Tuesday 31 July, 2007

ठोस खोखला है और स्थिर गतिशील

धरती हमारे सौरमंडल का सबसे ताकतवर और ऊर्जावान ग्रह है। आप इस ग्रह पर कहीं भी चले जाएं, आपको गति और ज़िंदगी ही नज़र आती है। यहां तक कि चट्टानों, धातुओं, लकड़ी और मिट्टी जैसी निर्जीव चीजों में गज़ब की आंतरिक गति होती है। इनमें हर न्यूक्लियस के इर्दगिर्द इलेक्ट्रॉन नाचते रहते हैं। उनकी इस गति की वजह ये है कि न्यूक्लियस उन्हें अपने विद्युत बल के ज़रिए खींचकर आबद्ध रखना चाहता है। यह बल इलेक्ट्रॉनों को जितना संभव है, उतना ज्यादा न्यूक्लियस के करीब रखने की कोशिश करता है। और इलेक्ट्रॉन ठीक उस व्यक्ति की तरह जिसके पास थोड़ी भी शक्ति होती है, इस बंधन का विरोध करता है, इससे छूटने की भरसक कोशिश करता है।
न्यूक्लियस जितनी ही ज्यादा ताकत से इलेक्ट्रॉन को बांधता है, इलेक्ट्रॉन उतनी ही ज्यादा गति से अपने ऑरबिट में धमा-चौकड़ी मचाता है। दरअसल किसी परमाणु में इस तरह बंधे रहने के चलते इलेक्ट्रॉन 1000 किलोमीटर प्रति सेकंड यानी 36 लाख किलोमीटर प्रति घंटा तक की रफ्तार हासिल कर लेता है। इसी तेज़ गति की वजह से परमाणु किसी ठोस गोले जैसे नज़र आते हैं, उसी तरह जैसे हमें तेज़ी से चलता पंखा एक गोलाकार डिस्क जैसा दिखता है। परमाणु को और ज्यादा ताकत से दबाना बेहद कठिन होता है। इसलिए कोई पदार्थ अपनी जानी-पहचानी ठोस शक्ल अख्तियार किए रहता है। इस तरह हम पाते हैं कि असल में जितनी भी ठोस चीजें हैं, उनके भीतर काफी खाली जगह होती है और जो भी चीज़ स्थिर दिखती है, वो अंदर काफी गतिशील होती है, उसके भीतर भारी उथल-पुथल मची रहती है। लगता है कि जैसे हमारे अस्तित्व के हर क्षण में, धरती के कण-कण में शंकर भगवान अपना तांडव नृत्य कर रहे हों।
(डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम की आत्मकथा ‘विंग्स ऑफ फायर’ का एक अंश)

