Thursday 5 July, 2007

निर्मोही बलमुआ को देहाती बहुरिया की पाती

पंडोही के दूसरे नंबर के बेटे तीरथ को शहर आए सात महीने से ज्यादा बीत चुके हैं। उसे हाल ही में एक नई बिल्डिंग में कारपेंटरी का काम मिला है। इसके फौरन बाद उसने ग्रामसभा के फोन पर बात करके अपने भतीजे कृष्णा को भी शहर बुला लिया। कृष्णा कल ही तीरथ के पास पहुंचा है। वह अनाज-पिसान के अलावा साथ लाया है अपनी चाची की एक पाती। आप जानते ही हैं कि गांव की औरतें संयोग में भी गाती हैं और विरह में भी। विदाई के वक्त तो वो क्या गाते हुए रोती हैं!! तो ये पाती भी पूरी लय-ताल में है। अपने जेठ की बड़ी बेटी मुन्नी से अवधी में लिखवाई गई इस पाती में तीरथ की बहुरिया, सुखदा ने लिखा है...

सब इहां कुसल मंगल बाटय, हम तोहरै कुसल मनाई थय।
तुलसी माई के चौरा पै संझवा कै दिया जराई थय।।
दिन सात महीना कय गुजरा, एक्कौ चिट्ठी तू न भेज्या।
होइ गया तूं एइसन निर्मोही, हमहूं का तूं-तौ भूलि गया।।
आउब तौ घर कय दूरि रहा, संदेश जबानिव ना भेज्या।
खोज-खबर कुछ ना लेत्या, गेदन कय याद भुलाय दिह्या।।
बड़कई मदरसा जाय लागि, छोटकई अब सरकय परे-परे।
तोहरी माई कय पिराय हाथ, कहरैं खटिया पय पड़े-पड़े।।
अबकी अगहन की दसमीं कां, नन्हकू कय गंवना लय आवा।
दस कूंड़ा सीधा मिला रहा, नव दौरी ठूढ़ी मिली रही।।
सब कहंय कि दुल्हिन नीकै बा, औ भोजन मा होशियार अहय।
चाहे जे जवन कहय मुला, अपना बेड़ा अब पार अहय।।
हम गांव भरे मा घरे-घरे, दोहरा-बायन बंटवाय देहन।
नात-बांत केहु छूट नांय, सबके घर पहुंचवाय देहन।।
मुल अबहीं तक तोहरे खातिर, एक कुंडरी ठूढ़ी धरे अही।
दुइ भैंसीं लगत बांटी घर मा, दुइ मेटा घी से भरे अही।।
अबकी असाढ़ की बरखा मा, कितना जन कय गिरि गएं घर।
एक्कौ कमरा तक बचा नांहि, वै गुजर करत हैं टाटी मा।।
खेती-बारी सब ठीक अहय, मुल मटर मारि गय पाला से।
गोहूं येहि सइती जोर बाय, दुइ पानी खींचेन ताला से।।
एक बिगहा गंजी लागि अहय, भूजि कय गेदय खात अहंय।
घुघरी सिखरन कटत अहय, जे केव आवत-जात अहंय।।
एक बिगहा गन्ना लाग अहय, दुइ ओरी कोल्हू मरकत बा।
घानी में खुब गुड़ बनत अहय, खोई पय गुलरी दहकत बा।।
पिछवारे लाग टमाटर बा, एहि सइती जमि कय पाकत बा।
कहिया तूं अपने घर अउब्या, सब राहि तोहरय ताकत बा।।
.....
तोहार परानी, सुखदा

सुखदा ने एक बात चिट्ठी में नहीं लिखवाई। कृष्णा से मुंहजबानी संदेश देने को कहा। वह संदेश यूं है...
पूनम कय मम्मी कहत रहीं, तोहरौ चक्कर बा कौनव।
पहुंचय तव द्या उहां हमंय, ओनकै घनचक्कर बनाय देब।।

3 comments:

हरिमोहन सिंह said...

अगर पाती का हिन्‍दी अनुवाद कर दे तो हम भी पढ लेते ।

अनिल रघुराज said...

जिस तरह से अवधी में लिखे रामचरित मानस का हिंदी अनुवाद मुश्किल है, वैसे ही हिंदी में अनुवाद से इस पाती का सौंदर्य खत्म हो जाएगा। समझने की कोशिश कीजिए, भावना समझिए, शब्दों पर मत जाइए।

उमाशंकर सिंह said...

अपने जेठ की बड़ी बेटी मुन्नी से अवधी में लिखवाई गई तीरथ की बहुरिया की इस पाती को इंटरनेट के ज़रिए पढ़ कर लगा कि सही में 'कन्वर्जेंस' हर तरफ फलीभूत हो रहा है। गांव के उस डाक बाबू की याद ताज़ा हो आई जिनके देहरी पर जा कर कुछ महिलाएं चिठ्ठी लेतीं भी थीं... पढ़वातीं भी थीं और जवाब भी लिखवाती थी। वो भी 35 पैसे के अन्तर्देशीय पत्र पर या अगर कोई छिपाने या सास-ननद की शिकायत वाली बातें ना लिखनी हो तो फिर 15 पैसे की पोस्टकार्ड पर भी। कुम्हरा पोखर पर डाक बाबू का घर था और वे हर अनपढ़ औरत के घर की बात जानते थे। डाक बाबू अगर घर की कोई बात लीक कर देते थे जो घूमफिर कर बहुरिया के कानों तक पहुंचती तो वो फिर डाकबाबू के घर पहुंच कर पहुंचती थी। दुसधटोली की कुछ महिलाएं 'सरधुआ' मतलब डाकबाबू का जल्दी श्राद्ध हो का शाप देते हुए निकल जाती थी स्कूल की तरफ ताकि किसी ऐसे छोटा बच्चे से पढ़वा ले जो किसी को कुछ बताए नहीं।

आपने भी घर की बात लीक कर दी है अनिल जी। सोचिए बहुरिया को पता चलेगा तो क्या शाप देगी।