गांवों से शहर नहीं, राज्यों से केंद्र को घेरो
कितने अफसोस की बात है कि नक्सलवाद की जिस धारा से तीन-चार दशक पहले तक रेडिकल बदलाव की उम्मीद की गई थी, आज उसकी तरफ से कोई राजनीतिक वक्तव्य नहीं आते, आती हैं तो बस यही खबरें कि माओवादियों ने 24 को मार डाला तो 55 पुलिसवालों का सफाया कर दिया। शायद यही वजह है कि कल के नक्सली और आज के माओवादी महज लॉ एंड ऑर्डर की समस्या बनकर रह गए हैं। कुछ भावुक नौजवान, पीयूसीएल जैसे संगठनों से जुड़े लोग और जली हुई रेडिकल रस्सी की ऐंठनें भले ही उन्हें थोड़ी-बहुत अहमियत दें, लेकिन राजनीतिक रूप से वो अप्रासंगिक होते जा रहे हैं।
ये सच है कि माओवादियों का असर छ्त्तीसगढ़, उड़ीसा, झारखंड, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, बिहार से लेकर पूर्वी उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल के 154 जिलों तक फैला हुआ है। ये भी सच है कि जिन आदिवासियों के बीच इन्होंने अपनी पैठ बनाई है, वो उदारीकरण से पहले से लेकर बाद तक सामाजिक और आर्थिक रूप से अनाथ रहे हैं। ये भी सच है कि हमारी सरकारें जंगलों की खनिज संपदा बड़े भारतीय कॉरपोरेट घरानों और विदेशी कंपनियों के हवाले कर रही हैं और आदिवासियों को जीने के लाले पड़ गए हैं। ये भी सच है कि सल्वा जुदुम के नाम पर राज्य सरकारें विद्रोह के दमन के अमेरिकी मॉडल की नकल करते हुए हिंसा को बढ़ावा दे रही हैं।
लेकिन ये भी तो सच है कि गांवों से शहरों को घेरने का नारा देनेवाले आप लोग शहरों तक पहुंचने की बात तो छोड़ दीजिए, गांवों तक से निकल दूरदराज के जंगली-पहाड़ी इलाकों में सिमटते जा रहे हैं। किसी भी राष्ट्रीय मसले पर आप रटे-रटाए जुमलों को छोड़कर ऐसा कोई बयान नहीं देते जो लोगों को प्रासंगिक लग सके, सही लग सके। पुराने नक्सलियों में से लिबरेशन ग्रुप को छोड़ दिया जाए तो किसी ने भी राजनीति की मुख्य धारा में अलग छाप छोड़ने की कोशिश तक नहीं की है। आदिवासी इलाकों में समानातंर सरकार चलाई जा सकती है, वर्ग शत्रुओं को जन अदालत में सजा सुनाई जा सकती है। लेकिन अकेले इनके दम पर भारत की राजनीति को नहीं बदला जा सकता।
ऐसा नहीं कि इस देश में वामपंथी राजनीति की स्वीकार्यता नहीं है। मध्य वर्ग का बड़ा हिस्सा इनका समर्थक रहा है। इनकी ईमानदारी, त्याग और भ्रष्टाचार रहित सादगी भरे जीवन की लोग तारीफ करते हैं। उदारीकरण के बावजूद अब भी ज्यादातर मध्य-वर्गीय बुद्धिजीवी इनके साथ हैं। पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा की राजनीति में वामपंथ आज अपरिहार्य हो चुका है। यहां तक कि यूपीए सरकार पर वामपंथियों का दबाव सिर चढ़कर बोल रहा है।
मुंबई में बैठकर सुविधाजनक नौकरी करते हुए मुझे कोई उपदेश देने का हक तो नहीं बनता। लेकिन मैं सामान्यीकरण करते हुए कहूं तो नक्सली धारा के लोग या तो जंगलों में पलायन कर गए हैं या सीधे दिल्ली में हस्तक्षेप करने की कोशिश में लगे हैं। इनके बीच की कड़ी राज्यों पर कम ध्यान दे रहे हैं। ऊपर-ऊपर से देखने पर मुझे लगता है कि केंद्र की सत्ता के बजाय राज्यों की राजनीति पर कब्जा करना ज्यादा आसान है। बिहार में लिबरेशन और पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा में लेफ्ट फ्रंट का असर इसी ट्रेंड की तरफ इशारा करता है। राज्यों की राजनीति की अपनी जटिलताएं हैं और वर्ग-युद्ध को नज़रअंदाज कर सार्थक और स्थाई बदलाव नही किया जा सकता। लेकिन गांवों की ताकत के दम पर राज्य की सत्ता हासिल की जा सकती है। उत्तर प्रदेश में, दूसरे समीकरणों के जरिए ही सही, मायावती ने इसे करके दिखा दिया है।