Friday 27 July, 2007

याकूब को सज़ा-ए-मौत : अच्छा नहीं लगा

विशेष टाडा अदालत ने याकूब मेमन को मौत की सजा सुना दी। न जाने क्यों ये फैसला सुनकर दिल को अच्छा नहीं लगा। ये सच है कि उसके बड़े भाई टाइगर मेमन ने ही अंडरवर्ल्ड सरगना दाऊद इब्राहिम के साथ मिल कर 1993 के मुबंई बम धमाकों की साजिश रची थी। लेकिन ये भी सच है कि वह मेमन परिवार का एक शरीफ और पढ़ा लिखा सदस्य है जो धमाकों से पहले तक चार्टर्ड एकाउंटेंट की हैसियत से एक फर्म चलाता था। हम मान लें कि धमाकों की साजिश की जानकारी उसे थी। लेकिन जब टाइगर मेमन पूरे परिवार के साथ धमाकों से ठीक पहले दुबई भाग गया और वहीं कहीं सेटल हो गया था, तब सवा साल बाद ही 28 जुलाई 1994 को याकूब जिद करके भारत लौट आया था और उसने पुलिस के सामने जाकर खुद सरेंडर कर दिया। याकूब को यकीन था कि उसे सरकारी गवाह बना लिया जाएगा और एक बार फिर उसकी जिंदगी पटरी पर लौट आएगी। उसी ने सीबीआई के सामने इस साजिश से परत-दर-परत परदा उठाया, नहीं तो वह अंधेरे में ही तीर मारती रह जाती।
लेकिन जेल में बारह साल गुजारने के बाद जब सितंबर 2006 में विशेष टाडा अदालत ने याकूब मेमन को दोषी करार दिया तो वह कोर्ट में फट पड़ा। उसने अपने बड़े भाई टाइगर मेमन का जिक्र करते हुए कहा था, ‘वह सच कहता था कि तुम ..तिया हो। गांधीवाद करोगे और सब के सब टेररिस्ट बन जाओगे। तेरह साल लग गए (इसे) समझने में।’
आज याकूब को जज प्रमोद कोडे ने जब फांसी की सज़ा सुनाई तो वह एक बार फिर बिफर पड़ा। वह पूरा फैसला सुने बगैर ही चिल्लाने लगा, ‘हे परवरदिगार इस बंदे को माफ कर देना क्योंकि ये नहीं जानता कि ये क्या कर रहा है। मैं इस अदालत में अब एक मिनट भी नहीं रह सकता।’ ये कहते हुए याकूब कोर्ट से बाहर निकल गया। पुलिस वालों ने उसे किसी तरह संभाला। अब उसे पुणे की यरवदा जेल ले जाया जाएगा और इससे पहले उसे अपने बचे-खुचे रिश्तेदारों से भी मिलने की इजाजत नहीं दी जाएगी।
धमाकों की मुख्य साजिश रचनेवाले टाइगर मेमन और अयूब मेमन फरार है, जबकि यूसुफ मेमन, ईशा मेमन और रुबीना मेमन को उम्रकैद की सज़ा दी गई है। याकूब ने पिछले साल सितंबर में दोषी करार दिए जाने के बावजूद कहा था कि उसे कानून पर पूरा भरोसा है और इसमें देर है पर अंधेर नहीं है। लेकिन अब उसका कानून से पूरा भरोसा उठ गया है। उसे लगता है कि कानून दो आंख कर रहा है क्योंकि उसी के बराबर इल्जाम वाले उसके सहयोगी मूलचंद शाह को इसी टाडा कोर्ट ने फांसी की नहीं, उम्रकैद की सज़ा सुनाई है।
कुछ लोग कह सकते हैं कि याकूब मेमन चालाक है और वह जान-बूझकर ईसामसीह जैसी बातें बोल रहा है। लेकिन हम सभी को जरूर सोचना चाहिए, जिस देश में दंगों को लेकर बराबर क्रिया-प्रतिक्रिया की बात की जाती है, उस देश में 1992 के मुंबई दंगों की प्रतिक्रिया में किए गए सीरियल बम धमाकों के दोषियों को तो सज़ा दी जा रही है, लेकिन इन दंगों में हज़ार से ज्यादा लोगों को बेरहमी से मौत के घाट उतारने वालों के खिलाफ अभी तक कार्रवाई की ही बात की जा रही है, जबकि श्रीकृष्णा आयोग नौ साल पहले ही पूरी जांच के बाद सारा सच सामने ला चुका है।
शायद याकूब को मिली मौत की सज़ा पर मुझे इसलिए भी दुख हो रहा होगा क्योंकि उसकी और मेरी दोनों की उम्र 45 साल की है और दोनों ही दिमाग से ज्यादा दिल से सोचते हैं। फिर भी हमारे कानून की दो आंखें हैं, शायद इस बात से आप भी नहीं इनकार कर पाएंगे।

Thursday 26 July, 2007

पांच साल तक यहीं विराजेंगे क्या?

नई राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के विस्तृत परिवार के बीच दांतों में जीभ से फंसे पूर्व राष्ट्रपति ए पी जे अब्दुल कलाम। कहीं ऐसा न हो कि प्रतिभा ताई का पूरा कुनबा, चंटी-पिंकी-बबली... आदि-इत्यादि पांच साल तक उनके राजसी सुख का आनंद लेने के लिए यहीं जमे रहें। तब तो राष्ट्रपति भवन के 354 एकड़ के परिसर और 340 कमरों में जमकर धमा-चौकड़ी मचती रहेगी।
फोटो साभार- इंडियन एक्सप्रेस

