मनस्मृति जिंदा है हमारी प्रशासनिक सेवाओं में

मुझे याद है जब छात्र जीवन के दौरान हम लोग गावों में जाते थे तो लोगों से कहते थे कि जिस तरह तेल पेरने की मशीन से आटा नहीं पीसा जा सकता, उसी तरह अंग्रेज़ों के जमाने से चले आए प्रशासनिक तंत्र से अवाम का भला नहीं हो सकता। आज प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तक को प्रशासनिक सुधारों की वकालत करनी पड़ रही है। असल में हमारे प्रशासनिक तंत्र में बहुत सारे अंतर्विरोध हैं। छठे वेतन आयोग की सिफारिशों के बाद ऐसे ही कुछ अंतर्विरोध उभरकर सामने आए हैं। पिछले हफ्ते इस पर एक दिलचस्प लेख आईपीएस अफसर अभिनव कुमार ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा था जिसमें उन्होंने बताया है कि हमारा प्रशासनिक तंत्र एक अलग किस्म की जाति-व्यवस्था में जकड़ा हुआ है। पेश हैं इसके संपादित अंश...

छठे वेतन आयोग ने जिस तरह की सिफारिशें की हैं, उसे हमारी सिविल सेवाओं के लिए मनुस्मृति का आख्यान कहा जा सकता है। एक ऐसा आख्यान जो नौकरशाही जाति व्यवस्था में व्याप्त असमानता और अन्याय को तार्किक आधार देता है। यह जाति व्यवस्था आधुनिक भारत के लिए उतनी ही घातक है जितनी की मूल जाति व्यवस्था। संविधान सभा में अपने सहयोगियों की आशंकाओं को दूर करते हुए नेहरू और पटेल ने औपनिवेशिक नौकरशाही को जारी रखा और उसको अखिल भारतीय सेवाओं का रूप दिया। लेकिन आज राष्ट्र निर्माण में प्रेरक की तो बात ही छोड़ दीजिए, आईएएस और आईपीएस जनहित के संरक्षण तक की भूमिका निभाने की स्थिति में नहीं हैं। आज़ादी के छह दशक बाद आईएएस की स्थिति किप्लिंग के शब्दों में power without responsibility की है, जबकि आईपीएस की हालत टॉम स्टॉपर्ड के शब्दों में responsibility without power जैसी हो गई है।

आज आईएएस का काम केवल इतना रह गया है कि जिन भी निहित स्वार्थों को गठबंधन चुनकर सत्ता में आए, वह उसकी सेवा करते हुए नकदी और माल में अपना ‘कट’ पक्का कर ले। जबकि आईपीएस का काम इतना भर सुनिश्चित करना है कि कानून का इस्तेमाल सत्ता के हथियार के बतौर हो और ताकतवर लोगों के काले कारनामों को अनदेखा किया जाए। गलती से उजागर हो जाएं तो शांति से उन्हें ढंक दिया जाए। एकदम स्पष्ट है कि आज आईएएस, आईपीएस जैसी अखिल भारतीय सेवाएं मूल सोच और आदर्श का कैरिकेचर बनकर रह गई हैं। आम लोग इनकी अकर्मण्यता पर सवाल नहीं उठाते तो इसलिए क्योंकि मूल जाति व्यवस्था ने उन्हें भ्रष्ट और नाकारा सरकारी तंत्र को भी अपना भाग्य मानने के लिए ढाल रखा है। लेकिन उनके मौन को स्वीकृति नहीं माना जा सकता।

मुझे तो लगता है कि आज़ादी के समय के तमाम आदर्शों और धारणाओं की तरह आईपीएस का भी वक्त अब लद गया है। यही बात मैं आईएएस के बारे में नहीं कह सकता। हालांकि यह सेवा भी अपने मूल मकसद और धारणा को पूरा करने में एकदम विफल रही है, फिर भी इसने अपनी एक भूमिका खोज ली है। आज यह राजनेता, बिजनेसमैन और नौकरशाहों की उस तिकटी का अपरिहार्य हिस्सा बन गई है जो पूरे देश पर राज कर रही है। उदारीकरण के 15 सालों बाद आज राजनेता और बिजनेसमैन को आईएएस की ज़रूरत पहले से कहीं ज्यादा है, जबकि आईपीएस का काम इनके फैसलों से उपजने वाले उपद्रव और हिंसा को संभालना भर रह गया है।

