इलाहाबाद! एक गहरे बिछोह का नाता है तुझसे
इलाहाबाद आया तो दस साल की उम्र से ही घर-परिवार और दोस्तों से बार-बार बिछुड़ते रहने का इतना दंश झेल चुका था कि पत्थर बन गया था। इतना रो चुका था कि आंखों से आंसू निकलते ही नहीं थे। पलकों से लुढ़कने के पहले ही आंसू गरम तवे पर पड़े पानी की तरह छन्न से सूख जाते थे। आंसुओं को बनानेवाली ग्रंथियां भी सुन्न पड़ गई सी लगती थीं। लेकिन जब आखिरी बार इलाहाबाद छोड़ा तो कंपनी बाग, साइंस फैकल्टी के म्योर टॉवर, अपने अमरनाथ झा हॉस्टल, आनंद भवन के सामने बनी अपनी लाइब्रेरी, सीनेट हॉल, प्रयाग स्टेशन और फाफामऊ के पुल को पार करते हुए हंहक-हंहक कर रोया था। शुक्रिया इलाहाबाद, तूने मुझे फिर से रोना सिखा दिया, एक संज्ञाशून्य होते इंसान में नई संवेदना भर दी तूने।
इस बात का भी शुक्रिया इलाहाबाद कि सात साल के प्रवास में तूने इतने वेगवान मंथन से गुजारा कि अमृत या विष जो भी अंदर था, निकलकर बाहर आ गया। मैंने यहीं जाना कि देश और देशभक्ति का असली मतलब क्या होता है। जीवन का क्या मतलब होता है, इतिहास क्या होता है, शासन क्या होता है, सरकार क्या होती है। मैं आज़ादी की लड़ाई के संदर्भ-प्रसंग से यहीं परिचित हुआ। साहित्य को जाना, समाज को समझा। इलाहाबाद मैं तेरा ऋणी हूं कि आज जो कुछ भी नितांत मेरा है, वह तेरा ही दिया हुआ है। मैं उन सभी लोगों का ऋणी हूं जिनके ज़रिए देश-दुनिया और समाज का ज्ञान मुझ पर पहुंचा। वो न होते तो एकदम ठन-ठन गोपाल की तरह मैं कहीं अफसर बना कुढ़ रहा होता। शुक्रिया इलाहाबाद, तूने मुझे जीने का मकसद सिखाया।
इस बात का भी शुक्रिया इलाहाबाद कि तूने ही मुझे किसी लड़की के परिपक्व प्यार से पहला परिचय कराया। दिखाया कि अपने पैरों पर खड़ा होने की 100% काबिलियत रखनेवाली एक मेधावी लड़की भी कैसे अपने जीवनसाथी के चयन जैसे निजी फैसले को भी मां-बाप की इच्छाओं के हवाले छोड़ देती है और फिर पहाड़-सी ज़िंदगी अकेले काटने का अभिशाप खुद अपने ऊपर ओढ़ लेती है। देशप्रेम, सामाजिक उत्तरदायित्व, क्रांति के प्रति समर्पण भाव और निजी प्रेम में किसको वरीयता देनी चाहिए, यह सबक भी इलाहाबाद तूने ही मुझे सिखाया। तू नहीं होता तो इतने कठिन फैसले मैं एक झटके में नहीं कर सकता।
हां, कभी-कभी सोचता हूं कि ऐसा नहीं, ऐसा हुआ होता क्या होता। लेकिन इसके पीछे भाव बस यही रहता है कि कैसे अपनी और अपने जैसे सैकड़ों नौजवानों की ऊर्जा का और ज्यादा बेहतर इस्तेमाल समाज और देशहित में हो सकता था। कहीं भी, कोई भी पछतावा नहीं है कि मैंने सात साल इलाहाबाद में रहने के दौरान जो किया, वो क्यों किया। इसलिए अगर कुछ लोग कहते हैं कि मैं उस जीवन-खंड को डिनाउंस करता हूं तो मेरे प्यारे इलाहाबाद, तू उनकी बातों को दिल पर मत लेना क्योंकि वे जान-बूझकर झूठ बोल रहे हैं। पंथ की सोच से आच्छादित, जड़ों से कटे हुए, आत्मरति के शिकार हैं ये लोग। दया के पात्र हैं। नॉस्टैल्जिया में जीना इनकी मजबूरी है क्योंकि आज इनका व्यक्ति इतने ठहराव का शिकार हो चुका है कि कुछ भी साफ-साफ नहीं दिखता। इतने जड़ हो चुके हैं कि जड़ता को तोड़ने की इनकी सहज मानवीय इच्छा तक जड़ हो गई है।
