Saturday 7 July, 2007

एक-दूजे में समाए थे पीपल और जामुन

मतीन की आवाज़ में तल्खी थी और उलाहना भी।
- अब्बू, आप ही बताओ। आठ पीढ़ियां पहले हम क्या थे? एक कान्यकुब्ज ब्राह्मण, जिनके भाई-बंधु अब भी कन्नौज के किसी इलाके में जहां-तहां बिखरे हुए हैं। जाने क्या हादसा हुआ होगा, जाने किस बात पर तकरार बढ़ी होगी कि हमारे पुरखों ने खून का रिश्ता तोड़ दिया होगा। कैसी बेपनाह नफरत या मजबूरी रही होगी कि घर ही नहीं, धर्म तक बांट लिया। ज़रा सोचिए, मन का तूफान थमने के बाद वो अपनों से ज़ुदा होने पर, खून के रिश्तों के टूटने पर कितना कलपे होंगे। सालोंसाल तक एक टीस उन्हें सालती रही होगी। फिर, धीरे-धीरे वो वक्त आ गया कि अगली पीढ़ियां सब भूल गईं। जो कभी अपने थे, वे पराये होते-होते एक दिन काफिर बन गए। अब्बू, भाइयों का बंटवारा एक बात होती है। लेकिन जेहन बंट जाना, मजहब बंट जाना बेइंतिहा तकलीफदेह होता है।
- मतीन बेटा, खून के रिश्तों में वक्त के साथ फासलों का आना, बेगानापन आना बेहद आम बात है। फिर, सदियों पुरानी इन बातों को आज उधेड़ने से क्या फायदा?
- बात इतनी पुरानी भी नहीं है अब्बू। ज़रा याद करो, दादीजान कैसे अपनी कोठी से सटे पीपल के पेड़ में छत पर जाकर जल दिया करती थीं। हालांकि इस बहाने कि छत पर दातून करना उन्हें अच्छा लगता है। फिर बाल्टी से लोटे में साफ पानी निकाल कर छत से सटी पीपल की डाल पर गिरा दिया करती थीं, वह भी बिला नागा। ऊपर आसमान की तरफ देखतीं, शायद सूरज से ज़िंदगी का उजाला मांगा करती थीं।
मतीन बोलता जा रहा था। उस्ताद अली मोहम्मद शेख अभी तक चुप थे। लेकिन एक खीझ उनके अंदर उभरने लगी। पारा चढ़ने लगा। भौंहें तनने लगीं। मतीन इससे बेखबर अपनी रौ में डूबता-डूबता बचपन में जा पहुंचा।
- और, वह पीपल का पेड़ भी कैसा था। कभी नीचे ज़मीन से जामुन और पीपल के पौधे एक साथ बढ़ना शुरू हुए होंगे। लेकिन बढ़ते-बढ़ते वे एक-दूजे में ऐसे समा गए कि तने आपस में गुंथ गए। कहां से पीपल की शाख निकलती थी और कहां से जामुन की, पता ही नहीं चलता था। पीपल के पत्तों के बीच जामुन के पत्ते। जामुन के पत्तों के बीच पीपल के पत्ते...
मतीन छोटा था तो अपने दोनों हाथों और पैरों को किसी योगमुद्रा के अंदाज में लपेट कर कहता - देखो, मैं दादीजान का पेड़ बन गया।
उस्ताद का गुस्सा अब फट पड़ने को हो आया। लेकिन उन्होंने काबू रखते हुए कहा - बेटे, तुमको अंदाजा नहीं है कि हमारे पुरखों ने किस तरह की जिल्लत, किस तरह की तंगदिली से आजिज आकर नए मजहब को अपनाया था। उस समय इस्लाम सबसे ज्यादा इंसानी तहजीब और मोहब्बत का धर्म था। हमारे पुरखों का फैसला इंसानियत को आगे बढ़ाने का फैसला था। तुम्हें तो इस पर फख्र होना चाहिए। अगर तुम आज अपने मजहब को पाखंड मानने लगे हो तो एक पाखंड को छोड़कर सनातन पाखंड का दामन थामना कहां तक वाजिब है?
- तो क्या आप चाहते हैं कि मैं उस मजहब में पड़ा रहूं, जो आज सारी दुनिया में आतंकवाद का दूसरा नाम बन गया है, जेहाद के नाम पर खून-खराबे का मजहब बन गया है। आपके खुदा और मोहम्मद साहब से बहुत दूर चला गया है इस्लाम। मैं ऐसे इस्लाम का लबादा ओढकर नहीं रहना चाहता जहां लोग आपको हमेशा शक की निगाह से देखते हैं। क्या लेना-देना है मेरा अल-कायदा या लश्कर-ए-तैयबा से। लेकिन पराए मुल्क में ही नहीं, अपने मुल्क में भी मेरे साथ ऐसा सुलूक किया गया जैसे मैंने ही धमाके किए हों या धमाका करनेवालों को शेल्टर दिया हो।
यहीं पर फट गया उस्ताद का गुस्सा। बोले - खुदा का कुफ्र टूटे तुझ पर। काफिरों के बहकावे में तेरा दिमाग फिर गया है। अभी इसी वक्त मेरी नज़रों से दूर हो जा, वरना मेरा हाथ उठ जाएगा।
मतीन बैठकखाने से उठा और सीधे छत पर अपने कमरे में चला गया। उसे लगा कि अपने दो खास दोस्तों - इम्तियाज मिश्रा और शांतनु हुसैन के बारे में अब्बू को बताकर उसने ठीक नहीं किया। वैसे, वह खुद भी नहीं जानता था कि ये दोनों हिंदू हैं या मुसलमान। कभी पूछने की जरूरत ही नहीं समझी कि उनके मां-बाप में से कौन हिंदू था और कौन मुसलमान। खैर, मतीन को पूरा यकीन था कि अपने भावुक तर्कों और बुद्धिसंगत बातों से अब्बू को आसानी से मना लेगा। लेकिन ऐसा कुछ नही हुआ। और, उसने हमेशा की तरह ठीक अब्बू के कहे का उल्टा करने का निश्चय कर लिया। एक आर्यसमाज मंदिर में जाकर हिंदू धर्म की दीक्षा ली। हिंदी, बांग्ला और अंग्रेजी अखबारों में नोटिस छपवाई और एक हफ्ते के भीतर मतीन मोहम्मद शेख से जतिन गांधी बन गया। जारी...

2 comments:

Sanjeet Tripathi said...

ह्म्म, इंतजार रहेगा!!

Udan Tashtari said...

बाद का पहले पढ़ लिया, गल्ती से...मगर फिर भी पसंद आया. :)