'अगले जनम मोहे हिजड़ा न कीजो'
हिंदू-बहुल हिंदुस्तान में ज्यादातर हिजड़े मुस्लिम बन जाते हैं, वो भी 50,000 से एक लाख रुपए मौलवी व इमाम को देकर। जानते हैं क्यों? क्योंकि वे अगला जन्म नहीं पाना चाहते। हिंदू रहेंगे तो उनका पुनर्जन्म हो सकता है और हो सकता है वे फिर लैंगिक रूप से विकलांग पैदा हों। इस आशंका को जड़ से खत्म कर देने के लिए ही ज्यादातर हिंदू हिजड़े मुस्लिम बन जाते हैं क्योंकि मुस्लिम धर्म में पुनर्जन्म का कोई चक्कर ही नहीं है।इधर कई दिनों से अजीब से शून्य में डूबा हूं। कुछ लिखने का मन ही नहीं हो रहा। कई पोस्ट आधी लिखकर छोड़ रखी है। लेकिन बीते शनिवार से लैंगिक विकलांगों के बारे में पता चली कुछ बातें मेरे दिमाग में हथौड़े की तरह बज रही हैं। मैंने इंटरनेट से इसकी तस्दीक करने की कोशिश की, लेकिन वहां यही लिखा मिला कि भारत के ज्यादातर हिजड़े हिंदू हैं। ईसाई और मुसलमान भी हिजड़े हैं। लेकिन हिजड़ा बनने के बाद उनका एक ही धर्म बन जाता है। अर्धनारीश्वर यानी शिव उनके आराध्य देव हैं। लेकिन वे बहुचरा माता और अरावान (महाभारत के अर्जुन के पुत्र) की विशेष पूजा करते हैं।
इनकी संख्या के बारे में सरकार के पास कोई आंकड़ा नहीं है। मोटा अनुमान है कि पूरे देश में इनकी तादाद 10-15 लाख होगी। बताते हैं कि पूरा हिजड़ा समुदाय सात घरानों में बंटा हुआ है। हर घराने का मुखिया एक नायक होता है जो चेलों की शिक्षा-दीक्षा के लिए गुरुओं की नियुक्ति करता है। ताली बजाना और लचक-मटक कर चलना हिजड़ों का स्वाभाविक गुण नहीं है। यह एक सीखी हुई ‘कला’ है। यह भी गौरतलब है कि कोई जान-बूझकर हिजड़ा नहीं बनता। वो जन्म से ही लैंगिक रूप से विकलांग होते हैं। देश के 90 फीसदी हिजड़े ऐसे ही हैं। केवल 10 फीसदी हिजड़े ऐसे हैं जो जन्म से होते तो पुरुष हैं, लेकिन दर्दनाक ऑपरेशन से उनके जननांग हटाये जाते हैं। इसके पीछे वैसे ही अपराधियों का हाथ होता है, जैसे अपराधी हाथ-पैर काटकर बच्चों से भीख मंगवाते हैं।
पुराने भारतीय ग्रंथों में भी इन्हें तृतीय प्रकृति कहा गया है। सारी दुनिया में इनकी मौजूदगी है। लेकिन इनकी जैसी दुर्गति भारत में है, शायद वैसी कहीं नहीं है। ये एक तरह के विकलांग हैं। लेकिन विकलांगों जैसी कोई सहूलियत इन्हें नहीं मिलती। परिवार में जन्मते ही इन्हें फेंक दिया जाता है। फिर इन्हें अपने गुजारे के लिए अंधेरे और अंधविश्वासों से भरी ऐसी दुनिया में शरण लेनी पड़ती है जो शायद किसी शापित नरक से भी बदतर है। नेट पर ऐसी ही तमाम जानकारियों के बीच भटकता-भटकता मैं अर्धसत्य नाम के एक हिंदी ब्लॉग पर जा पहुंचा, जहां मैंने डॉ. रूपेश श्रीवास्तव की एक कविता पढ़ी जिस पढ़कर शायद आप इन लैंगिक विकलांगों की पीड़ा को अच्छी तरह समझ सकते हैं।
कहने को किन्नर या हिजड़े अब राजनीति में भी आ चुके हैं, लेकिन उनसे जुड़े मानवाधिकारों की चर्चा यदाकदा ही होती है। हिजड़ों को वोट देने का अधिकार भारत में अभी चौदह साल पहले 1994 में ही मिला। उसके बाद से 1999 में शहडोल से चुनकर आई शबनम मौसी देश की पहली किन्नर विधायक बनी। फिर तो कमला जान (कटनी की मेयर), मीनाबाई (सेहोरा नगरपालिका की अध्यक्ष), सोनिया अजमेरी (राजस्थान में विधायक) और आशा देवी (गोरखपुर की मेयर) सार्वजनिक हस्ती बन गईं। इसी शनिवार 19 अप्रैल को होनेवाले देहरादून के मेयर चुनावों में रजनी रावत नाम की किन्नर भी प्रत्याशी हैं।
