Wednesday 25 July, 2007

चाहतें होतीं परिंदा, हम बादलों के पार होते

कभी-कभी सोचता हूं कि क्या हम कभी लाल बुझक्कड़ी अंदाज़ से निकल कर ऐसे हो पाएंगे कि देश की सभी समस्याओं का हमें गहरा ज्ञान होगा और हम जो हल पेश करेंगे, वही दी गई काल-परिस्थिति का सबसे उत्तम समाधान होगा। ऐसा समाधान, जिस पर अमल करना हवाई नहीं, पूरी तरह व्यावहारिक होगा। लाल बुझक्कड़ के किस्से आपको पता ही होंगे। गांव में हाथी आकर चला गया, पीछे पैरों के निशान छोड़ गया। गांव वाले इस निशान को देखकर सोच में पड़ गए कि कौन-सा जीव उनकी धरती पर आकर चला गया। पहुंच गए लाल बुझक्कड़ के पास, तो बुद्धिजीवी बुझक्कड़ ने क्या जवाब दिया, ये सुनिए एक दोहे में – लाल बुझक्कड़ बुज्झि गय और न बूझा कोय, पैर में चाकी बांधि के हरिना कूदा होय।
मुझे लगता है कि हम जैसे लोग भी दुनिया-जहान की समस्याओं का लाल बुझक्कड़ी समाधान सुझाते हैं, उसी तरह जैसे कमेंट्री सुनने-देखने वाला कोई शख्स सचिन, सौरव या द्रविड़ के लिए कहता है कि ऐसे नहीं, ऐसे खेला होता तो सेंचुरी बन जाती, भारत जीत जाता। फिर ये भी सोचता हूं कि हम करें क्या! आखिर हमारे पास यथार्थ सूचनाएं ही कितनी होती हैं! किन हालात में, किन दबावों में फैसला लेना होता है, समाधान निकालना होता है, उनसे तो हम रत्ती भर भी वाकिफ नहीं होते। जैसे जब सारा देश कह रहा था, विधायकों, सांसदों और शिवसेना सुप्रीमो बाल ठाकरे जैसे नेताओं को छोड़कर, कि प्रतिभा पाटिल राष्ट्रपति पद के लिए सही उम्मीदवार नहीं हैं तो ऐसा नहीं कि कांग्रेस हाईकमान सोनिया गांधी या सीपीएम महासचिव प्रकाश करात को ये बात समझ में नहीं आई होगी।
लेकिन जिस सोनिया गांधी के आगे किसी कांग्रेसी सांसद या मंत्री की कोई औकात नहीं है, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तक जिनकी मर्जी के खिलाफ चूं तक नहीं कर सकते, जिस सोनिया गांधी ने पब्लिक का मूड समझकर प्रधानमंत्री का पद छोड़ दिया और त्याग की प्रतिमूर्ति बन गईं, उसी सोनिया गांधी ने अपनी छवि को चमकाने का ये मौका क्यों गंवा दिया। कौन से दवाब थे, जिनके सामने सोनिया गांधी को अपनी छवि का भी होश नहीं रहा। ये भी होश नहीं रहा कि इस फैसले पर देश का तीस करोड़ आबादी वाला मध्य वर्ग उन्हें अगले पांच साल तक कोसता रहेगा।
मैं ये भी चाहता हूं कि मायावती केंद्र सरकार से 80,000 करोड़ रुपए की सहायता मांगने के बजाय उत्तर प्रदेश के प्राकृतिक और मानव संसाधनों पर ध्यान दें और उनकी बदौलत विकास का वह मुकाम हासिल करें कि सारी दुनिया ईर्ष्या करे। लेकिन ये महज चाहत है और चाहतें तो चाहतें हैं, चाहतों का क्या! मैं ये नहीं चाहता कि मैं अंतरिक्ष में पहुंच कर सुनीता विलियम्स की तरह 24 घंटे में 16 सूर्योदय और 16 सूर्यास्त देखूं। लेकिन मैं इतना ज़रूर चाहता हूं कि आसमान की माइक्रोग्रेविटी में कभी परिंदा बनकर उड़ूं तो कभी मछली की तरह गोता लगाऊं।
मैं किसी नेता की तरह हेलिकॉप्टर से बाढ़ग्रस्त इलाकों का दौरा नहीं करना चाहता। मैं तो चील की तरह दूर गगन में वहां तक जाना चाहता हूं जहां से अपनी धरती का चप्पा-चप्पा साफ नज़र आए। मुंबई बाढ़ से डूबे तो मैं गोता लगाकर देख सकूं कि पानी कहां-कहां फंसा है और कैसे उसका निकास किया जा सकता है। मैं तो ऊपर पहुंचकर ज़मीन के हर टुकड़े की पैमाइश करना चाहता हूं ताकि न्यायप्रिय तरीके से भूमि सुधार किया जा सके। चित्रगुप्त की तरह देश के हर कर्ताधर्ता का बहीखाता रखना चाहता हूं ताकि पहले से बता सकूं कि बाबूभाई कटारा या अमर सिंह क्या गोरखधंधा कर रहे हैं। दूर से सब कुछ क्रम में नज़र आता है और सही क्रम समझकर ही आप समस्याओं का व्यावहारिक हल पेश कर सकते हैं। इसीलिए सारे पूर्वग्रहों से मुक्त होकर मै दूर जाना चाहता हूं।
मैं चाहता हूं कि मेरी ख्वाहिशें परिंदा बन जाएं, मेरी चाहतों को परियों के पर लग जाएं और मैं बादलों के पार चला जाऊं। नीचे उतरूं तो देश की हर एक समस्या का समाधान मेरी उंगलियों के पोरों पर हो। आमीन...

5 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

अनिल जी,बढिया लिखा है।बहुत अच्छे विचार प्रेषित किए हैं। लेकिन क्या ये सपना सच होगा?

चंद्रभूषण said...

कुछ न बदले तो भी कुछ लोगों का सही और साफ सोचना कम महत्वपूर्ण नहीं होता। कोई समय ऐसा भी आता है जब झूठ का साम्राज्य अपने-आप दरकने लगता है और अलग-थलग पड़े सही विचार समाज में खमीर का काम करने लगते हैं।

DesignFlute said...

तीसरा पैराग्राफ-मैं यह भी चाहता हूँ कि मायावती........
पढ़कर, अनिलजी,गले में कुछ भर-सा आया है. आप खूब!! सोचते हैं और वैसा लिख भी लेते हैं. इतने अच्छे विचारों को एक नए आयाम का पंख पहनाकर हमारे आगे रखने का शुक्रिया!

Udan Tashtari said...

बदलना या न बदलना तभी हो पायेगा जब ऐसे सार्थक चिंतन किये जायेंगे. यही प्रथम सीढ़ी है. आपका लेख इस दिशा में सार्थक कदम है. बधाई स्विकारें.

Batangad said...

सर चाहतों को परिंदा ही रहने दीजिए। बादलों के पार पहुंचे न पहुंचे। कम से कम इधर-उधर उड़ तो सकेंगी।