फैलेगी बरगद छांह वहीं
गजानन माधव मुक्तिबोध की कविताओं ने विद्यार्थी जीवन में मुझ पर गज़ब का जादुई असर किया था। उन्हीं की तीन प्यारी-सी छोटी-छोटी कविताएं।
1. मैं बहुत दिनों से बहुत दिनों से बहुत-बहुत-सी बातें
तुमसे चाह रहा था कहना
और कि साथ-साथ यों साथ-साथ फिर बहना-बहना-बहना
मेघों की आवाज़ से, कुहरे की भाषाओं से, रंगों के उद्भासों से
ज्यों नभ का कोना-कोना है बोल रहा धरती से, जी खोल रहा धरती से
त्यों चाह रहा था कहना उपमा संकेतों से, रूपक से, मौन प्रतीकों से
मैं बहुत दिनों से बहुत दिनों से
बहुत-बहुत-सी बातें तुमसे चाह रहा था कहना!
जैसे मैदानों को आसमान, कुहरे की, मेघों की भाषा त्याग
बिचारा आसमान कुछ रूप बदलकर रंग बदलकर कहे।
2. बाज़ार में बिकते हुए इस सूट में, इस पैंट में, इस कोट में
कैसे फंसाऊं जिस्म!!
या मैं किस तरह काटूं-तराशूं देह जिससे वह जमे उसमें बिना संदेह
जीने की अदा हो रस्म!!
चाहे मैं छिपूं, छिपता रहूं अपनी स्वयं की ओट में
बेशक कि जोकर दीखता हूं और लगता हूं खुद ही को चोर
पिटता हूं अकेले चुप-छिपे, निज की निहाई पर स्वयं के हथौड़ों की चोट में
...फिर भी एक सज-बज, एक धज भई वाह!!
मुझको नित बताती ज़िंदगी की राह।
3. पता नहीं, कब कौन कहां किस ओर मिले
किस सांझ मिले, किस सुबह मिले!
यह राह ज़िंदगी की जिससे जिस जगह मिले
है ठीक वहीं, बस वहीं अहाते मेंहदी के
जिनके भीतर है कोई घर, बाहर प्रसन्न पीली कनेर
बरगद ऊंचा, गीली ज़मीन
मन जिन्हें देख कल्पना करेगा जाने क्या!!
तब बैठ एक गंभीर वृक्ष के तले
टटोलो मन जिससे जिस छोर मिले
कर अपने तप्त अनुभवों की तुलना, घुलना-मिलना!!
यह सही कि चिलचिला रहे फासले, तेज दुपहर भरी
सब ओर गरम धार-सा रेंगता चला काल बांका-तिरछा
पर, हाथ तुम्हारे में जब भी मित्र का हाथ
फैलेगी बरगद छांह वहीं, गहरी-गहरी सपनीली-सी...
1. मैं बहुत दिनों से बहुत दिनों से बहुत-बहुत-सी बातें
तुमसे चाह रहा था कहना
और कि साथ-साथ यों साथ-साथ फिर बहना-बहना-बहना
मेघों की आवाज़ से, कुहरे की भाषाओं से, रंगों के उद्भासों से
ज्यों नभ का कोना-कोना है बोल रहा धरती से, जी खोल रहा धरती से
त्यों चाह रहा था कहना उपमा संकेतों से, रूपक से, मौन प्रतीकों से
मैं बहुत दिनों से बहुत दिनों से
बहुत-बहुत-सी बातें तुमसे चाह रहा था कहना!
जैसे मैदानों को आसमान, कुहरे की, मेघों की भाषा त्याग
बिचारा आसमान कुछ रूप बदलकर रंग बदलकर कहे।
2. बाज़ार में बिकते हुए इस सूट में, इस पैंट में, इस कोट में
कैसे फंसाऊं जिस्म!!
या मैं किस तरह काटूं-तराशूं देह जिससे वह जमे उसमें बिना संदेह
जीने की अदा हो रस्म!!
चाहे मैं छिपूं, छिपता रहूं अपनी स्वयं की ओट में
बेशक कि जोकर दीखता हूं और लगता हूं खुद ही को चोर
पिटता हूं अकेले चुप-छिपे, निज की निहाई पर स्वयं के हथौड़ों की चोट में
...फिर भी एक सज-बज, एक धज भई वाह!!
मुझको नित बताती ज़िंदगी की राह।
3. पता नहीं, कब कौन कहां किस ओर मिले
किस सांझ मिले, किस सुबह मिले!
यह राह ज़िंदगी की जिससे जिस जगह मिले
है ठीक वहीं, बस वहीं अहाते मेंहदी के
जिनके भीतर है कोई घर, बाहर प्रसन्न पीली कनेर
बरगद ऊंचा, गीली ज़मीन
मन जिन्हें देख कल्पना करेगा जाने क्या!!
तब बैठ एक गंभीर वृक्ष के तले
टटोलो मन जिससे जिस छोर मिले
कर अपने तप्त अनुभवों की तुलना, घुलना-मिलना!!
यह सही कि चिलचिला रहे फासले, तेज दुपहर भरी
सब ओर गरम धार-सा रेंगता चला काल बांका-तिरछा
पर, हाथ तुम्हारे में जब भी मित्र का हाथ
फैलेगी बरगद छांह वहीं, गहरी-गहरी सपनीली-सी...
Comments
बहुत अच्छा लगा, आप के यहाँ कविता देख कर।