तस्वीर का फ्रेम अधूरा है कलाम साहब
कलाम साहब महामहिम है, महान हैं। देश के प्रथम नागरिक हैं, खास-म-खास हैं। उम्र और अनुभव के लिहाज़ से भी काफी बड़े हैं। ऐसे में उनकी कही गई बात को काटना छोटे मुंह बड़ी बात होगी। लेकिन कलाम साहब खास होने के बावजूद कभी-कभार अपने जैसे भी लगते हैं। शायद इसीलिए मैं उनकी बातों की काट पेश करने की हिमाकत कर पा रहा हूं। कलाम साहब ने जो तस्वीर पेश की है, उसकी सबसे बड़ी खामी है कि उसका फ्रेम अधूरा है। उसमें पब्लिक ही पब्लिक नज़र आती है, जबकि सरकार गायब है। दो बंडल बीड़ी, 50 ग्राम तेल और एक किलो आटा खरीदनेवाले आम आदमी से लेकर होटलों में खाना खानेवाली खास पब्लिक जिन कामों के लिए इस साल केंद्र सरकार को कस्टम और एक्साइज ड्यूटी के रूप में 2,28,990 करोड़ रुपए, सेल्स टैक्स या वैट और लोकल टैक्स के रूप में हज़ारों करोड़ रुपए, इनकम टैक्स के बतौर 98,774 करोड़ रुपए और सर्विस टैक्स के रूप में 50,200 करोड़ रुपए अदा करेगी, वे काम अगर पब्लिक खुद करने लगे तो सरकारी संस्थाओं की ज़रूरत ही क्या रह जाएगी। टैक्स देनेवाली पब्लिक अपनी जिम्मेदारी निभाए, लेकिन जो इस जिम्मेदारी को निभाने के लिए पब्लिक से पैसे लेते हैं, वो भ्रष्टाचार और कामचोरी करते हुए सीनाज़ोरी करते रहें, ये कहां तक वाजिब है।
यहां मैं मुंबई का एक उदाहरण पेश करना चाहूंगा। मुंबई महानगरपालिका ने पिछले साल मुंबईवासियों के लिए एक बीमा करवाया। इसमें प्रावधान था कि मुंबई में जो कोई भी प्रॉपर्टी टैक्स भरता है, अगर वह या उसके परिवार का कोई सदस्य दुर्घटना का शिकार हो जाए तो उसे एक लाख रुपए तक का मुआवजा दिया जाएगा। इस स्कीम की मियाद अगले महीने अगस्त में खत्म हो रही है, लेकिन बीएमसी ने इस स्कीम के बारे में मुंबईवासियों को बताना ज़रूरी नहीं समझा। बीमा कंपनी को करोड़ों का प्रीमियम मिल गया और सरकारी अमले को लाखों का कमीशन। कलाम साहब, क्या इनकी गरदन पकड़ने की जरूरत नहीं है?
मुंबई का ही एक और उदाहरण। कुछ महीने पहले शहर में सफाई अभियान चलाया गया। जो भी सार्वजनिक जगहों पर थूकते या पेशाब करते पकड़े गए, उन्हें पकड़ कर थूक साफ करवाया गया, जुर्माना लगाया गया, अखबारों में फोटो छपवाए गए और टेलिविजन पर खबरे चलवाई गईं। लेकिन शहर प्रशासन यह तो बताए कि उसने कितने नए पेशाब घर बनवाए हैं या कहां-कहां कचरे के डिब्बे लगवाए हैं। रेलवे स्टेशन पर आप उतरें तो चिप्स का रैपर या कागज हाथ में लेकर टहलते रहते हैं, आपको कहीं कचरे का डिब्बा नहीं मिलता। बस स्टॉप, समुद्री तटों और दूसरी सार्वजनिक जगहों का भी यही हाल है। कलाम साहब, क्या सिंगापुर, टोक्यो और न्यूयॉर्क में भी आपको यही सूरते-हाल नज़र आता है?
