महंगाई आयातित है, लेकिन मार तो खालिश देशी है
महंगाई के ताज़ा आंकड़े से सरकार को मामूली राहत मिली है, लेकिन लोगों को नहीं। 5 अप्रैल 2008 को खत्म हुए हफ्ते में मुद्रास्फीति की दर 7.14 फीसदी है, जबकि इसके पिछले हफ्ते यह 7.41 फीसदी थी। ध्यान दें, यह थोक मूल्यों पर आधारित आंकड़ा है। यह दर्शाता है कि साल भर पहले इसी हफ्ते के थोक मूल्य सूचकांक की तुलना में इस हफ्ते के सूचकांक में कितनी फीसदी बढ़त हुई है। हमारे आप जैसे आम लोगों के लिए असली मायने होता है चीजों के खुदरा मूल्य का। और, हाल ही के एक अध्ययन के मुताबिक खुदरा मूल्य थोक मूल्यों से करीब 60 फीसदी ज्यादा चल रहे हैं। यानी किसी चीज़ का थोक मूल्य अगर 100 रुपए है तो वह हमें 160 रुपए में मिल रही है।
हकीकत का यही वो पेंच है जो सरकार के इस दावे की कलई उतार देता है कि इस समय सारी दुनिया महंगाई की मार झेल रही है और हम अपने दम पर इसे पूरी तरह नहीं रोक सकते। सच है कि पिछले तीन सालों में दुनिया में खाद्यान्नों की कीमतें 83 फीसदी बढ़ चुकी हैं। लैटिन अमेरिकी देश हैती में चावल और फलियों की महंगाई को लेकर दंगे हो रहे हैं और वहां के प्रधानमंत्री याक एजुअर्ड अलेक्सिस को इस्तीफा देना पड़ा है। मिस्र, कैमरून, आयवरी कोस्ट, सेनेगल और इथियोपिया में भी दंगे भड़क चुके हैं। पाकिस्तान और थाईलैंड में खेतों और गोदामों से अनाज की लूट को रोकने के लिए सेना तैनात करनी पड़ी है। विश्व बैंक के अध्यक्ष को अंदेशा है कि इंडोनेशिया, यमन, घाना, उजबेकिस्तान और फिलीपींस जैसे 33 देशों में कभी भी अशांति भड़क सकती है।
वित्त मंत्री चिदंबरम अमेरिका पर निशाना साधते हुए सच कह रहे हैं कि जब करोडो़ लोग भूखे हों, तब अनाज (मक्के) से बायो-डीजल बनाना मानवता से किया गया अपराध है। हमारे कृषि मंत्री पवार साहेब भी सच कहते हैं कि जहां वियतनाम, थाईलैंड और पाकिस्तान में चावल और गेहूं के दाम 100 फीसदी से ज्यादा बढ़े हैं, वहीं भारत में इनकी कीमत महज 17.2 फीसदी और 7.2 फीसदी बढ़ी है। ये भी सच है कि भारत सरकार ने खाद्य तेलों पर आयात शुल्क शून्य कर दिया है और स्टील, सीमेंट से लेकर चावल के निर्यात को बैन कर दिया है। लेकिन इन कदमों का असर थोक मूल्यों तक सीमित रहेगा, औद्योगिक उपभोग तक सीमित रहेगा। आम उपभोक्ता को इससे जो 60 फीसदी ज्यादा खुदरा मूल्य देना पड़ रहा है, सरकार उसे रोकने के लिए क्या कर रही है?
