आज भी वैसी ही संवेदना से रू-ब-रू हो रही है। मुझे मयंक की बातों में सच का अंश नजर आने लगा। मैंने बात को फिर से शुरू करते हुए कहा – ऐसा भी तो हो सकता है कि हम एक साथ चार साल के हों और सत्तर साल के भी।
ये बात मैंने खासतौर पर मयंक को छेड़ने के लिए की थी, क्योंकि किन्हीं क्षणों में वह सचमुच चार साल के बच्चे जैसा बर्ताव करता था और कभी सत्तर साल की ज़िंदगी जी चुके, वानप्रस्थ में जा चुके खेले-खाए-अघाए बुजुर्ग दार्शनिक जैसा। मयंक बोला – क्यों बचपन और बुढ़ापे को ही टटोलते हो। जवानी की भी बात करो। मैं तो पंद्रह सालों से पच्चीस सालों का बना हुआ हूं।
बात सही थी। मयंक की उम्र जैसी पच्चीस साल पर आकर ठहर गई थी। उसकी ज़िंदगी में न जाने कितने पतझड़ आए। ऐसे-ऐसे हादसे हुए कि लगा कि अब वह डूब जाएगा। उबरने की कोई सूरत नहीं नज़र आती थी। फिर भी वह उबर आया। कभी-कभी चेहरे पर मकड़ी के जाले उगते रहे। विचार भी धुंधले हो गए। लेकिन धुंधलका हटते ही वह और ज्यादा दुस्साहसी होता गया। मुझे उसमें एक शिवत्व-सा नज़र आता है। गरल तो उसने पिया है, लेकिन रहता है कैलाश पर्वत पर, मानसरोवर की अपार शांति में।
मैंने कहा – मयंक, तुम्हीं बताओ कि अभी कहां है तुम्हारा भूत और कहां है तुम्हारा भविष्य।
मयंक ने छूटते ही कहा – शब्दों की अभिधा पर मत जाओ। काल बदल गया है। मेरा अतीत अब इतिहास की चीज बन गया है, पर भविष्य मेरा अनन्त है, अपरिमित है। कहीं मैं इसी क्षण आत्महत्या कर रहा हूं और कहीं मैं इसी वक्त लोकतंत्र की जेहाद में शामिल हूं।
बाहर अंधेरा हो चुका था। ट्रेन के पहिए अपनी धुरी पर 2200 आरपीएम से घूमे जा रहे थे और हम डिब्बे के साथ पटरी पर पूरी रफ्तार से भागे जा रहे थे। मुझे लगा कि ट्रेन जब अगले स्टेशन पर रुकेगी तो ये तो दर्ज होगा कि वह कितने किलोमीटर आगे आ चुकी है। लेकिन पहियों को क्या याद रहेगा कि वह इतने किलोमीटर में अपनी धुरी पर कितने चक्कर काट चुके हैं। जिंदगी के सफर में ऐसा हमारे साथ भी तो होता है!
मयंक कहता जा रहा था। मैं कभी तेज हवा से उड़ते उसके बालों को देखता तो कभी आंखों की तरफ और कभी उसके मुंह से निकलती भाप की तरफ। बाहर का तापमान पांच डिग्री तक गिर चुका था। ऊपर से तेज हवाएं भी चल रही थी। हाथों की उंगलियां कड़क कर जमी जा रही थीं। हम फटाफट कदम बढ़ा रहे थे क्योंकि अब ट्रेन छूटने में बीस मिनट ही बचे थे।
- मैं नहीं कहता कि भूत और भविष्य ठीक-ठीक वही होगा जो अभी इस वक्त दिखाई दे रहा है। उसमें यकीनन काल और परिस्थिति के हिसाब से दस-बीस परसेंट का फर्क होगा। लेकिन ये फर्क काफी कम होता है क्योंकि बीस-तीस साल के दरम्यान आमतौर पर हालात नहीं बदला करते। ये अलग बात है कि इधर वक्त की रफ्तार काफी तेज हो गई है। दस सालों में ही जनरेशन गैप पैदा हो जा रहा है। लेकिन अपने को देखने के लिए, सही-सही आंकने के लिए हमें अपने आसपास अपने भूत और भविष्य को टटोलते रहना चाहिए।