हर आदमी अपना घर साफ रखता है। विदेश जाता है तो सड़क से लेकर सभी सार्वजनिक जगहों पर सफाई का पूरा ख्याल रखता है। लेकिन वही आदमी भारत की सड़कों पर उतरते ही कैसे बदल जाता है? ये कैसा विरोधाभास है! क्या भारत की मिट्टी, यहां की आबोहवा उसे गैर-जिम्मेदार बना देती है? सच ये है कि हमारे यहां नियम नहीं हैं और अगर हैं भी तो उन्हें लागू करने की व्यवस्था लचर है।
हम मानते हैं कि हमारे यहां लोगों में सिविक सेंस का विकास नहीं हुआ है। लेकिन ये भी तो देखना पड़ेगा कि ट्रैफिक पुलिस को अपनी औकात की धौंस दिखानेवाले लोग कौन-से हैं। ऐसे लोग विदेश में भी ट्रैफिक पुलिस को घूस खिला देते, लेकिन उन्हें पता होता है कि घूस देने के लिए ट्रैफिक नियम तोड़ने से कहीं ज्यादा सज़ा मिलेगी। आम आदमी तो जगह-जगह पान की पीक नहीं थूकता। ये काम वो करते हैं जिनका रुतबा समाज में है। तो रुतबेवालों को टाइट करो! उनको क्यों नसीहत दे रहे हो, जो पहले से डरे रहते हैं, हर नियम का पालन करते हैं। समय पर टैक्स-रिटर्न भरते हैं। खिड़की पर लाइन में लगकर टिकट खरीदते हैं।
इतिहास गवाह है कि सालों-साल के अनुशासन से लोगों की जड़ से जड़ आदतें भी बदल जाती हैं। और, सार्वजिनक अनुशासन लागू करना उन सामूहिक संस्थाओं का काम होता है, जिन्हें व्यक्ति ने इसकी जिम्मेदारी सौंपी होती है। आम भारतीय तो अपनी जिम्मेदारी टैक्स देकर पूरा कर देता है। बाकी जिम्मेदारी उनकी है जो करदाताओं की इस पूंजी पर ऐश करते हैं। कलाम साहब, सारी जिम्मेदारियां व्यक्ति पर डालकर आप अकर्मण्य और भ्रष्ट तंत्र को क्यों बचा रहे हैं? आप व्यक्ति की जिम्मेदारियों को तो गिना रहे हैं, लेकिन सरकारी संस्थाओं को लताड़ नहीं पिला रहे, जिनके मुखिया आप खुद रहे हैं?
वैसे कलाम साहब, आखिर में एक बात कहना चाहूंगा कि निरपेक्ष सत्य जैसी कोई चीज़ नहीं होती। आप व्यक्ति की जिन जिम्मेदारियों की बात कर रहे हैं, वे यकीनन सही हैं, लेकिन उस समाज में जब राजसत्ता का विलोप हो जाएगा, स्टेट-लेस सोसायटी बन जाएगी। उसी तरह जैसे यह नीति वाक्य कि मेहनत करे इंसान तो क्या चीज़ है मुश्किल, अवसरों की समानता देनेवाले किसी विकसित देश के लिए 100 % सच है, लेकिन भारत जैसे असमान अवसरों वाले देश के लिए यह महज एक अधूरा सच है।
पुनश्च : कृपया राष्ट्रपति कलाम के संदेश और इस टिप्पणी को पढ़ने के बाद साइडबार में पेश सवाल का जवाब ज़रूर दें, ऐसी मेरी गुजारिश है। शुक्रिया...
यहां मैं मुंबई का एक उदाहरण पेश करना चाहूंगा। मुंबई महानगरपालिका ने पिछले साल मुंबईवासियों के लिए एक बीमा करवाया। इसमें प्रावधान था कि मुंबई में जो कोई भी प्रॉपर्टी टैक्स भरता है, अगर वह या उसके परिवार का कोई सदस्य दुर्घटना का शिकार हो जाए तो उसे एक लाख रुपए तक का मुआवजा दिया जाएगा। इस स्कीम की मियाद अगले महीने अगस्त में खत्म हो रही है, लेकिन बीएमसी ने इस स्कीम के बारे में मुंबईवासियों को बताना ज़रूरी नहीं समझा। बीमा कंपनी को करोड़ों का प्रीमियम मिल गया और सरकारी अमले को लाखों का कमीशन। कलाम साहब, क्या इनकी गरदन पकड़ने की जरूरत नहीं है?
