Monday 23 July, 2007

भारत के जिलाधिकारियों सावधान!

अगर आप, आपका कोई नातेदार या जान-पहचान वाला भारत के किसी जिले का डीएम है तो उस तक ये सूचना ज़रूर पहुंचा दीजिए कि जिलाधिकारी/ डिप्टी-कलेक्टर/ डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट की पोस्ट पर ही तलवार लटक रही है और इस पद को कभी भी खत्म किया जा सकता है। वैसे, भारत के लिए ये अभी दूर की कौड़ी है, लेकिन ज्यादा दूर की नहीं क्योंकि पुराने हिंदुस्तान के एक हिस्से पाकिस्तान में ऐसा हो चुका है। और टूटे बांध का पानी दस गांव दूर तक पहुंच गया हो तो बाकी गांवों के लोग इस गफलत में नहीं रह सकते हैं कि हमारे गांव में पानी थोड़े ही आएगा। या, उस पादरी की तरह भी नहीं हो सकते, जिसने बीच मझधार में जब नाव के दूसरे किनारे पर छेद हो गया और नाव उधर से डूबने लगी तो कहा था – थैंक गॉड द होल इज नॉट अवर साइड।
पाकिस्तान ने दो सौ सालों के अंग्रेजी शासन से विरासत में मिले डीएम के पद को खत्म कर दिया है और अभी नहीं, सात साल पहले से। इसकी जगह ज़िला वित्त आयोग और ज़िला-स्तरीय पब्लिक सर्विस कमीशन बनाए गए हैं। ज़िले के अधिकारियों-कर्मचारियों का चयन ज़िला समितियां करती है और ये लोग राज्य या केंद्र सरकार के प्रति नहीं, इन समितियों के प्रति जवाबदेह होते हैं। हर ज़िला समिति के सदस्यों में महिलाओं का भी एक निश्चित अनुपात होता है। ज़िलों की इस नई प्रशासनिक व्यवस्था को पाकिस्तान के संविधान में शामिल कर लिया गया है।
हाल ही में लाहौर में स्थानीय स्वशासन पर एक संगोष्ठी की गई, जिसमें भारत और पाकिस्तान के कुछ केंद्रीय व प्रांतीय मंत्रियों, अफसरों, बुद्धिजीवियो और पंचायती स्तर तक के नुमाइंदों ने शिरकत की। उसी संगोष्ठी में प्रशासनिक सुधारों पर चर्चा के दौरान पाकिस्तान में डीएम के पद को खत्म करने के अनुभव पर भी बात की गई। इसी संगोष्ठी में नक्कारखाने में तूती बने हमारे पंचायती-राज मंत्री मणिशंकर अय्यर ने अपनी पीठ थपथपाते हुए कहा कि भारत में 530 ज़िला पंचायतें हैं और यहां 32 लाख चुने हुए व्यक्ति हैं जो एक अरब भारतीयों का प्रतिनिधित्व करते हैं। वैसे, जिस देश में सालों-साल से चुनाव नहीं हुए हो, उसके लिए यह सच्चाई वाकई जलन की बात है और हमारे लिए गर्व की। ये अलग बात है कि हमारे पंचायती तंत्र की धमनियों में अभी तक सही रक्त संचार नहीं शुरू हो पाया है।
लेकिन पंचायती राज की सोच का दायरा बढ़ रहा है और हो सकता है कि ये सिलसिला बढ़ते-बढ़ते जिलाधिकारी तक पहुंच जाए। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी लंबे समय से प्रशासनिक सुधारों की बात कर रहे हैं। इसलिए संभव है कि ब्रिटिश शासन से उत्तराधिकार में मिली सिविस सर्विसेज पर भी किसी दिन गाज गिर जाए। हम लोग जब राजनीतिक कार्यकर्ता की हैसियत से गांवों में जाते थे तो एक बात लोगों से ज़रूर पूछते थे। वो यह कि तेल पेरनेवाली मशीन से आटा कैसे पीसा जा सकता है? तब, अंग्रेजों ने भारतीय अवाम के दोहन के लिए जो मशीनरी बनाई थी, वह हमारे काम की कैसे हो सकती है? सालों पहले कर्नाटक में नंदुन्जास्वामी की अगुआई में आम लोगों ने ‘पब्लिक सर्वेंट्स’ के घरों पर छापे भी मारे थे और उनसे पूछा था कि उन्होंने इतनी संपत्ति कहां से अर्जित की। नंदुन्जास्वामी ने लोगों से कहा था कि डीएम, कलेक्टर हमारे अफसर नहीं, बल्कि पब्लिक सर्वेंट हैं, हमारे नौकर हैं।
मेरे कहने का मतलब ये है कि आईएएस-पीसीएस जैसे अफसरों के खिलाफ एक सुगबुगाहट देश में लंबे समय से चल रही है। ऐसी ही सुगबुगाहट के चलते नौकरशाही के लाख विरोध के बावजूद राइट टू इनफॉरमेशन एक्ट आज अवाम के हाथों का एक मजबूत अस्त्र बन चुका है। ऐसे में किसी दिन डीएम साहब का ओहदा भी घेरे में न आ जाए। इसलिए देश भर के जिलाधिकारियों सावधान! वैसे भी आप लोग अपनी कम तनख्वाह और नेताओं के दखल से काफी समय से काफी परेशान चल रहे हैं। जारी...