लेकिन राजनीति में धमक के बावूजद समाज में हिजड़ों के खिलाफ भ्रम और हिंसा का बोलबाला है। और इस रवैये का स्रोत है अंग्रेज़ों के राज में बना 1871 का क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट, जिसमें 1897 में एक संशोधन के बाद स्थानीय शासन को आदेश दिया गया है कि वे सभी हिजड़ों के नाम और आवास का पूरा रजिस्टर रखें जो ‘बच्चों का अपहरण करके उनको अपने जैसा’ बनाते हैं, आईपीसी के सेक्शन 377 में आनेवाले अपराध करते हैं। ये गैर-जमानती अपराध है और इसमें छह महीने से लेकर सात साल तक की कैद हो सकती है। पुलिस आज भी आईपीसी के सेक्शन 377 के तहत जब चाहे, तब किन्नरों को अपने इशारों पर नचाती है। इस सेक्शन को खत्म करने की याचिका अभी तक कोर्ट में लंबित पड़ी है।
अंत में एक सूचना जो मुझे अंग्रेजी के एक ब्लॉग से मिली। वह ये कि आगामी 10 मई को उत्तर-पूर्व मुंबई के कस्बे विक्रोली में अखिल भारतीय हिजड़ा सम्मेलन होने वाला है। इस लेख में इस्तेमाल की गई तस्वीर मैंने इसी ब्लॉग से ली है।
इनकी संख्या के बारे में सरकार के पास कोई आंकड़ा नहीं है। मोटा अनुमान है कि पूरे देश में इनकी तादाद 10-15 लाख होगी। बताते हैं कि पूरा हिजड़ा समुदाय सात घरानों में बंटा हुआ है। हर घराने का मुखिया एक नायक होता है जो चेलों की शिक्षा-दीक्षा के लिए गुरुओं की नियुक्ति करता है। ताली बजाना और लचक-मटक कर चलना हिजड़ों का स्वाभाविक गुण नहीं है। यह एक सीखी हुई ‘कला’ है। यह भी गौरतलब है कि कोई जान-बूझकर हिजड़ा नहीं बनता। वो जन्म से ही लैंगिक रूप से विकलांग होते हैं। देश के 90 फीसदी हिजड़े ऐसे ही हैं। केवल 10 फीसदी हिजड़े ऐसे हैं जो जन्म से होते तो पुरुष हैं, लेकिन दर्दनाक ऑपरेशन से उनके जननांग हटाये जाते हैं। इसके पीछे वैसे ही अपराधियों का हाथ होता है, जैसे अपराधी हाथ-पैर काटकर बच्चों से भीख मंगवाते हैं।
पुराने भारतीय ग्रंथों में भी इन्हें तृतीय प्रकृति कहा गया है। सारी दुनिया में इनकी मौजूदगी है। लेकिन इनकी जैसी दुर्गति भारत में है, शायद वैसी कहीं नहीं है। ये एक तरह के विकलांग हैं। लेकिन विकलांगों जैसी कोई सहूलियत इन्हें नहीं मिलती। परिवार में जन्मते ही इन्हें फेंक दिया जाता है। फिर इन्हें अपने गुजारे के लिए अंधेरे और अंधविश्वासों से भरी ऐसी दुनिया में शरण लेनी पड़ती है जो शायद किसी शापित नरक से भी बदतर है। नेट पर ऐसी ही तमाम जानकारियों के बीच भटकता-भटकता मैं अर्धसत्य नाम के एक हिंदी ब्लॉग पर जा पहुंचा, जहां मैंने डॉ. रूपेश श्रीवास्तव की एक कविता पढ़ी जिस पढ़कर शायद आप इन लैंगिक विकलांगों की पीड़ा को अच्छी तरह समझ सकते हैं।
