
पूछा – रिक्शे ने तो तेरी जिंदगी बना दी, क्यों? बना दी कहां, ज़िंदगी बिगाड़ दी। अब मैं कभी रिक्शे को हाथ नहीं लगाऊंगा। ऊपरवाले ने वेल्डिंग मशीन पर लगा दिया है, वही अपुन का सब कुछ है...माई-बाप। फिर मराठी में थोड़ी गिटिर-सिटर। अचानक वेल्डिंग मशीन वाला फक्कड़ बोल पड़ा – ज़िंदगी मचमच है, मचमच। एक-दो वाक्य मराठी के। फिर ड्राइवर बोला – अभी तेरा खून गरम है, इसलिए ऐसा बोलता है। वो बोला – ठडे खून से अपुन को जीने का नहीं। जिस दिन खून ठंडा होगा, उसी दिन किसी पेड़ से लटक जाऊंगा, खल्लास। इतने में उतरने की जगह आ गई। मैं उतरा, वह भी उतरा। बगल से गुजर रहे किसी जान-पहचान वाले को पकड़कर बोला – अबे, तीन रुपए निकाल। उस दिन का भाड़ा नहीं दिया था। लिया और ऑटोवाले को दिया। चला गया, मैं भी चल दिया।
मचमच हालांकि मुंबई के टपोरी लोगों के बुलाने का नाम भी होता है। लेकिन सचमुच मुझे मचमच शब्द का सही अर्थ नहीं मालूम। लगता है कि इसका वास्ता ज़िंदगी को बिंदास जीने के सलीके से है, अवाम की फिलॉसफी से है। क्या बात है!!! सोचता हूं कि बस जो है, जैसा है, फिलॉसफी क्या उसी को जस्टीफाई करने का साधन बनकर नहीं रह गई है? हर किसी का दिमाग ज़िदगी के टेढ़ेपन को अपनी सोच को झुकाकर संतुलित करता है, जैसे आप दाहिनी टांग उठाकर बाईं तरफ झुकते हैं तो दायां हाथ अपने-आप ऊपर उठ जाता है। क्या हम हिंदुस्तानियों की तरह सारी दुनिया के लोग जीवन की कमियों को सोच के ऐसे ही तड़के से बैलेंस करते हैं?
धार्मिक सोच कहती है कि इस दुनिया में जो भी आया है, उसके पीछे एक नियत मकसद है। तय है कि किसको कब और क्या करना है। विधि का लेखा है, विधान है। हम तो निमित्त मात्र हैं। उसके लिखे से एक इंच इधर-उधर नहीं हो सकते। ज्योतिष भी ज़िंदगी का कुछ ऐसा ही बंधा हुआ फ्रेम पेश करती है। लेकिन इसके साथ यह भी जुड़ा हुआ है कि कर्मप्रधान विश्व करिराखा। कर्म से रेखाएं बदल जाती हैं, तकदीर बदल जाती है। इसके जुड़े किस्से-कहानियों की कमी नहीं है।
वो और उसके लिखे की बात मैं नहीं जानता। लेकिन इस बात का ज़रूर अहसास होता है कि बहुत सारे प्राकृतिक, सामाजिक कारक हमारे फैलने का स्पेस तय कर देते हैं। इसलिए जीवन के मकसद का कोई निरपेक्ष सूत्र नहीं है। यह नितांत सापेक्ष चीज़ है और इसे हमें खुद ही अपनी सीमाओं और श्रेष्ठताओं को ध्यान में रखते हुए निर्धारित करना होगा। एक समान लक्ष्य ज़रूर हम सभी को जोड़ता है कि जीने के लिए एक ज्यादा बेहतर दुनिया बनाई जाए। न्यायपूर्ण और लोकतांत्रिक समाज की बुनियाद को पुख्ता किया जाए। बाकी हम अपनी-अपनी मुक्ति के रास्ते और मकसद तय करने के लिए स्वतंत्र हैं।
ज़िंदगी ऐसे जिएं कि विदाई के वक्त कोई मलाल न रहे कि हाय, यह तो रह ही गया। अपनी बात कहूं तो मुझे लगता है कि जिस दिन मैं अपने समय को पूरी तरह समझ लूंगा, ऊपर-ऊपर कही जानेवाली बातों के पीछे का सच जान लूंगा, अतीत और वर्तमान के बीच की कड़ियों को लोकेट कर लूंगा, बाहर के संसार और अपने अंदर की दुनिया में सही-सही संतुलन बना लूंगा, उसी दिन मैं गहरी सांस भरकर सुस्ताने बैठ जाऊंगा। उठूंगा तो किसी को बताना नहीं पड़ेगा कि मुझे क्या करना है। ज्ञान की मुक्ति कर्म के बिना संभव नहीं है; और यही कर्म-मार्ग मेरी भी मुक्ति का ज़रिया बनेगा।
फोटो साभार: ozrkclkr
6 comments:
एक उद्देश्य तय कर पाना और जम के उस पर लग जाना बड़ा जटिल काम है। उद्देश्य तय करने में भी हम अक्सर हिसाबी होते हैं। इससे क्या फ़ायदा होगा?
