कोई आपकी धमनियों का सारा खून निकालकर उसमें सीसा पिघलाकर डाल दे तो कैसा लगेगा? लगेगा कि हाथ-पैर और अंतड़ियों का वजन इतना बढ़ गया है कि आप सीधे खड़े भी नहीं रह सकते। मोम की तरह पिघलकर गिर जाएंगे। अपने को संभाल पाने की सारी ताकत एकबारगी चुक जाती है। पूरा वजूद भंगुर हो जाता है। लगता है कि कभी भी भर-भराकर आप जमींदोज हो जाएंगे। ऐसे हो जाएंगे जैसे बुलडोजर के कुचलकर कोलतार की सड़क पर बनी कोई चिपटी हुई 2-dimensional आकृति या चॉक का चूरन।
दिमाग में ऑक्सीजन पहुंचने का स्रोत बंद कर दिया जाए तो कैसा लगेगा। बार-बार जम्हाई आएगी। लगेगा जैसे गर्दन से लेकर माथे के दोनों तरफ सूखे से तड़के खेतों से निकालकर मिट्टी के टुकड़े भर दिए गए हों। आंखों से आंसू नहीं, पानी की दो-चार बूंदें निकलेंगी। बैठे-बैठे लगेगा कि अब ढप हो जाएंगे। हाथों से सिर थामने की कोशिश करते हैं तो लगता है अब वह धम से सामने की मेज पर गिर जाएगा।
पूरा शरीर झनझनाने लगता है। अंग-अंग में झींगुर बोलने लगते हैं। आंखें बंद करो तो लगता है अब ये कभी खुलेंगी ही नहीं। बंद आखों के आगे अजीब-अजीब सी आकृतियां धमाचौकड़ी करती हैं। आप प्रकाश की गति से किसी अनंत सुरंग में घुसते चले जाते हैं जिसके अंतिम छोर पर परमाणु बम के विस्फोट से उभरे धुएं की आकृति की रौशनी आपका इंतज़ार कर रही होती है।
आपने कहा, ब्रह्म के एक नहीं दो रूप हैं और बता दिया गया कि ये तो कह रहा है कि मैं तुम्हारी दोनों आंखें फोड़ दूंगा। आपने तो भरसक ज़ोर से कहा था – नरो व कुंजरो व। लेकिन सेनापतियों ने शोर मचाकर आपको अपने सामरिक मकसद का मोहरा बना लिया। आपने कल के कामों में मीनमेख निकाली ताकि आज की देश-दुनिया को सुंदर बनाया जा सके, जीवन-स्थितियों को ज्यादा बेहतर व जीने लायक बनाया जा सके। लेकिन उन्होंने कहा – अरे लानत भेजो इस पर। ये तो हमारे गरिमामय अतीत की तौहीन कर रहा है, उसे डिनाउंस कर रहा है।
सूरत अगर ऐसी हो गई हो तो मन में यही आता है कि क्या लिखूं, कैसे लिखूं, कब लिखूं और क्यों लिखूं? फिर लिखना ही है तो सबको दिखाने के लिए ब्लॉग पर क्यों लिखूं, क्यों करूं आत्म-प्रदर्शन? मोर को नाचना ही है तो बंद कमरे में भी नाच सकता है। जंगल में नाचना कोई ज़रूरी तो नहीं?
फोटो सौजन्य: bilwander
मतदाता जागरूकता गीत
1 month ago
13 comments:
भाई सोचे नही जब लिखने बैठे है तो देर क्या या तो आप अपनी सुबह से शाम तक की दिनचर्या लिखना शुरू कर दे या देश के किसी महापुरुष की आत्मकथा लिखना शुरू कर दे मन भी शांत हो जावेगा .
अच्छा लिखते हैं। बस ऐसे ही लिखते रहें।
बात तो पते की है ,
लेकिन लिखने के लिए
विषय और मुद्दे कभी ख़त्म नहीं होते .
देखिए न आपने लिखने के
संशय पर ही लिख दिया
वह भी इतना मर्मस्पर्शी,इतना धारदार !
इसलिए भाई साहब !
लिखें कि लिखना ज़रूरी है जिंदगी के लिए !
लिखें कि लिखना ज़रूरी है बंदगी के लिए !!