6 comments:

Sanjeet Tripathi said...

ह्म्म, अफ़सरशाही पर अंकुश लगाने की एक अच्छी कोशिश!
शुक्रिया इस खबर के लिए!!

Sanjay Tiwari said...

अफसरशाही का केन्द्रीय प्रस्थान बिन्दु कलक्टर ही होता है. ऊपर और नीचे के बीच ऐसी कड़ी जो जोड़ता कम उलझाता ज्यादा है.
सर्वज्ञ होने के बोझ से दबी अफसरशाही को नापने के लिए जरूरी है कि कलेक्टर की भूमिका पर कतर-ब्यौंत हो. जवाबदेह प्रशासन बनाने की मुहिम पता नहीं किस गर्त में है लेकिन अफसरशाही वह घुन है जो लगातार देश को खोखला कर रहा है. आम आदमी की धारणा यह है कि नेता भ्रष्ट होता है. लेकिन हकीकत इसके उलट है. अफसर अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने के लिए भ्रष्टाचार के रास्ते तैयार करता है. आज देश जिस भूमंडलीकरण की चुनौती से जूझ रहा है उसका ले-आऊट भी इन्हीं अफसरशाहों ने तैयार किया है.
केवल कलेक्टर नहीं पूरी अफसरशाही से मुक्ति जरूरी है. लोकस्वराज्य की कुंजी भी इसीमें छिपी है. लिखना जारी रहे.

36solutions said...

Badhiya, aapake vichar aur Sanjay ji ki Tippani bhi

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

हमारे देश में अभी लोकतंत्र की जो स्थिति है उससे तो ऐसा लगता है कि आने वाले दिनों में चुनाव की परम्परा ख़त्म करके यहाँ सिर्फ नियुक्तियाँ होंगी, प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति जैसे पदों पर भी. अभी का ही परिदृश्य देख लें. नियुक्तियाँ होंगी तो जाहिर है कि इन पदों पर आई ए एस ही आएंगे. क्योंकि पालतूपने में इनका कोई जवाब नहीं है. आप कह रहे हैं कि जिलाधिकारी जाएगा. संभव ही नहीं है. ज्यादा से ज्यादा यही होगा कि नाम बदल जाएगा.

Udan Tashtari said...

जारी रहें. अनिल भाई, मुझे भी यही लगता है कि बस नाम बदलेगा. प्रक्रिया वही रहेगी.

अनिल रघुराज said...

अगर नाम ही बदला और प्रक्रिया वही रही तो क्या फायदा! मेरा तो ये कहना है कि ऊपर से आरोपित डीएम के बजाय जिले के लोगों से चुना प्रतिनिधि आएगा तो नाम ही नहीं, उसका काम भी बदल जाएगा। उसके पूरी तरह जनोन्मुख होने में वक्त जरूर लगेगा, लेकिन एक सकारात्क शुरुआत हो जाए तो अच्छा ही रहेगा।