अच्छा लेख!
बेवज़ह मन पे कोई बोझ न भारी रखिए
ज़िंदगी ज़ंग है इस ज़ंग की तैयारी रखिए
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अच्छा लगा आपका चिंतन
आपकी सोच की गहराई से रूबरू हुए हम
और एक बार......... बधाई और आभार !
शुभकामनाएँ
डा.चंद्रकुमार जैन
सूखे पत्ते की तरह क्यों न उड़ते चलें?
कभी कभी ऐसा होता है ....आलेख परफेकट ..
संसार की सबसे छोटी कहानियों में से एक कहानी दो लाइन की है और तीन कहानियां तीन लाइनों की; ये कहानीकार हम नहीं हैं और जो ये कहानियां हमारे लिये लिख चुका है उससे क्या हुज्जत करना, बस जिये जाना है हमारे कर्मों से लेकर विचारों तक का वो कहानीकार अधिष्ठाता है बस ये न मान पाना ही हमें इंसान बनाए रखता है मुक्ति के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा,ये भी उसी की डिजाइन करी है।
काश! कि संभव हो आपका सुस्ताना
अपने आप को जान जाना
समय को अपनी उन्जरी में भर पाना!
काश कि संभव हो आपकी सोच का ये फ़साना!
कठिन है मगर असंभव कुछ भी नहीं, पर जब यहाँ से संभवत के लिए जो समय बनता है वो आसाँ नहीं!
आलेख बहुत खूब है, दिलचस्प बन पडा है...इसके किरदार हमारे ही अन्दर हैं, इसलिए हमें सहायता मिली- खुद की बाबत कुछ कह्पाने की- शुक्रिया आपके जीवंत उन किरदारों को-जो हमारे अन्दर ही हैं, मगर उनके सांस लेने तक की विधि से हम परिचित नहीं! शायद इसीलिए, हमने खुद को आज तक नहीं जाना, कब से दम भरते आरहे हैं, इस प्रयास का...मगर अनचाहे और भी किरदार इस दम को प्रश्नों के घेरे में ला देते हैं...हमारी तमाम जमानत भी यहाँ तक नहीं पहुँच पाती...आपकी गहरी पैठ को सलाम.
{डॉक्टर चन्द्र कुमार जैन" की ये दो लेने "बेवज़ह मन पे कोई बोझ न भारी रखिए,
ज़िंदगी ज़ंग है इस ज़ंग की तैयारी रखिए" इक़ ज़िन्दगी की बाबत बहुत कुछ कहती हैं...बेहतर.}
आपने सटीक कहा है; ज्ञान की मुक्ति कर्म के बिना संभव नहीं है; और यही कर्म-मार्ग मेरी भी मुक्ति का ज़रिया बनेगा।
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सादर;
~अमित के. सागर~
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