इलाहाबाद छोड़ने के कई साल बाद वहां गया तो बस जहां-तहां भटकता रहा। कहां जाता? कहीं कोई और कुछ भी तो अपना नहीं बचा था। साइंस फैकल्टी में जाता तो कहां जाता। कोई क्लास तो लगनी नहीं थी अपनी। गुरुजनों से मिलना बेमतलब था क्योंकि इतनी कम क्लासेज़ में गया था कि कोई पहचानता ही नहीं। म्योर नाम के औपनिवेशिक तमगे पर गर्व करनेवाले अमरनाथ झा हॉस्टल में जाता तो किसके पास? हां, उसके दरवाज़े तक ज़रूर गया था। लेकिन न कोई देखनेवाला था, न पहचानने वाला। कर्नलगंज, कटरा, यूनिवर्सिटी रोड, यूनियन हॉल, सीनेट हॉल, वीमेंस हॉस्टल, ताराचंद, बैंक रोड, लक्ष्मी चौराहा, ममफोर्डगंज, अल्लापुर, सोहबतियाबाग... पूरे दिन हर उस जगह से गुजरता रहा जहां से तनिक-भी यादें जुड़ी थीं।
फिर शाम को ट्रेन पकड़कर अपने गांव की ओर रवाना हो गया। लेकिन आज भी लगता है कि मेरा कोई अंश अब भी कहीं इलाहाबाद में छूटा हुआ है। वह अब भी वहीं कहीं भटकता है। डेलीगेसी में, हॉस्टलो में, सड़कों पर चौराहों पर। न जाने किस अधूरे मकसद को पूरा करने की तलाश है उसे। इसी तरह और भी टुकड़े हैं मेरे। कोई टुकड़ा नैनीताल में है तो कोई फैज़ाबाद में और कोई गोरखपुर में। लेकिन वर्तमान से इतना घिरा रहता हूं कि बाकी टुकड़ों का होश तभी आता है, जब कोई बताता है। हां, दिल्ली का कांटा मैं पूरी तरह खींचकर निकाल चुका हूं, इसलिए वहां मेरा कोई अंश नहीं भटकता।
इस बात का भी शुक्रिया इलाहाबाद कि सात साल के प्रवास में तूने इतने वेगवान मंथन से गुजारा कि अमृत या विष जो भी अंदर था, निकलकर बाहर आ गया। मैंने यहीं जाना कि देश और देशभक्ति का असली मतलब क्या होता है। जीवन का क्या मतलब होता है, इतिहास क्या होता है, शासन क्या होता है, सरकार क्या होती है। मैं आज़ादी की लड़ाई के संदर्भ-प्रसंग से यहीं परिचित हुआ। साहित्य को जाना, समाज को समझा। इलाहाबाद मैं तेरा ऋणी हूं कि आज जो कुछ भी नितांत मेरा है, वह तेरा ही दिया हुआ है। मैं उन सभी लोगों का ऋणी हूं जिनके ज़रिए देश-दुनिया और समाज का ज्ञान मुझ पर पहुंचा। वो न होते तो एकदम ठन-ठन गोपाल की तरह मैं कहीं अफसर बना कुढ़ रहा होता। शुक्रिया इलाहाबाद, तूने मुझे जीने का मकसद सिखाया।
इस बात का भी शुक्रिया इलाहाबाद कि तूने ही मुझे किसी लड़की के परिपक्व प्यार से पहला परिचय कराया। दिखाया कि अपने पैरों पर खड़ा होने की 100% काबिलियत रखनेवाली एक मेधावी लड़की भी कैसे अपने जीवनसाथी के चयन जैसे निजी फैसले को भी मां-बाप की इच्छाओं के हवाले छोड़ देती है और फिर पहाड़-सी ज़िंदगी अकेले काटने का अभिशाप खुद अपने ऊपर ओढ़ लेती है। देशप्रेम, सामाजिक उत्तरदायित्व, क्रांति के प्रति समर्पण भाव और निजी प्रेम में किसको वरीयता देनी चाहिए, यह सबक भी इलाहाबाद तूने ही मुझे सिखाया। तू नहीं होता तो इतने कठिन फैसले मैं एक झटके में नहीं कर सकता।
हां, कभी-कभी सोचता हूं कि ऐसा नहीं, ऐसा हुआ होता क्या होता। लेकिन इसके पीछे भाव बस यही रहता है कि कैसे अपनी और अपने जैसे सैकड़ों नौजवानों की ऊर्जा का और ज्यादा बेहतर इस्तेमाल समाज और देशहित में हो सकता था। कहीं भी, कोई भी पछतावा नहीं है कि मैंने सात साल इलाहाबाद में रहने के दौरान जो किया, वो क्यों किया। इसलिए अगर कुछ लोग कहते हैं कि मैं उस जीवन-खंड को डिनाउंस करता हूं तो मेरे प्यारे इलाहाबाद, तू उनकी बातों को दिल पर मत लेना क्योंकि वे जान-बूझकर झूठ बोल रहे हैं। पंथ की सोच से आच्छादित, जड़ों से कटे हुए, आत्मरति के शिकार हैं ये लोग। दया के पात्र हैं। नॉस्टैल्जिया में जीना इनकी मजबूरी है क्योंकि आज इनका व्यक्ति इतने ठहराव का शिकार हो चुका है कि कुछ भी साफ-साफ नहीं दिखता। इतने जड़ हो चुके हैं कि जड़ता को तोड़ने की इनकी सहज मानवीय इच्छा तक जड़ हो गई है।