सवाल उठता है कि हमारे यहां खुदरा कीमतों पर नियंत्रण की कोई प्रणाली क्यों नहीं है? यह ठीक है कि जमाखोरी के खिलाफ राज्य सरकारें कार्रवाई कर सकती हैं। लेकिन थोक और खुदरा कीमतों के बीच इतना भारी अंतर क्यों है? फिर सवाल यह भी उठता है कि क्या सचमुच इतना अंतर है या किसी निहित स्वार्थ की पूर्ति के लिए यह हल्ला मचाया जा रहा है। हम तो यही जानते हैं कि खुदरा दुकानदार अपने मार्जिन का रोना रोते रहते हैं। कहते हैं कि उनका धंधा 2-4 फीसदी मार्जिन पर चलता है। उनकी हालत देखकर उनकी बात सच भी लगती है क्योंकि पीढियों से इसी धंधे में लगे रहने के बावजूद वे करोड़पति नहीं बन पाते।
यहीं पर आपको बता दूं कि थोक और खुदरा कीमतों में अंतर का उक्त अध्ययन बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हितैषी माने जानेवाले उद्योग संगठन एसोचैम ने किया है। और एसोचैम के अध्यक्ष वेणुगोपाल धूत कहने से भी नहीं चूके हैं कि, “बिचौलिये और व्यापारी इस अंतर का फायदा उठाते हैं, जबकि सबसे ज्यादा मार किसानों और उपभोक्ताओं को झेलनी पड़ती है। संगठित रिटेल इस लूट को खत्म कर सकता है।” यानी खुदरा व्यापारियों पर निशाना साधकर हमारे-आपके दिमाग में रिटेल में बड़ी पूंजी के स्वागत की ज़मीन तैयार की जा रही है।
मामला संगीन है। गरम तवे पर सभी अपनी रोटियां सेंकने की फिराक में हैं। विपक्ष नारे लगा रहा है – जो सरकार निकम्मी है, वो सरकार बदलनी है। आडवाणी भी सरकार को ललकार रहे हैं कि कीमतों पर काबू करो, नहीं तो गद्दी छोड़ दो। लेफ्ट भी महंगाई को सबसे बड़ा मुद्दा मानकर आंदोलन पर उतारू है। मेरा मानना है कि ये असली नब्ज पर हाथ न रखकर टुच्ची राजनीति कर रहे हैं। हमें दो बातें साफ समझ लेनी चाहिए। एक, आर्थिक विकास के लिए ग्लोबीकरण की जो राह हमने चुनी है, उसमें सारी दुनिया की उठापटक से हम मशरूफ नहीं रह सकते। मध्यवर्ग का एक हिस्सा पिछले तीन महीनों में शेयर बाजा़र में इस कड़वी सच्चाई का स्वाद चख चुका है। दूसरी बात, मुद्रास्फीति बहुत प्रतिगामी किस्म का टैक्स है जिसकी सबसे ज्यादा मार टैक्स न देनेवाले गरीबों को झेलनी पड़ती है।
लिखते-लिखते – रिजर्व बैंक ने सीआरआर (कैश रिजर्व रेशियो) की दर 10 मई से आधा फीसदी बढ़ाकर 8 फीसदी करने का ऐलान किया है। यह बैंकों की कुल नकद जमाराशि का वो हिस्सा है जिसे उन्हें रिजर्व बैंक के पास रखना पड़ता है। इस अनुपात को बढ़ाना मुद्रास्फीति रोकने का एक शास्त्रीय तरीका है।
हकीकत का यही वो पेंच है जो सरकार के इस दावे की कलई उतार देता है कि इस समय सारी दुनिया महंगाई की मार झेल रही है और हम अपने दम पर इसे पूरी तरह नहीं रोक सकते। सच है कि पिछले तीन सालों में दुनिया में खाद्यान्नों की कीमतें 83 फीसदी बढ़ चुकी हैं। लैटिन अमेरिकी देश हैती में चावल और फलियों की महंगाई को लेकर दंगे हो रहे हैं और वहां के प्रधानमंत्री याक एजुअर्ड अलेक्सिस को इस्तीफा देना पड़ा है। मिस्र, कैमरून, आयवरी कोस्ट, सेनेगल और इथियोपिया में भी दंगे भड़क चुके हैं। पाकिस्तान और थाईलैंड में खेतों और गोदामों से अनाज की लूट को रोकने के लिए सेना तैनात करनी पड़ी है। विश्व बैंक के अध्यक्ष को अंदेशा है कि इंडोनेशिया, यमन, घाना, उजबेकिस्तान और फिलीपींस जैसे 33 देशों में कभी भी अशांति भड़क सकती है।
वित्त मंत्री चिदंबरम अमेरिका पर निशाना साधते हुए सच कह रहे हैं कि जब करोडो़ लोग भूखे हों, तब अनाज (मक्के) से बायो-डीजल बनाना मानवता से किया गया अपराध है। हमारे कृषि मंत्री पवार साहेब भी सच कहते हैं कि जहां वियतनाम, थाईलैंड और पाकिस्तान में चावल और गेहूं के दाम 100 फीसदी से ज्यादा बढ़े हैं, वहीं भारत में इनकी कीमत महज 17.2 फीसदी और 7.2 फीसदी बढ़ी है। ये भी सच है कि भारत सरकार ने खाद्य तेलों पर आयात शुल्क शून्य कर दिया है और स्टील, सीमेंट से लेकर चावल के निर्यात को बैन कर दिया है। लेकिन इन कदमों का असर थोक मूल्यों तक सीमित रहेगा, औद्योगिक उपभोग तक सीमित रहेगा। आम उपभोक्ता को इससे जो 60 फीसदी ज्यादा खुदरा मूल्य देना पड़ रहा है, सरकार उसे रोकने के लिए क्या कर रही है?
