मेरे बाद मेरे इस ब्लॉग का क्या होगा?
भगवान न करे कि ऐसा हो। लेकिन मौत तो किसी भी रूप में कभी भी आ सकती है। अब अजय रोहिला को ही ले लीजिए। उनको गुजरे एक महीना होने को है, लेकिन उनका ब्लॉग नई राहें एयरपोर्ट पर अनक्लेम्ड बैगेज की तरह अभी तक पड़ा है और न जाने कब तक यूं ही पड़ा रहेगा। आखिरी पोस्ट 18 फरवरी की है। उसी के बाद शायद तबीयत बिगड़ने लगी होगी और होली के दिन दुनिया से कूच कर गए। भाई को इतनी फुरसत तक न मिली कि ब्लॉग पर ब्लॉगिंग की दुनिया के सभी दोस्तों को आखिरी सलाम लिख देते या धुरविरोधी की तरह अपना ब्लॉग ही डिलीट कर देते या ब्लॉग पर कोई लिंक दे देते कि यह ब्लॉग मैं खत्म कर रहा हूं, अब आप मुझसे यहां मिल सकते हैं।
ऐसे ही कोई भी ब्लॉगर कभी भी हमें बिना बताए विदा हो जाए तो! मैं या आप में से कोई भी ऊपरवाले से सट्टा-बयाना तो लिखाकर आया नहीं है कि अनंत समय तक ज़िंदा रहेगा, कि हमें हमेशा-हमेशा के लिए धरती पर रहने का पट्टा दे दिया गया है। भीष्म पितामह तक को इच्छा-मृत्यु का वर मिला था, मृत्यु से मुक्ति का नहीं। मरने के बाद शरीर को दफना या जला दिया जाता है। लेकिन ब्लॉग तो हमारे अंतर्मन की एक छाया है, उसका क्या किया जा सकता है। वह तकिए के नीचे या सूटकेस की तह से निकली कोई डायरी नहीं है जिसे यूं ही कहीं यादगार निशानी मानकर रख दिया जाए।
ब्लॉग अगर कोई जायदाद होती, बैंक खाता होता, बीमा पॉलिसी होती, घर होता तो यह कानूनी वारिसों के नाम ट्रांसफर हो जाता। ब्लॉग अगर कोई साहित्यिक रचना होती तो इसका कॉपीराइट मैं बच्चों के नाम कर देता और वो ताज़िंदगी इसकी रॉयल्टी पाते रहते। लेकिन यह तो अनंत अंतरजाल का एक नानो-कण है जहां मैं अपनी शैली में, अपने अंदाज़ में कुछ भी लिखता रहता हूं। मैं नहीं रहूंगा तो कोई दूसरा मेरी शैली और अंदाज़ तो ला नहीं सकता। फिर यह कोई क्लोज-एंडेड मामला नहीं है, ओपन एंडेड है।
किसी रचना का आदि-अंत नहीं है। वो तो एक सतत प्रकिया है। जो बातें अधूरी हैं उन्हें कौन पूरा करेगा। जैसे अजय रोहिला को एक कहानी लिखनी थी, उसे अब कौन लिखेगा। कोई तो नहीं कर सकता क्योंकि अजय जैसे भी थे, दूसरा वैसा नहीं हो सकता। ये सच है कि हम एक साथ एक ही समय में अलग-अलग रूपों में मौजूद रहते हैं। लेकिन कोई भी दूसरा हमारी अनुकृति ही तो होता है, हम तो कतई नहीं होते।
सोचता हूं कि मेरा एक व्यक्तिगत ब्लॉग है। अगर यह पच्चीस-पचास लोगों को सामूहिक ब्लॉग होता या मियां-बीवी का साझा ब्लॉग होता तो यकीनन इसका जारी रहना तय था। कल अजय रोहिला का ब्लॉग देखने के बाद मेरे दिमाग में यही सवाल नाच रहा है कि मेरे बाद मेरे इस ब्लॉग का क्या होगा। इस सवाल का कोई सुसंगत जवाब मुझे नहीं सूझ रहा। बस यही लगता है कि किसी रेगिस्तान में छूटे हुए सामान की तरह यह धीरे-धीरे रेत के टीले में दबकर रह जाएगा। एकदम निर्जीव, कोई सांस नहीं, कोई आस नहीं।
देखिए न, मोह कितनी भयानक चीज़ है। सवा साल के ब्लॉग से इतने मोह का कोई तुक है क्या? लेकिन क्या कीजिएगा, इंसान है ही ऐसा कि उसे अपने से जुड़ी हर चीज़ से, हर जीव से, हर इंसान से देर-सबेर मोह हो जाता है। वह मरने से इसलिए नहीं घबराता कि उसकी जान चली जाएगी। बल्कि वह इसलिए परेशान होता है कि उसके बाद उन लोगों का क्या होगा जो उससे जुड़े रहे हैं। इंसान मरते वक्त आगे नहीं देखता। वह बार-बार मुड़कर पीछे ही देखता है। लेकिन सीधी-सी बात तो यह है कि आगे एक अनंत शून्य होता है जिसकी थाह लगाना मुश्किल है। वहां पहुंचने पर तो किसी भी याद का रेशा तक नहीं बचता। फिर काहे की चिंता, काहे की चिकचिक कि मेरे बाद मेरे ब्लॉग का क्या होगा? या मेरे बाद मेरे शरीर का क्या होगा? अरे, लोग उसे जलाएं या दफनाएं या लावारिस फेंक दें, क्या फर्क पड़ता है!!!
