तुम देर से क्यों आने लगी, पांखी!
कल अपने चंदू ने ऐसा मार्मिक संस्मरण लिख दिया कि दिमाग में तरंगें उठने लगीं। बारिश के मौसम में गांव के घरों में पांखी उधिराने की बात याद आ गई। लेकिन यह याद आते ही मुझे याद आ गया कि बचपन में पांखियों के आते ही बाबूजी कहा करते थे, जाओ घड़ी देख लो, ठीक आठ बजे होंगे। वाकई उस समय घड़ी में आठ ही बज रहे होते थे। तीस-चालीस साल पुरानी इस बात को मैं भूल ही चुका था कि तीन साल पहले गांव गया। बारिश का मौसम था। अचानक एक दिन उधिरा गईं पांखियां। किसी रिफ्लेक्स एक्शन की तरह मेरी आंख अपनी घड़ी पर चली गई और मैं चौंक गया कि उस समय आठ नहीं, आठ बजकर दस मिनट हो रहे थे। मेरी घड़ी एकदम सही थी, आकाशवाणी के समय से मिली हुई थी। मैं फेर में पड़ गया कि या तो पांखियों की बायोलॉजिकल क्लॉक दस मिनट स्लो हो गई है या हमारे समय की घड़ियां दस मिनट फास्ट हो गई हैं।
ये बात मैं कह रहा हूं, इसलिए इसकी कोई अहमियत नहीं है। लेकिन यही बात कोई कीट या भू-वैज्ञानिक या भौतिकशास्त्री कह रहा होता तो जरूर इस पर गौर किया जाता। सालों-साल तक पांखियों या दूसरे कीट-पतंगों के व्यवहार की मॉनीटरिंग की जाती। पता लगाया जाता कि बायोलॉजिकल क्लॉक और इंसान की बनाई घड़ियों के समय में अगर अंतर आया है तो इस अंतर की वजह क्या है।
मेरे दिमाग में ये भी सवाल उठा कि क्या हमने समय की निरपेक्ष माप का सही तरीका अपनाया हुआ है? क्या उसमें गलती की कोई गुंजाइश है? शायद नहीं, क्योंकि समय का निर्धारण इस समय सेसियम एटॉमिक क्लॉक या सेसियम एटॉमिक-बीम फ्राक्वेंसी स्टैंडर्ड से किया जाता है। इतनी सटीकता को इसी से समझा जा सकता है कि दिन के 24 घंटे में 86400 सेकंड होते हैं, जो बनते हैं सेसियम एटम के 79,42,43,38,69,28,000 दोलनों से। यानी अरब, खरब से ऊपर आप शंख-महाशंख तक पहुंच जाते हैं।
समय पर थोड़ा और सोचा तो मेरा माथा चक्कर काटने लगा। वैसे, समय की गुत्थी दार्शनिकों और वैज्ञानिकों को शुरू से ही चकरघिन्नी की तरह नचा रही है। समय का अंतराल बताना आसान है, शुरुआत और समाप्ति का वक्त बताना बच्चों का खेल है। कोई कितना जिया, किस तारीख और किस घड़ी को पैदा हुआ था, ये सब बताना आसान है। लेकिन समय कब से शुरू हुआ और कब तक चलता रहेगा, इसे तो बड़े-बड़े वैज्ञानिक नहीं बता सकते।
मनोवैज्ञानिकों के लिए समय हमारी चेतना का ऐसा पहलू है, जिससे हम अपने अनुभवों को क्रमबद्ध करते हैं। भौतिकशास्त्रियों के लिए समय लंबाई, चौड़ाई और ऊंचाई के बाद की चौथी विमा है। आइंसटाइन के सापेक्षता सिद्धांत में समय की यही अहमियत है। दार्शनिकों के लिए समय के भांति-भांति के मतलब हैं। लेकिन इनमें से कोई भी समय को संतोषजनक तरीके से परिभाषित नहीं कर पाया है।
समय के बारे में जाने क्या-क्या कहा गया है। महान साहित्यकार टॉलस्टॉय का कहना था कि समय और धैर्य दो सबसे ताकतवर योद्धा है। अपने यहां तो कहा ही गया है कि पुरुष बली नहिं होत है समय होत बलवान, भीलन छीनी गोपियां वही अर्जुन वही बान। फिलहाल तो पांखियों के उधिराने के समय में हुई दस मिनट की देरी को मैं अपने तईं सुलझा नहीं पा रहा हूं। उल्टे इस चक्कर में समय के फेर में उलझता जा रहा हूं। इसलिए इस मुद्दे को यहीं छोड़ देना बेहतर है।
मेरे दिमाग में ये भी सवाल उठा कि क्या हमने समय की निरपेक्ष माप का सही तरीका अपनाया हुआ है? क्या उसमें गलती की कोई गुंजाइश है? शायद नहीं, क्योंकि समय का निर्धारण इस समय सेसियम एटॉमिक क्लॉक या सेसियम एटॉमिक-बीम फ्राक्वेंसी स्टैंडर्ड से किया जाता है। इतनी सटीकता को इसी से समझा जा सकता है कि दिन के 24 घंटे में 86400 सेकंड होते हैं, जो बनते हैं सेसियम एटम के 79,42,43,38,69,28,000 दोलनों से। यानी अरब, खरब से ऊपर आप शंख-महाशंख तक पहुंच जाते हैं।
समय पर थोड़ा और सोचा तो मेरा माथा चक्कर काटने लगा। वैसे, समय की गुत्थी दार्शनिकों और वैज्ञानिकों को शुरू से ही चकरघिन्नी की तरह नचा रही है। समय का अंतराल बताना आसान है, शुरुआत और समाप्ति का वक्त बताना बच्चों का खेल है। कोई कितना जिया, किस तारीख और किस घड़ी को पैदा हुआ था, ये सब बताना आसान है। लेकिन समय कब से शुरू हुआ और कब तक चलता रहेगा, इसे तो बड़े-बड़े वैज्ञानिक नहीं बता सकते।
मनोवैज्ञानिकों के लिए समय हमारी चेतना का ऐसा पहलू है, जिससे हम अपने अनुभवों को क्रमबद्ध करते हैं। भौतिकशास्त्रियों के लिए समय लंबाई, चौड़ाई और ऊंचाई के बाद की चौथी विमा है। आइंसटाइन के सापेक्षता सिद्धांत में समय की यही अहमियत है। दार्शनिकों के लिए समय के भांति-भांति के मतलब हैं। लेकिन इनमें से कोई भी समय को संतोषजनक तरीके से परिभाषित नहीं कर पाया है।
समय के बारे में जाने क्या-क्या कहा गया है। महान साहित्यकार टॉलस्टॉय का कहना था कि समय और धैर्य दो सबसे ताकतवर योद्धा है। अपने यहां तो कहा ही गया है कि पुरुष बली नहिं होत है समय होत बलवान, भीलन छीनी गोपियां वही अर्जुन वही बान। फिलहाल तो पांखियों के उधिराने के समय में हुई दस मिनट की देरी को मैं अपने तईं सुलझा नहीं पा रहा हूं। उल्टे इस चक्कर में समय के फेर में उलझता जा रहा हूं। इसलिए इस मुद्दे को यहीं छोड़ देना बेहतर है।
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