छठा वेतन आयोग अखिल भारतीय सेवाओं में व्याप्त इस जाति व्यवस्था को जारी रखने का पक्षधर नज़र आता है। कितनी अजीब बात है कि 1991 से ही जहां अर्थव्यवस्था और बिजनेस के मामले में हम ज्यादा खुले, कम घुमावदार और मेरिट-आधारित संगठन की ज़रूरत को समझ चुके हैं, वहीं हम शासन-प्रशासन के मामले में उस प्रणाली पर सवाल उठाने की ज़रूरत ही नहीं समझते जिसने जन्म से मिले विशेष अधिकारों जैसी ही स्थिति यूपीएससी परीक्षा से मिले विशेषाधिकारों की कर रखी है। अगर आप ब्राह्मण के रूप में पैदा हुए हैं तो ताज़िंदगी आपके विशेषाधिकार कायम रहेंगे। छठे वेतन आयोग ने लगता है यही तर्क आईएएस पर लागू किया है।

इसलिए अगर हम 'नीच-जात' के लोगों को प्रोफेशनल गरिमावाले अफसरों की तरह काम करने की इजाजत नहीं दी जा रही तो हम सरकार से गुजारिश करते हैं कि देश के हित में और पुलिस के हित में कृपया एक प्रोफेशनल के बतौर आईपीएस को खत्म कर दीजिए। या कम से कम इसे मरता हुआ कैडर घोषित कर दीजिए। जिले में पुलिस के काम आईएएस के हवाले किए जा सकते हैं, अर्द्धसैनिक, खुफिया और राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े काम सेना को दिए जा सकते हैं और बाकी बचे काम प्रबंधन सलाहकारों और एकेडमिक्स से जुड़े लोगों को सौंपे जा सकते हैं।

आज नेहरू और पटेल जिंदा होते तो वे ज़रूर इस बात को समझते कि आईपीएस के उनके नजरिए को औपचारिक रूप से दफ्न करने का वक्त आ गया है। अगर आईपीएस भी एक सामूहिक इकाई के रूप में अपने सम्मान को बढ़ाने और एक प्रोफेशनल सेवा के रूप में पुलिस को कारगर बनाने के प्रति गंभीर है तो उन्हें अपने अंत को नजदीक लाने की हरचंद कोशिश करनी चाहिए। शायद भारतीय पुलिस सेवा को अपनी मौत में वह सराहना, कृतज्ञता और गौरव मिल जाए, जिससे उसे जिंदगी भर वंचित रखा गया।

Comments

Arvind Mishra said…
मौजूदा स्थिति की बेबाक प्रस्तुति -सचमुच बहुत घुटन ,बेचारगी और बेबसी भरी नियति है गैर आ ई एस सेवाओं /संवर्गों की .आ ई एस
आज भी छुआछूत की व्यवस्था कायम किए हुए हैं -ज्यादातर घमंडी ,आमानावीय और राजा महाराजाओं की सोच से शासन प्रशासन का कारोबार चला रहे हैं -हाँ नेताओं और व्यापारियों से उनके मधुर और भाईचारे के सम्बन्ध हैं -मगर यह सब तो सभी को पता है .रास्ता क्या है/हो ?
आज इन्ही लोगों के निकम्मेपन के चलते व्यवस्था इतनी खस्ताहाल हो चली है कि भ्रस्त नेता परेता भी चौड़े से अपनी कर ले रहे हैं -यहाँ तक कि इनके अपने संवर्ग के अब भी कईइमानदार अधिकारी गाजर मूली की तरह काट छांट कर फेक दिए जा हैं -आनन फानन मे निलंबित -बर्खास्त तक हो रहे हैं -दरअसल यह संवर्ग भी अब वह काट रहा है जो फसल इन्ही के भाई बंधुओं ने बोयी है .
अब भी शर्म मगर इन्हे नही आती .
Srijan Shilpi said…
आपसे काफी हद तक सहमति है। भारत के अस्सी फीसदी आम आदमी के हित में यही सबसे कारगर उपाय है कि आईएएस और आईपीएस सेवाओं को भंग करके उनका पुनर्गठन किया जाए।

लेकिन ऐसा कर सकने की कुव्वत किसी भी राजनीतिक दल में नहीं है। सरकारों पर आईएएस लॉबी का दबाव इस कदर हावी है कि वे उनकी मर्जी के बगैर कुछ भी नहीं कर सकते।
दुनियां में अब गिरगिट बचे हैं या गिद्ध!
Udan Tashtari said…
बिल्कुल सही..आपसे पूर्णतः सहमत.
Unknown said…
बहुत अच्छा लिखा है - सच भी लिखा है- प्रशासनिक वर्ण व्यवस्था दुखद वर्तमान है - पर जहाँ तक भकोस शाही की बात है - केवल तिपाया नहीं - कम से कम चौखाना है - हो सकता है षटकोण भी हो - समूह की बात करें तो एक इनके अपने वर्ण / पाले का सच भी है - परिमाण में कम हो पर वीभत्स तो होगा ही - फिर भी छोटे अनुपात में सही काफी कुछ प्रशासनिक अधिकारी अभी भी ज़िंदा हैं - अगर प्रार्थना में दम हो तो करते हैं कि इस तरह की जिजीविषा भी बढ़े

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