फोटो सौजन्य: Joe McIntyre
ऐसे ही कोई भी ब्लॉगर कभी भी हमें बिना बताए विदा हो जाए तो! मैं या आप में से कोई भी ऊपरवाले से सट्टा-बयाना तो लिखाकर आया नहीं है कि अनंत समय तक ज़िंदा रहेगा, कि हमें हमेशा-हमेशा के लिए धरती पर रहने का पट्टा दे दिया गया है। भीष्म पितामह तक को इच्छा-मृत्यु का वर मिला था, मृत्यु से मुक्ति का नहीं। मरने के बाद शरीर को दफना या जला दिया जाता है। लेकिन ब्लॉग तो हमारे अंतर्मन की एक छाया है, उसका क्या किया जा सकता है। वह तकिए के नीचे या सूटकेस की तह से निकली कोई डायरी नहीं है जिसे यूं ही कहीं यादगार निशानी मानकर रख दिया जाए।
ब्लॉग अगर कोई जायदाद होती, बैंक खाता होता, बीमा पॉलिसी होती, घर होता तो यह कानूनी वारिसों के नाम ट्रांसफर हो जाता। ब्लॉग अगर कोई साहित्यिक रचना होती तो इसका कॉपीराइट मैं बच्चों के नाम कर देता और वो ताज़िंदगी इसकी रॉयल्टी पाते रहते। लेकिन यह तो अनंत अंतरजाल का एक नानो-कण है जहां मैं अपनी शैली में, अपने अंदाज़ में कुछ भी लिखता रहता हूं। मैं नहीं रहूंगा तो कोई दूसरा मेरी शैली और अंदाज़ तो ला नहीं सकता। फिर यह कोई क्लोज-एंडेड मामला नहीं है, ओपन एंडेड है।
किसी रचना का आदि-अंत नहीं है। वो तो एक सतत प्रकिया है। जो बातें अधूरी हैं उन्हें कौन पूरा करेगा। जैसे अजय रोहिला को एक कहानी लिखनी थी, उसे अब कौन लिखेगा। कोई तो नहीं कर सकता क्योंकि अजय जैसे भी थे, दूसरा वैसा नहीं हो सकता। ये सच है कि हम एक साथ एक ही समय में अलग-अलग रूपों में मौजूद रहते हैं। लेकिन कोई भी दूसरा हमारी अनुकृति ही तो होता है, हम तो कतई नहीं होते।
सोचता हूं कि मेरा एक व्यक्तिगत ब्लॉग है। अगर यह पच्चीस-पचास लोगों को सामूहिक ब्लॉग होता या मियां-बीवी का साझा ब्लॉग होता तो यकीनन इसका जारी रहना तय था। कल अजय रोहिला का ब्लॉग देखने के बाद मेरे दिमाग में यही सवाल नाच रहा है कि मेरे बाद मेरे इस ब्लॉग का क्या होगा। इस सवाल का कोई सुसंगत जवाब मुझे नहीं सूझ रहा। बस यही लगता है कि किसी रेगिस्तान में छूटे हुए सामान की तरह यह धीरे-धीरे रेत के टीले में दबकर रह जाएगा। एकदम निर्जीव, कोई सांस नहीं, कोई आस नहीं।
देखिए न, मोह कितनी भयानक चीज़ है। सवा साल के ब्लॉग से इतने मोह का कोई तुक है क्या? लेकिन क्या कीजिएगा, इंसान है ही ऐसा कि उसे अपने से जुड़ी हर चीज़ से, हर जीव से, हर इंसान से देर-सबेर मोह हो जाता है। वह मरने से इसलिए नहीं घबराता कि उसकी जान चली जाएगी। बल्कि वह इसलिए परेशान होता है कि उसके बाद उन लोगों का क्या होगा जो उससे जुड़े