ऐसे में मुझे लगता है कि गांवों से शहरों को घेरने और समानातंर सेना बनाने की रणनीति अब खुद को भ्रम में रखने के अलावा किसी और काम की नहीं है। रेडिकल लेफ्ट को व्यापक राजनीतिक गोलबंदी के जरिए राज्यों की राजनीति में अपना दखल बढ़ाना चाहिए। वैसे भी, ज़मीन से लेकर सुरक्षा तक के मामले राज्यों के अधीन आते हैं। इस तरह धीरे-धीरे देश के ज्यादातर राज्यों में रेडिकल लेफ्ट का कब्जा हो गया तो दिल्ली दूर नहीं रह जाएगी।
ये सच है कि माओवादियों का असर छ्त्तीसगढ़, उड़ीसा, झारखंड, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, बिहार से लेकर पूर्वी उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल के 154 जिलों तक फैला हुआ है। ये भी सच है कि जिन आदिवासियों के बीच इन्होंने अपनी पैठ बनाई है, वो उदारीकरण से पहले से लेकर बाद तक सामाजिक और आर्थिक रूप से अनाथ रहे हैं। ये भी सच है कि हमारी सरकारें जंगलों की खनिज संपदा बड़े भारतीय कॉरपोरेट घरानों और विदेशी कंपनियों के हवाले कर रही हैं और आदिवासियों को जीने के लाले पड़ गए हैं। ये भी सच है कि सल्वा जुदुम के नाम पर राज्य सरकारें विद्रोह के दमन के अमेरिकी मॉडल की नकल करते हुए हिंसा को बढ़ावा दे रही हैं।
लेकिन ये भी तो सच है कि गांवों से शहरों को घेरने का नारा देनेवाले आप लोग शहरों तक पहुंचने की बात तो छोड़ दीजिए, गांवों तक से निकल दूरदराज के जंगली-पहाड़ी इलाकों में सिमटते जा रहे हैं। किसी भी राष्ट्रीय मसले पर आप रटे-रटाए जुमलों को छोड़कर ऐसा कोई बयान नहीं देते जो लोगों को प्रासंगिक लग सके, सही लग सके। पुराने नक्सलियों में से लिबरेशन ग्रुप को छोड़ दिया जाए तो किसी ने भी राजनीति की मुख्य धारा में अलग छाप छोड़ने की कोशिश तक नहीं की है। आदिवासी इलाकों में समानातंर सरकार चलाई जा सकती है, वर्ग शत्रुओं को जन अदालत में सजा सुनाई जा सकती है। लेकिन अकेले इनके दम पर भारत की राजनीति को नहीं बदला जा सकता।
ऐसा नहीं कि इस देश में वामपंथी राजनीति की स्वीकार्यता नहीं है। मध्य वर्ग का बड़ा हिस्सा इनका समर्थक रहा है। इनकी ईमानदारी, त्याग और भ्रष्टाचार रहित सादगी भरे जीवन की लोग तारीफ करते हैं। उदारीकरण के बावजूद अब भी ज्यादातर मध्य-वर्गीय बुद्धिजीवी इनके साथ हैं। पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा की राजनीति में वामपंथ आज अपरिहार्य हो चुका है। यहां तक कि यूपीए सरकार पर वामपंथियों का दबाव सिर चढ़कर बोल रहा है।
मुंबई में बैठकर सुविधाजनक नौकरी करते हुए मुझे कोई उपदेश देने का हक तो नहीं बनता। लेकिन मैं सामान्यीकरण करते हुए कहूं तो नक्सली धारा के लोग या तो जंगलों में पलायन कर गए हैं या सीधे दिल्ली में हस्तक्षेप करने की कोशिश में लगे हैं। इनके बीच की कड़ी राज्यों पर कम ध्यान दे रहे हैं। ऊपर-ऊपर से देखने पर मुझे लगता है कि केंद्र की सत्ता के बजाय राज्यों की राजनीति पर कब्जा करना ज्यादा आसान है। बिहार में लिबरेशन और पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा में लेफ्ट फ्रंट का असर इसी ट्रेंड की तरफ इशारा करता है। राज्यों की राजनीति की अपनी जटिलताएं हैं और वर्ग-युद्ध को नज़रअंदाज कर सार्थक और स्थाई बदलाव नही किया जा सकता। लेकिन गांवों की ताकत के दम पर राज्य की सत्ता हासिल की जा सकती है। उत्तर प्रदेश में, दूसरे समीकरणों के जरिए ही सही, मायावती ने इसे करके दिखा दिया है।
ऐसे में मुझे लगता है कि गांवों से शहरों को घेरने और समानातंर सेना बनाने की रणनीति अब खुद को भ्रम में रखने के अलावा किसी और काम की नहीं है। रेडिकल लेफ्ट को व्यापक राजनीतिक गोलबंदी के जरिए राज्यों की राजनीति में अपना दखल बढ़ाना चाहिए। वैसे भी, ज़मीन से लेकर सुरक्षा तक के मामले राज्यों के अधीन आते हैं। इस तरह धीरे-धीरे देश के ज्यादातर राज्यों में रेडिकल लेफ्ट का कब्जा हो गया तो दिल्ली दूर नहीं रह जाएगी।
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