मुंबई का ही एक और उदाहरण। कुछ महीने पहले शहर में सफाई अभियान चलाया गया। जो भी सार्वजनिक जगहों पर थूकते या पेशाब करते पकड़े गए, उन्हें पकड़ कर थूक साफ करवाया गया, जुर्माना लगाया गया, अखबारों में फोटो छपवाए गए और टेलिविजन पर खबरे चलवाई गईं। लेकिन शहर प्रशासन यह तो बताए कि उसने कितने नए पेशाब घर बनवाए हैं या कहां-कहां कचरे के डिब्बे लगवाए हैं। रेलवे स्टेशन पर आप उतरें तो चिप्स का रैपर या कागज हाथ में लेकर टहलते रहते हैं, आपको कहीं कचरे का डिब्बा नहीं मिलता। बस स्टॉप, समुद्री तटों और दूसरी सार्वजनिक जगहों का भी यही हाल है। कलाम साहब, क्या सिंगापुर, टोक्यो और न्यूयॉर्क में भी आपको यही सूरते-हाल नज़र आता है?
हर आदमी अपना घर साफ रखता है। विदेश जाता है तो सड़क से लेकर सभी सार्वजनिक जगहों पर सफाई का पूरा ख्याल रखता है। लेकिन वही आदमी भारत की सड़कों पर उतरते ही कैसे बदल जाता है? ये कैसा विरोधाभास है! क्या भारत की मिट्टी, यहां की आबोहवा उसे गैर-जिम्मेदार बना देती है? सच ये है कि हमारे यहां नियम नहीं हैं और अगर हैं भी तो उन्हें लागू करने की व्यवस्था लचर है।
हम मानते हैं कि हमारे यहां लोगों में सिविक सेंस का विकास नहीं हुआ है। लेकिन ये भी तो देखना पड़ेगा कि ट्रैफिक पुलिस को अपनी औकात की धौंस दिखानेवाले लोग कौन-से हैं। ऐसे लोग विदेश में भी ट्रैफिक पुलिस को घूस खिला देते, लेकिन उन्हें पता होता है कि घूस देने के लिए ट्रैफिक नियम तोड़ने से कहीं ज्यादा सज़ा मिलेगी। आम आदमी तो जगह-जगह पान की पीक नहीं थूकता। ये काम वो करते हैं जिनका रुतबा समाज में है। तो रुतबेवालों को टाइट करो! उनको क्यों नसीहत दे रहे हो, जो पहले से डरे रहते हैं, हर नियम का पालन करते हैं। समय पर टैक्स-रिटर्न भरते हैं। खिड़की पर लाइन में लगकर टिकट खरीदते हैं।
इतिहास गवाह है कि सालों-साल के अनुशासन से लोगों की जड़ से जड़ आदतें भी बदल जाती हैं। और, सार्वजिनक अनुशासन लागू करना उन सामूहिक संस्थाओं का काम होता है, जिन्हें व्यक्ति ने इसकी जिम्मेदारी सौंपी होती है। आम भारतीय तो अपनी जिम्मेदारी टैक्स देकर पूरा कर देता है। बाकी जिम्मेदारी उनकी है जो करदाताओं की इस पूंजी पर ऐश करते हैं। कलाम साहब, सारी जिम्मेदारियां व्यक्ति पर डालकर आप अकर्मण्य और भ्रष्ट तंत्र को क्यों बचा रहे हैं? आप व्यक्ति की जिम्मेदारियों को तो गिना रहे हैं, लेकिन सरकारी संस्थाओं को लताड़ नहीं पिला रहे, जिनके मुखिया आप खुद रहे हैं?
वैसे कलाम साहब, आखिर में एक बात कहना चाहूंगा कि निरपेक्ष सत्य जैसी कोई चीज़ नहीं होती। आप व्यक्ति की जिन जिम्मेदारियों की बात कर रहे हैं, वे यकीनन सही हैं, लेकिन उस समाज में जब राजसत्ता का विलोप हो जाएगा, स्टेट-लेस सोसायटी बन जाएगी। उसी तरह जैसे यह नीति वाक्य कि मेहनत करे इंसान तो क्या चीज़ है मुश्किल, अवसरों की समानता देनेवाले किसी विकसित देश के लिए 100 % सच है, लेकिन भारत जैसे असमान अवसरों वाले देश के लिए यह महज एक अधूरा सच है।
पुनश्च : कृपया राष्ट्रपति कलाम के संदेश और इस टिप्पणी को पढ़ने के बाद साइडबार में पेश सवाल का जवाब ज़रूर दें, ऐसी मेरी गुजारिश है। शुक्रिया...
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