रहे हैं। इंसान मरते वक्त आगे नहीं देखता। वह बार-बार मुड़कर पीछे ही देखता है। लेकिन सीधी-सी बात तो यह है कि आगे एक अनंत शून्य होता है जिसकी थाह लगाना मुश्किल है। वहां पहुंचने पर तो किसी भी याद का रेशा तक नहीं बचता। फिर काहे की चिंता, काहे की चिकचिक कि मेरे बाद मेरे ब्लॉग का क्या होगा? या मेरे बाद मेरे शरीर का क्या होगा? अरे, लोग उसे जलाएं या दफनाएं या लावारिस फेंक दें, क्या फर्क पड़ता है!!!
फोटो सौजन्य: Joe McIntyre
Comments
आप बिल्कुल निश्चिंत होकर निकलो.
वैसे, चिन्तन उम्दा भी है और जायज भी. मैं तो बस तसल्ली देने आया था, अब चलता हूँ. :)
अनिल भाई, आप जैसे संवेदनशील इंसान ब्लागिंग में हैं तो भरोसा है कि चलो, उन मुद्दों, बातों, चीजों को भी सुनने पढ़ने को मिलेगा जो और जगहों पर नारेबाजी के चक्कर में दबी-कुचली स्थितियों में है। लेकिन मौत को इतनी सीरियसली लेने की जरूरत नहीं है, यही फंड़ा है ज़िंदगी का। हर पल को जी लेने की कोशिश करना ही हमारा कर्तव्य है, बाकी कल की कौन जाने। और अजाने कल के लिए इतना सोच सोच कर इतना वक्त बरबाद करने की क्या जरूरत......
जी लेने दो इस पल को
कल की देखेंगे कल को.....
....पर सब कुछ हांकने के बाद भी इतना कह सकता हूं कि मौत पर जितनी बार सोचो, मौत को जितनी बार जियो...हमेशा शरीर में झुरझुरी सी होती है......पर मुझे लगता है कि संभवतः इसी प्रक्रिया से मौत के इतर भी जाया जाता है।
शायद मैं कह पा रहा हूं या नहीं कह पा रहा हूं अपनी बात....
जय भड़ास
यशवंत सिंह
मैंने लिखा ही क्या? वही जो ब्रह्माडरूपी सर्वर में एनकोडेड था. मेरा ब्लाग बंद हो सकता है सर्वर तो तब भी रहेगा. यानी "मैं" तो रहूंगा ही. रूप बदल जाएगा. रंग बदल जाएगा. चेहरे बदल जाएंगे लेकिन नाना रूपों में "मैं" अभिव्यक्त होता रहूंगा.
(वैसे इतना सोचने की जरूरत नहीं है गलती से एक बटन दब जाए तो भी सारा ब्लाग डिलिट हो सकता है.)
कल की बातें करेंगे कल वाले,
वज्द तुम आज ही की बात करो
आपका सवाल सहज और चिंता स्वाभाविक है,
लेकिन मुझे लगता है स्वयं से संवाद करते हुए
आपने अपने ही चिंतन से इस चिंता का
समाधान भी सुझा दिया है !
==============================
मौत उसकी है करे ज़माना जिसका अफ़सोस
यूँ तो आए हैं दुनिया में सभी मरने के लिए.
और यह भी कि -
जियो तो ऐसे जियो जैसे सब तुम्हारा है
मरो तो ऐसे की तुम्हारा यहाँ कुछ भी नहीं .
जब दुनिया में यात्री ही हैं तो पुल पार कर लें काफ़ी है
उस पर घर बनाना ज़रूरी है क्या ?
अच्छे भाव-विचार दिलों में सुरक्षित रहे हैं,रहेंगे.