कहने को किन्नर या हिजड़े अब राजनीति में भी आ चुके हैं, लेकिन उनसे जुड़े मानवाधिकारों की चर्चा यदाकदा ही होती है। हिजड़ों को वोट देने का अधिकार भारत में अभी चौदह साल पहले 1994 में ही मिला। उसके बाद से 1999 में शहडोल से चुनकर आई शबनम मौसी देश की पहली किन्नर विधायक बनी। फिर तो कमला जान (कटनी की मेयर), मीनाबाई (सेहोरा नगरपालिका की अध्यक्ष), सोनिया अजमेरी (राजस्थान में विधायक) और आशा देवी (गोरखपुर की मेयर) सार्वजनिक हस्ती बन गईं। इसी शनिवार 19 अप्रैल को होनेवाले देहरादून के मेयर चुनावों में रजनी रावत नाम की किन्नर भी प्रत्याशी हैं।
लेकिन राजनीति में धमक के बावूजद समाज में हिजड़ों के खिलाफ भ्रम और हिंसा का बोलबाला है। और इस रवैये का स्रोत है अंग्रेज़ों के राज में बना 1871 का क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट, जिसमें 1897 में एक संशोधन के बाद स्थानीय शासन को आदेश दिया गया है कि वे सभी हिजड़ों के नाम और आवास का पूरा रजिस्टर रखें जो ‘बच्चों का अपहरण करके उनको अपने जैसा’ बनाते हैं, आईपीसी के सेक्शन 377 में आनेवाले अपराध करते हैं। ये गैर-जमानती अपराध है और इसमें छह महीने से लेकर सात साल तक की कैद हो सकती है। पुलिस आज भी आईपीसी के सेक्शन 377 के तहत जब चाहे, तब किन्नरों को अपने इशारों पर नचाती है। इस सेक्शन को खत्म करने की याचिका अभी तक कोर्ट में लंबित पड़ी है।
अंत में एक सूचना जो मुझे अंग्रेजी के एक ब्लॉग से मिली। वह ये कि आगामी 10 मई को उत्तर-पूर्व मुंबई के कस्बे विक्रोली में अखिल भारतीय हिजड़ा सम्मेलन होने वाला है। इस लेख में इस्तेमाल की गई तस्वीर मैंने इसी ब्लॉग से ली है।
Comments
हम लोग तो उनको बहुत आदर से देखते आये हैं. इसलिए नहीं कि कोई बड़ा महान काम करते हैं बल्कि इसलिए कि वे गांवों में बच्चे पैदा होने, से लेकर शादी होने तक हर शुभ मौके पर आते हैं और हक तथा सम्मान से अपना हिस्सा ले जाते हैं.
लेकिन नयावाला आधुनिक समाज शायद ज्यादा मानवाधिकार वादी हो गया है इसलिए वह अपने मुताबिक लोगों को स्पेश देना चाहता है.
शुक्रिया, शुक्रिया!
इस लेखन के लिए आभार।
आपके ब्लॉग पे आके दिल कि आधी तमन्ना तो पुरी हो गयी, रुपेश भाई कि कृपा रही कि आपके ब्लॉग से ही सही आपके दर्शन हो गए,
बड़ा तपाऊ मुद्दा है जो समाज को गर्म तो कर रहा है मगर इसकी गर्माहट को महसूस नही किया जा रहा है। दादा आपके लेख और विचार ने कई तरह के सवाल खड़े कर दिए हैं, चाहे वह धार्मिक हो या मानवता से जुड़े हुए, और सवाल का उत्तर तो ये ही बताता है कि सभी स्वार्थ मात्र से जुड़े हुए हैं।
आपके मर्म को इस लेख ने दिखा दिया है,
परन्तु यक्ष प्रश्न अपनी जगह बरकरार है कि हमारे समाज का एक अभिन्न अंग जिसके बिना बहुत कुछ अधूरा है मगर जो ख़ुद मैं अधूरा है को हम उसका हिस्सा कब देंगे ?
कोटीशः नमन
एक बेहद गंभीर मुद्दे पर बहुत जरूरी विचार रखे हैं आपने....मैंने कभी इलाहाबाद में इनके समुदाय में खुछ दिनों तक काम किया था...तब मैं अमर उजाला में काम करता था...
तभी के अनुभव के आधार पर कह सकता हूँ कि कितनी हीनता में जीते है यह पूरी जमात....
आपका यह माहाभारत वाला संदर्भ कहाँ से है क्यों कि महाभारत में अर्जुन के एक पुत्र इरावत का जिक्र है जो कि नागराज कौरव्य की पुत्री से पैदा हुआ था लेकिन उसका कहानी में ऐसा कोई पहलू नहीं है....