मोर के नाचने से बरसता है - जंगल में दूर दूर, कमरे में कम कम - बीच का एक सफ़ा पढ़ के आँखें बंद कीं फिर आँखें खोल कर एक बार फिर पढ़ा - [आपको मालूम होगा कौन सा!!] - सादर मनीष
लिखिए इसलिए कि कई लोग कुछ पढ़ने की उम्मीद में आपके दरवाजे पर आकर रोज झांक जाते हैं। आपके चिट्ठी की उम्मीद में डाकिए का बस्ता टटोलकर देखते हैं। चिट्ठी ज़रूर होनी चाहिए चाहे उसमें कुछ भी लिखा हो। आपके पाठक कम लिखा अधिक बाँचने वाले लोग हैं और जो पत्र को भी तार का दर्जा देते हैं।
आप करीब आ पहुंचे हैं. मौन को और बढ़ा दीजिए. संभव हो तो हर प्रकार की अभिव्यक्ति पर कुछ दिन के लिए पूरी तरह से विराम लगा दीजिए. कुछ अच्छा घटित हो जाएगा.
जीवन ऐसे मौके कम ही देता है. इसका उपयोग करिए.
डॉ. जैन की बात से पूरी तरह से सहमत....हालाँकि कई दिनों से हम भी लिखने में नियमित नहीं हैं...लेकिन आप तो लिखते रहिए... एक भी पढ़कर अगर कुछ अमल कर पाएगा तो समझिए लिखना सफल हो गया.
अच्छा लगा अनिल जी...ऎसे ही लिखते रहें...
छोड़ रख्खा हो सबने जहाँ
अंधेरा सूरज के भरोसे
दिया वहाँ हर एक का
किसी सूरज से कम नहीं
आपने लिखा है- 'मोर को नाचना ही है तो बंद कमरे में भी नाच सकता है। जंगल में नाचना कोई ज़रूरी तो नहीं?'
अब आप जानी वाकर पर फिल्माए गए इस गाने से भी प्रेरणा नहीं ले सकते हैं- "जंगल में मोर नाचा किसी न देखा. हम थोड़ी-सी पीकर ज़रा झूमे, तो सबने देखा", क्योंकि अपने 'जंगल में मोर नाचने' के मुहावरे का उल्टा इस्तेमाल कर लिया है. अब आपसे मोर भी खफा हो जायेगा. ... हा!हा!हा!
वैसे आपको बता दूँ कि मैं टिप्पणी भले नहीं करता लेकिन अक्सर रघुराज मोर को नाचते देखा करता हूँ. सो प्लीज़ कीप राइटिंग मोर एंड मोर.
संजय जी का कहना सही है. मौन होना ही सबसे बेहतर विकल्प है. पर लिखते रहें.
लिखें, मोर मोर मोर
सिर्फ इतना कहना चाहती हूँ कि दुनिया के सबसे ज्यादा रचनात्मक लोग, अपनी तमाम सदिच्छा के बावजूद, किसी भी संगठन मे ताउम्र नही रह पाये. समूह की गति कितनी भी जंतांत्रिक हो, विचार कितने भी उन्नंत क्यो न हो, सबसे ताल-मेल बिठाते-बिठाते, मूल मंतव्य खो जाता है, और य्थास्थिति मे देर सबेर समंवय का खतरा हमेशा रहता है.
रचनात्मक लोग इसी ठहराव को तोडने की पहल करते है. सचेत करते है, और विरोध का शिकार भी होते है. और इन्ही किन्ही अवस्था मे आप है, आपको रचनात्मक्ता के नये आयाम मिले, और विचार और य्थार्थ के इस द्वन्द मे आप जो देख पा रहे है, वो और साफ हो, और आपके सारोकार बडे सामाजिक सरोकार की पहल की दिशा मे जाय, ऐसी शुभ कामना है.
पिछले २ सालों की तरह इस साल भी ब्लॉग बुलेटिन पर रश्मि प्रभा जी प्रस्तुत कर रही है अवलोकन २०१३ !!
कई भागो में छपने वाली इस ख़ास बुलेटिन के अंतर्गत आपको सन २०१३ की कुछ चुनिन्दा पोस्टो को दोबारा पढने का मौका मिलेगा !
ब्लॉग बुलेटिन इस खास संस्करण के अंतर्गत आज की बुलेटिन प्रतिभाओं की कमी नहीं 2013 (6) मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
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