Monday 9 July, 2007

न कौओं की जमात, न हंसों का झुंड

आज जतिन गांधी बन चुके मतीन शेख को फिर बड़ी शिद्दत से लगने लगा कि समाज में सभी की अपनी-अपनी गोलबंदियां हैं। सभी अपने-अपने गोल, अपने-अपने झुंड में मस्त हैं। कहीं कौए मस्त हैं तो कहीं हंस मोती चुग रहे हैं। लेकिन वह किसी गोल में नहीं खप पा रहा। सच कहें तो वह न अभी न पूरा हिंदू बना है, न ही मुसलमान रह गया है। बहुत ज्यादा कामयाब नहीं है, लेकिन खस्ताहाल भी नहीं है। फिलहाल हालत ये है कि न तो वह कौओं की जमात में शुमार है और न ही हंसों के झुंड का हिस्सा बन पा रहा है। ये भी तो नहीं कि उसके बारे में कहा जा सके कि सुखिया सब संसार है खावै और सोवै, दुखिया दास कबीर है जागै और रोवै। फिर वह आखिर चाहता क्या है?
जतिन गांधी ने बाहर जाकर सैलून में दाढ़ी-मूछ साफ करवाई। अपना चेहरा आईने में देखकर मुंह इधर-उधर टेढ़ा करके थोड़े मज़े लिए। नहाया-धोया। खाया-पिया और बिस्तर पर आकर लेट गया। लेकिन उसके तमाम सवाल अब भी अनुत्तरित थे। वह सोचने लगा कि आखिर उसके भारत में पैदा होने का मतलब क्या है? अगर इसका ताल्लुक महज पासपोर्ट से है तो चंद पन्नों के इस गुटके को पांच-दस साल बिताकर दुनिया के किसी भी देश से हासिल किया जा सकता है। अगर ये महज एक भावना है, इमोशन है तो बड़बोले लालू का भारत, चिंदबरम का भारत निर्माण और मनमोहन सिंह की इंडिया ग्रोथ स्टोरी उसे अपनी क्यों नहीं लगती? मुलायम के समाजवादी स्वांग, अमर सिंह के फरेब, तोगड़िया-आडवाणी या नरेंद्र मोदी के मुस्लिम विरोध का वह भागीदार कैसे बन सकता है? उसे तो भारत के नाम पर अपने अब्बू-अम्मी और सबीना नज़र आती हैं। अपने दोस्त दिखते हैं। अब्बा का सितार दिखता है। घर से सटा पीपल-जामुन का पेड़ दिखता है।
मगर, उसने खुद से सवाल पूछा कि क्या देश अपने अवाम और भूगोल का समुच्चय भर होता है? खुद ही जवाब भी दे डाला – कोई भी देश संविधान, सेना, सुरक्षा तंत्र और सरकार को मिलाकर बनता है। किसी का अमूर्त देश कुछ भी हो, लेकिन असल देश तो यही सब चीजें हैं जिनसे अभी तक उसका कोई तादात्म्य नहीं बन पाया है। जतिन गांधी ये सब सोच-सोचकर खुद को और ज्यादा अलग-थलग महसूस करने लगा। उसे लगा कि वह अपने वतन में रहते हुए भी निर्वासित है। दोनों हाथों की उंगलियों से सिर के बालों को खींचकर खुद से झल्लाकर बोला – मैं स्टेडियम में बैठकर क्रिकेट मैच देखनेवालों में शुमार क्यों नहीं हूं? ऐसे ही उमड़ते-घुमड़ते कई सवालों ने नए-नए हिंदू बने जतिन गांधी का पीछा नहीं छोड़ा। उसकी हालत पुनर्मूषको भव: वाली थी। जहां से शुरू किया था, वहीं घूम-फिर कर वापस आ गया था।
जतिन पहाड़गंज के उस होटल में करीब दस दिन तक रहा। इस दौरान कई बार उसके मन में आया कि अम्मी के पास लौट जाए, अब्बू से माफी मांग ले। ये न हो सके तो सबीना के पास ही चला जाए। लेकिन उसने ऐसा कुछ नहीं किया क्योंकि कदम आगे बढ़ाकर इतनी जल्दी पीछे खींच लेना, किसी काम को अंजाम पर पहुंचाए बिना छोड़ देना उसकी फितरत में नहीं था।
उसके पास लंदन वापस लौटकर पुरानी नौकरी पर डट जाने का भी विकल्प खुला था, क्योंकि अभी तो तीन महीने में से उसकी बमुश्किल चालीस दिन की छुट्टी पूरी हुई थी। लेकिन इस विकल्प को उसने एक सिरे से खारिज कर दिया। वह फिलहाल अकेलेपन से निजात पाने के लिए खुद को भीड़ में खो देना चाहता था। लिहाजा मुंबई आ गया। किस्मत का धनी था। इसीलिए खुद को अक्सर ईश्वर का राजकुमार बताता था। मुंबई में एक इंफोकॉम कंपनी में अच्छी-खासी नौकरी मिल गई। वहीं पर एक प्यारी-सी लड़की पहले दोस्त बनी और दो साल बाद बीवी। संयोग से उसका नाम नुसरत जहां था। कुछ सालों बाद उनके घर किलकारियां गूंजी तो बच्ची का नाम रखा ज़ैनब गांधी। बच्ची की पहली सालगिरह पर उसने लंदन से अपने दो खास दोस्तों इम्तियाज़ मिश्रा और शांतुन हुसैन को भी सपरिवार बुलवाया था, आने-जाने की फ्लाइट का टिकट भेजकर।
इस तरह मतीन मोहम्मद शेख के जतिन गांधी बनने की कहानी एक सुखद मोड़ पर आकर खत्म हो गई। लेकिन उसकी असल जिंदगी यहीं से शुरू हुई। धर्म उसे कोई पहचान नहीं दे सका। पेशे और काबिलियत ने ही उसे असली पहचान दी। उसी तरह जैसे अजीम प्रेमजी के बारे में कोई नहीं सोचता कि वह कितने अजीम हैं और कितने प्रेमजी। जैसे कोई शाहरुख, सलमान या आमिर के मुस्लिम होने की बात सोचता ही नहीं। सलमान राम का रोल करें तो टीवी के आगे आरती करने में किसी को हिचक नहीं होगी। हां, जतिन को जिन चीजों ने पहचान दी, उनमें बंगाली, उर्दू, हिंदी और अंग्रेजी पर उसकी अच्छी पकड़ का भी योगदान रहा। इस दौरान वह कोलकाता या दिल्ली भी आता-जाता रहा। अम्मी-अब्बू और सबीना से मिला कि नहीं, ये पता नहीं है। लेकिन लगता है, मिला ही होगा। मुस्लिम होने की बात वह काफी हद तक भुला चुका है। लेकिन दंगों की बात सोचकर कभी-कभी वह घबरा जाता है कि कहीं दंगाइयों ने उसकी पैंट उतारकर उसके धर्म की पहचान शुरू कर दी तो उसका क्या होगा? खैर, जो होगा सो देखा जाएगा। जब ओखली में सिर दिया तो मूसल का क्या डर? ...समाप्त

2 comments:

मैथिली गुप्त said...

बहुत बहुत पसन्द आया.
धर्म कोई पहचान नहिं देता, पेशा या काबलियत ही पहचान देते हैं.

Udan Tashtari said...

बहुत बढ़िया और बंधा हुआ समा रहा कड़ी दर कड़ी. मजा आया. आभार.