सवाल उठता है कि हमारे यहां खुदरा कीमतों पर नियंत्रण की कोई प्रणाली क्यों नहीं है? यह ठीक है कि जमाखोरी के खिलाफ राज्य सरकारें कार्रवाई कर सकती हैं। लेकिन थोक और खुदरा कीमतों के बीच इतना भारी अंतर क्यों है? फिर सवाल यह भी उठता है कि क्या सचमुच इतना अंतर है या किसी निहित स्वार्थ की पूर्ति के लिए यह हल्ला मचाया जा रहा है। हम तो यही जानते हैं कि खुदरा दुकानदार अपने मार्जिन का रोना रोते रहते हैं। कहते हैं कि उनका धंधा 2-4 फीसदी मार्जिन पर चलता है। उनकी हालत देखकर उनकी बात सच भी लगती है क्योंकि पीढियों से इसी धंधे में लगे रहने के बावजूद वे करोड़पति नहीं बन पाते।
यहीं पर आपको बता दूं कि थोक और खुदरा कीमतों में अंतर का उक्त अध्ययन बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हितैषी माने जानेवाले उद्योग संगठन एसोचैम ने किया है। और एसोचैम के अध्यक्ष वेणुगोपाल धूत कहने से भी नहीं चूके हैं कि, “बिचौलिये और व्यापारी इस अंतर का फायदा उठाते हैं, जबकि सबसे ज्यादा मार किसानों और उपभोक्ताओं को झेलनी पड़ती है। संगठित रिटेल इस लूट को खत्म कर सकता है।” यानी खुदरा व्यापारियों पर निशाना साधकर हमारे-आपके दिमाग में रिटेल में बड़ी पूंजी के स्वागत की ज़मीन तैयार की जा रही है।
मामला संगीन है। गरम तवे पर सभी अपनी रोटियां सेंकने की फिराक में हैं। विपक्ष नारे लगा रहा है – जो सरकार निकम्मी है, वो सरकार बदलनी है। आडवाणी भी सरकार को ललकार रहे हैं कि कीमतों पर काबू करो, नहीं तो गद्दी छोड़ दो। लेफ्ट भी महंगाई को सबसे बड़ा मुद्दा मानकर आंदोलन पर उतारू है। मेरा मानना है कि ये असली नब्ज पर हाथ न रखकर टुच्ची राजनीति कर रहे हैं। हमें दो बातें साफ समझ लेनी चाहिए। एक, आर्थिक विकास के लिए ग्लोबीकरण की जो राह हमने चुनी है, उसमें सारी दुनिया की उठापटक से हम मशरूफ नहीं रह सकते। मध्यवर्ग का एक हिस्सा पिछले तीन महीनों में शेयर बाजा़र में इस कड़वी सच्चाई का स्वाद चख चुका है। दूसरी बात, मुद्रास्फीति बहुत प्रतिगामी किस्म का टैक्स है जिसकी सबसे ज्यादा मार टैक्स न देनेवाले गरीबों को झेलनी पड़ती है।
लिखते-लिखते – रिजर्व बैंक ने सीआरआर (कैश रिजर्व रेशियो) की दर 10 मई से आधा फीसदी बढ़ाकर 8 फीसदी करने का ऐलान किया है। यह बैंकों की कुल नकद जमाराशि का वो हिस्सा है जिसे उन्हें रिजर्व बैंक के पास रखना पड़ता है। इस अनुपात को बढ़ाना मुद्रास्फीति रोकने का एक शास्त्रीय तरीका है।
Comments
छोटी मछलियों को अपने सुरक्षित घर तो बना कर रखने होंगे। जब तक मछलियों की साइज एक जैसी नहीं हो जाती।
मुद्रास्फीति बढ़ने, खासकर दैनिक उपयोग की वस्तुओं के खुदरा मूल्य बढ़ने से इस समय जिन तत्वों को सबसे अधिक फायदा हो रहा है, फोकस उनकी तरफ किया जाना चाहिए। आम जनता भले ही इस महंगाई से बेहद परेशान हो, लेकिन कारोबार जगत के एक छोटा-सा तबका इस दौर में तेजी से मालामाल हो रहा है। क्या उनकी पहचान की जा रही है?
Greetings!
aap ka article mahngai bahut sunder ban pada hai. hum isko apne navodit akhbar Muskurao India mein punah prakashit karne per vicharath lena chahte hain. agar aapki anumati ho to kripaya hame ise email kar den..address is
anujaashukla@gmail.com
ise roman hindi mein hi rahne den. yahan per mere paas computer bilingual nahi hai.
aasha hai aap inkar nahi karenge.
apne parichai per baat phir karenge.
waise mai journalist huin....freelance.
dhanyavad
anujaa