==============================
आपका
डा.चंद्रकुमार जैन
क्या आप अब भी परेशान है । तो लो एक कहानी सुनो। एक बार महात्मा बुद्ध किसी गांव से जा रहे थे । इलाके में लोग इनके दर्शनार्थ इकट्ठे हो रहे थे। उसी दिन गांव में एक बुढिया का एक मात्र बेटा गुजर गया। वही जीने का सहारा था कोई नहीं था परिवार में । बुढ़िया का रो-रो कर बुरा हाल था। लोगों ने सांत्वना दी कि महात्मा जी आ रहे हैं। बड़े सिद्ध पुरूष है। जाके उनसे विनती करो,जिला देंगे बच्चे को । बुढ़िया गयी। जार जार होकर रोयी कहा कि मेरे एकमात्र बेटे को जीवित करें। अन्यथा वो भी प्राण त्याग देगी। बुद्ध जी बड़े पशोपेश में। प्रकृति के नियम के विपरीत कैसे जाए। हारकर उन्होंने बुढ़िया से कहा अच्छा जाओ किसी के घर से एक मुट्ठी सरसों ले आओ। मै जीवित कर दूंगा तुम्हारे पुत्र को। पर ध्यान रहे सरसों उसी घर से ले आना जिसके परिवार में कोई मरा न हो। बुढ़िया लगभग भागते हुए सरसों लेने गयी। उसको तो पता था कि बस अभी गयी और अभी आयी। लेकिन जब दिन ढल जाने के बाद बुढ़िया वापस आयी तो उसके ग्यान चछु खुल चुके थे। उसको पता चल गया कि जब सबके घर में किसी न किसी प्रियजन की मौत हुई है तो उसका बेटा कोई अनोखा नहीं है।
आपके अच्छे स्वास्थ्य की कामना के साथ
google ko nomination facility bhi daene chaheyae khaas kar unkae liyae jinkae blog per adsense haen
kyon anil jii ??
दुआ सलाम की और कहा कि मिलते रहा करो कभी-कभी.
चिंता चिता समान-so iss tarah kii baato.n me naa ulajhiye.....iss par bas bhii to nahii kisii kaa.....vaisey ye chintaa aksar mujhe bhi sataatii hai :}
और कुछ लोग तो जीते जी अनक्लेम्ड छोड़ कर चल देते होंगे।
१.एक आदमी था,एक दिन वो मर गया।
२.एक आदमी था,वो बहुत धनी था एक दिन वो मर गया।
३.एक आदमी था,वो बहुत बलवान था एक दिन वो मर गया।
४.एक आदमी था,वो बहुत विद्वान था एक दिन वो मर गया।
पहली और शेष तीन कहानियों में बस एक अंतर मूल में है कि पहली कहानी दो लाइन की है और शेष तीन कहानियों में एक लाइन ज्यादा है।
ऐसे बुरे ख्यालों को अन्दर आने ही क्यों दें? मृत्यु से पहले जीवन भी तो है. अनेक शानदार रंगो और कलेवर में. जिंदगी के खूबसूरत पहलुओं की छाव में मन लगा रहे तो मौत की काली परछाई डराने नहीं पायेगी.
अनिलजी,हमें आपसे अभी बहुत उम्मीदें हैं.
1-kalpana kijeeye ki blogging service hi achank band ho jaye--?
2--ya fir ban lag jaaye?
3-ya fir achank paid service ho jaye??
4-ya fir blogging bhi censor hone lage?
5--ab har insaan ko ek din jaana hai--kya karen vidhi ka vidhan hi aisa hai--
mritu ke baad bhi ek duniya hoti hai-ye bhi suna hoga--ab tak wahan bhi ye suvidha uplabdh hogi--yah to tay hai--
-dhnyawaad
aap ki yah post aaj ki sab se lokpriy post ho gayee hai....
अपने लक्कड़दादा का नाम बतायें, वही जिसे आजकल रूट्स
कह कह कर लोग दूरदेश से दौड़े चले आते हैं ! दिमाग पर जोर लग
रहा होगा, यही सच है ! रोहिला के संग बिताये ख़ुशनुमाँ पलों को
जीवित रखिये, उनका स्थान वहीं है । मेरी घृष्टता को क्षमा करें
कैसा लगा आशा है माफी दे देगें