इलाहाबाद छोड़ने के कई साल बाद वहां गया तो बस जहां-तहां भटकता रहा। कहां जाता? कहीं कोई और कुछ भी तो अपना नहीं बचा था। साइंस फैकल्टी में जाता तो कहां जाता। कोई क्लास तो लगनी नहीं थी अपनी। गुरुजनों से मिलना बेमतलब था क्योंकि इतनी कम क्लासेज़ में गया था कि कोई पहचानता ही नहीं। म्योर नाम के औपनिवेशिक तमगे पर गर्व करनेवाले अमरनाथ झा हॉस्टल में जाता तो किसके पास? हां, उसके दरवाज़े तक ज़रूर गया था। लेकिन न कोई देखनेवाला था, न पहचानने वाला। कर्नलगंज, कटरा, यूनिवर्सिटी रोड, यूनियन हॉल, सीनेट हॉल, वीमेंस हॉस्टल, ताराचंद, बैंक रोड, लक्ष्मी चौराहा, ममफोर्डगंज, अल्लापुर, सोहबतियाबाग... पूरे दिन हर उस जगह से गुजरता रहा जहां से तनिक-भी यादें जुड़ी थीं।
फिर शाम को ट्रेन पकड़कर अपने गांव की ओर रवाना हो गया। लेकिन आज भी लगता है कि मेरा कोई अंश अब भी कहीं इलाहाबाद में छूटा हुआ है। वह अब भी वहीं कहीं भटकता है। डेलीगेसी में, हॉस्टलो में, सड़कों पर चौराहों पर। न जाने किस अधूरे मकसद को पूरा करने की तलाश है उसे। इसी तरह और भी टुकड़े हैं मेरे। कोई टुकड़ा नैनीताल में है तो कोई फैज़ाबाद में और कोई गोरखपुर में। लेकिन वर्तमान से इतना घिरा रहता हूं कि बाकी टुकड़ों का होश तभी आता है, जब कोई बताता है। हां, दिल्ली का कांटा मैं पूरी तरह खींचकर निकाल चुका हूं, इसलिए वहां मेरा कोई अंश नहीं भटकता।
Comments
शहर बदलते हैं लोग बदलते हैं और कहते हैं लोगों के साथ शहर का मिज़ाज़ भी समय के साथ बदलता है।
शहर में लौट कर जाएं तो कड़ी धूप का टुकड़ा भी कुछ समय के लिए अपना सा लगता है और बारिश तो खैर कहीं की भी हो अपनी ही लगती है।
पर दर-ओ-दीवार और वो सुखन कब तक अपने रहेंगे।
आपने अपना मन उंड़ेल दिया है आज के लेखन में!
सलाम!!
सचमुच कुछ ऐसा ही है रेत फांकता ये शहर। किसी का उधार रखना तो इसकी फितरत ही नहीं, हां बांटता जरूर हर किसी को खुले दिल से है। ऐसे में यादों की गात कितनी भी बार मली जाए कम पड़ने का नाम नहीं लेती।
मैं तो रह रहा हूं और निस्पृह सा। हां शायद दस साल तक रह लूं तो ये भाव शायद कुछ कुछ आने लगें!
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क्या कहा जाये कुछ समझ नहीं आ रहा..आपकी ईमानदारी और जीवटता ने प्रभावित किया...अपने अंदर देखने का स्वभाविक कार्य भी हुआ ...धन्यवाद
you always clled me senti but I am really happy that Allahabad is still in the core of your heart.It is brave to express yr realself rather than showing fake rigidness about emotionsI must appriciate your straightforwardness and loved it as I love you but for GODsake dont make it a mask for yourself.every tear shed by you worth thousand pounds of GOLD.really good stuff from your mighty pen.
love from deepak from rewa