फिर मयंक कहीं खो गया। काफी देर तक चुप रहा। चुप्पी का फायदा ये हुआ कि हमारे कदमों की रफ्तार और बढ़ गई। हम रेलवे स्टेशन तक जा पहुंचे और ट्रेन में खिड़की के पास आमने-सामने वाली सीट पर जम गए। डिब्बे में ज्यादा भीड नहीं थी। दूसरी तरफ की सीधी बर्थ पर एक मोटा, बल्कि काफी मोटा आदमी झपकी ले रहा था। मयंक ने मेरी तरफ तौलने की निगाह से देखा और झुक कर पास आकर बोला – देखो, तुम्हारा भविष्य झपकी ले रहा है। अगर तुमने अपने मोटापे को कंट्रोल नहीं किया तो दस साल बाद तुम्हारा यही भविष्य होने जा रहा है।
मैंने खिसियानी हंसी हंसकर बात टाल दी। फिर भी मैं सोचने लग गया। एक दिन मैं नारद में सभी पंजीकृत ब्लॉगों की सूची देख रहा था कि तो वहां मुझे ब्रह्मराक्षस का शिष्य नाम का एक ब्लॉग मिला। उसके प्रोफाइल से मुझे कोई जानकारी नहीं मिली। लेकिन याद आया कि बीएससी करने के दौरान मैंने मुक्तिबोध को जमकर पढ़ा था और ब्रह्मराक्षस का शिष्य नाम की एक कविता भी लिखी थी। मुझे आश्चर्य हुआ कि कैसे मेरी कोई अनुकृति आज भी वैसी ही संवेदना से रू-ब-रू हो रही है। मुझे मयंक की बातों में सच का अंश नजर आने लगा। मैंने बात को फिर से शुरू करते हुए कहा – ऐसा भी तो हो सकता है कि हम एक साथ चार साल के हों और सत्तर साल के भी।
ये बात मैंने खासतौर पर मयंक को छेड़ने के लिए की थी, क्योंकि किन्हीं क्षणों में वह सचमुच चार साल के बच्चे जैसा बर्ताव करता था और कभी सत्तर साल की ज़िंदगी जी चुके, वानप्रस्थ में जा चुके खेले-खाए-अघाए बुजुर्ग दार्शनिक जैसा। मयंक बोला – क्यों बचपन और बुढ़ापे को ही टटोलते हो। जवानी की भी बात करो। मैं तो पंद्रह सालों से पच्चीस सालों का बना हुआ हूं।
बात सही थी। मयंक की उम्र जैसी पच्चीस साल पर आकर ठहर गई थी। उसकी ज़िंदगी में न जाने कितने पतझड़ आए। ऐसे-ऐसे हादसे हुए कि लगा कि अब वह डूब जाएगा। उबरने की कोई सूरत नहीं नज़र आती थी। फिर भी वह उबर आया। कभी-कभी चेहरे पर मकड़ी के जाले उगते रहे। विचार भी धुंधले हो गए। लेकिन धुंधलका हटते ही वह और ज्यादा दुस्साहसी होता गया। मुझे उसमें एक शिवत्व-सा नज़र आता है। गरल तो उसने पिया है, लेकिन रहता है कैलाश पर्वत पर, मानसरोवर की अपार शांति में।
मैंने कहा – मयंक, तुम्हीं बताओ कि अभी कहां है तुम्हारा भूत और कहां है तुम्हारा भविष्य।
मयंक ने छूटते ही कहा – शब्दों की अभिधा पर मत जाओ। काल बदल गया है। मेरा अतीत अब इतिहास की चीज बन गया है, पर भविष्य मेरा अनन्त है, अपरिमित है। कहीं मैं इसी क्षण आत्महत्या कर रहा हूं और कहीं मैं इसी वक्त लोकतंत्र की जेहाद में शामिल हूं।
बाहर अंधेरा हो चुका था। ट्रेन के पहिए अपनी धुरी पर 2200 आरपीएम से घूमे जा रहे थे और हम डिब्बे के साथ पटरी पर पूरी रफ्तार से भागे जा रहे थे। मुझे लगा कि ट्रेन जब अगले स्टेशन पर रुकेगी तो ये तो दर्ज होगा कि वह कितने किलोमीटर आगे आ चुकी है। लेकिन पहियों को क्या याद रहेगा कि वह इतने किलोमीटर में अपनी धुरी पर कितने चक्कर काट चुके हैं। जिंदगी के सफर में ऐसा हमारे साथ भी तो होता है!
Comments
बहुत अच्छा लगा ।