हिदी न्यूज़ चैनलों में खली-बली, सांप-छछूंदर, राम-रावण, शिव-पार्वती और सास-बहू से लेकर भूत-प्रेत का जो नाटक चलता है, जो अपराध और सनसनी फैलाई जाती है, जिस तरह अंधविश्वासों को सच बताया जाता है, उसके पीछे का तर्क है कि बाज़ार में खड़े हैं तो बिकाऊ नहीं होंगे तो कैसे काम चलेगा। टीआरपी के लिए भागमभाग लाज़िमी है। लेकिन क्या आपको पता है कि टेलिविजन के कुल दर्शकों में हिंदी न्यूज के दर्शक कितने हैं? इस साल के पहले हफ्ते (30 दिसंबर 2007 से 5 जनवरी 2008) में यह आंकड़ा था 5.1 फीसदी। यानी हिंदी न्यूज़ चैनलों को 100 में से केवल पांच दर्शक मिले थे। चौंकानेवाली बात यह है कि साल के 15वें हफ्ते (8 से 12 अप्रैल 2008) में यह आंकड़ा घटकर 4 फीसदी रह गया है। ज़ाहिर है कि गुजरे साढ़े तीन महीनों में हिंदी चैनलों ने अपने 20 फीसदी दर्शक गवां दिए हैं।टैम मीडिया रिसर्च के मुताबिक इस समय दर्शकों में सबसे बड़ा हिस्सा हिंदी के मनोरंजन चैनलों का है। इन्हें लगभग 22 फीसदी दर्शक देखते हैं। अब चूंकि ज्यादातर न्यूज़ चैनल इनफोटेनमेंट चैनल होते जा रहे हैं, इसलिए शायद दर्शकों को लगने लगा है कि जब इंटरटेनमेंट ही देखना है तो स्टार प्लस, ज़ी, सोनी या सहारा ही क्यों न देखें, फालतू में न्यूज़ चैनलों पर उनके कार्यक्रमों की क्लिपिंग्स पर वक्त क्यों जाया किया जाए।
मुझे अपने अनुभवों से लगता है कि हिंदी दर्शकों में अब भी समाचारों की तगड़ी भूख है। इसलिए हिंदी न्यूज़ चैनलों के दर्शकों का अनुपात 4-5 फीसदी से बढ़ाकर आसानी से 8-10 फीसदी तक ले जाया जा सकता है। लेकिन लगता है कि हमारे न्यूज़ चैनलों के कर्ताधर्ता लोगों को टुकड़ों पर पलने की आदत हो गई है। न जाने क्यों वे न्यूज़ के बाज़ार को फैलाने के बजाय बहुत मामूली से हिस्से की बंदरबांट पर अपनी सारी ताकत जाया कर रहे हैं।
मतदाता जागरूकता गीत
4 weeks ago
10 comments:
बहुत सही, अनिल भाई!
लगता है कि हमारे न्यूज़ चैनलों के कर्ताधर्ता लोगों को टुकड़ों पर पलने की आदत हो गई है। न जाने क्यों वे न्यूज़ के बाज़ार को फैलाने के बजाय बहुत मामूली से हिस्से की बंदरबांट पर अपनी सारी ताकत जाया कर रहे हैं।
आपने सही लिखा है। न्यूज चैनल लोग न्यूज के लिए देखते हैं।यदि मनोरंजन को न्यूज चैनल पर प्रमुखता दी जाने लगेगी तो लोग मनोरंजन का चैनल हीं देखना पंसद करेंगे।
अच्छा तमाचा है. बहुत सही.
जय हो.....ब्रेकिंग न्यूज
i am in agreemant with you
न्यूज़ चैनलों का नया टोटका क्या होगा अब ? - वैसे बच्चों के साथ बैठ कर देखने वाली बात रही नहीं समाचारों में - शायद इसलिए भी ?
इतना बताने पर भी अगर हिंदी के समाचार चैनलॊ को चलाने वाले नहीं चेतते तो आगे और बुरी दशा होगी....
अफ़सोस की बात यह है कि हिन्दी चिट्ठाजगत में भी ऐसे कई "सनसनी- नुमा" किरदार मौजूद हैं. कोई भी संकलक को उठा कर देख लीजिये . हर पन्ने पर मिल जायेंगे ऐसे खली-बली लेख.
सौरभ
सरजी, मैं अंग्रेजी की वकालत नहीं कर रहा हूं और न ही हिन्दी को लेकर कोई कुंठा है लेकिन प्रयोग के स्तर पर ही सही कोई सप्ताह भर अंग्रेजी चैनल देखे तो समझ जाएगा कि कंटेंट और क्वालिटी के मामले में हिन्दी चैनल इनके पसींघे भर भी नहीं हैं. चैनलों को समझना चाहिए कि अब ऑडिएंस पैसिव नहीं रह गयी है, समझदार होती जा रही है, वो डिसकवरी देखेगी, ब्लू फिल्में देखेगी लेकिन तितर-बितर सांप और सेक्स की खबरें नहीं।।।
Vineet ji se sahmat..
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