हच की हद, दूर रहें

रविवार की बात है। मेरा मोबाइल फोन बजा। मैंने उठाया तो उधर से रिकॉर्डेड आवाज़ बोलने लगी। पांच-दस सेकंड बाद समझ में आया कि ये हच की तरफ से कॉलर ट्यून्स का कोई ऑफर है। मुझे पांच गाने सुनाए गए और कहा गया कि इनमें से जो भी आपको पसंद हो, उसका नंबर दबा दें। मैं थोड़ा हिचका। सोचा कि जिस तरह कॉलर ट्यून्स के एसएमएस रोज़ डिलीट करता हूं, वैसा ही रवैया यहां भी अपनाऊं। फिर मुझे लगा कि जब हच से सीधे फोन आ रहा है तो शायद ये मुफ्त का ऑफर हो। मैंने अपने मनपसंद गाने के लिए तीन नंबर दबा दिया। फौरन उधर से जवाब आया - आपके मोबाइल पर 48 घंटे के अंदर ये कॉलर ट्यून एक्टिव हो जाएगी और इसका मंथली चार्ज है 30 रुपए। मुझे सदमा-सा लगा।
मैंने हचकेयर के नंबर 111 पर फोन किया। वहां मेरी सेवा में हाज़िर हुए कोई जगदीश टक्कर साहब। जनाब, क्या टक्कर दी टक्कर साहब ने। मैंने उन्हें अपनी परेशानी बताई तो उन्होंने कहा - इसमें क्या बात है। आप can ct लिखकर 123 पर एसएमएस कर दें, ये सेवा कैंसल हो जाएगी। इस एसएमएस के तीन रुपए लगेंगे, लेकिन क्योंकि आपने इस सेवा को चुन लिया है, इसलिए इसके 30 रुपए मंथली चार्जेज तो लगेंगे ही। मैंने कहा कि ये तो धोखा है। बिना बताए मुझे झांसा दिया गया। लेकिन जगदीश टक्कर साहब ने कहा - इसमें हम आपकी कोई सहायता नहीं कर सकते।
मैंने टक्कर के सामने दूसरी समस्या रखी कि मैंने हच के बिल का चेक अपने घर के नजदीकी रेलवे स्टेशन के कॉमन ड्रॉप बॉक्स में तीन दिन पहले ही डाल दिया है, लेकिन अभी तक हच के मैसेज आ रहे हैं कि आपका बिल ड्यू है। टक्कर ने पूछा कि क्या आपने चेक का नंबर 4044 पर एसएमएस किया। मैंने कहा - मैंने तो आज तक कभी ऐसा नहीं किया है, न ही किसी से मुझे इसके बारे में बताया। बोले - जनाब हर ड्रॉप बॉक्स पर ये लिखा रहता है। मैंने कहा कि गलती तो आप के सिस्टम की है कि तीन दिन बाद भी मेरा चेक आपको नहीं मिला। वो बोले - नहीं जनाब, गलती आपकी है क्योंकि आपने एसएमएस नहीं किया। हमारे पास तो एक दिन में कलेक्शन बॉक्स से चेक आ जाता है, बशर्तें आपने चेक डाला हो। मैंने कहा - इसका मतलब आप कह रहे हैं कि मैंने चेक नहीं डाला। बोले - आप दूसरा चेक जमा करके उनका नंबर 4044 पर एसएमएस कीजिए। हां, हम आप पर लेट पेमेंट नहीं लगाएंगे। टक्कर साहब ने पूछा, और कोई सेवा। मैंने कहा, नहीं। अगली सुबह मैंने रेलवे स्टेशन के ड्रॉप बॉक्स का गौर से मुआइना किया। वहां कहीं भी 4044 पर मैसेज भेजने की बात नहीं लिखी थी।

Wednesday 25 July, 2007

चाहतें होतीं परिंदा, हम बादलों के पार होते

कभी-कभी सोचता हूं कि क्या हम कभी लाल बुझक्कड़ी अंदाज़ से निकल कर ऐसे हो पाएंगे कि देश की सभी समस्याओं का हमें गहरा ज्ञान होगा और हम जो हल पेश करेंगे, वही दी गई काल-परिस्थिति का सबसे उत्तम समाधान होगा। ऐसा समाधान, जिस पर अमल करना हवाई नहीं, पूरी तरह व्यावहारिक होगा। लाल बुझक्कड़ के किस्से आपको पता ही होंगे। गांव में हाथी आकर चला गया, पीछे पैरों के निशान छोड़ गया। गांव वाले इस निशान को देखकर सोच में पड़ गए कि कौन-सा जीव उनकी धरती पर आकर चला गया। पहुंच गए लाल बुझक्कड़ के पास, तो बुद्धिजीवी बुझक्कड़ ने क्या जवाब दिया, ये सुनिए एक दोहे में – लाल बुझक्कड़ बुज्झि गय और न बूझा कोय, पैर में चाकी बांधि के हरिना कूदा होय।
मुझे लगता है कि हम जैसे लोग भी दुनिया-जहान की समस्याओं का लाल बुझक्कड़ी समाधान सुझाते हैं, उसी तरह जैसे कमेंट्री सुनने-देखने वाला कोई शख्स सचिन, सौरव या द्रविड़ के लिए कहता है कि ऐसे नहीं, ऐसे खेला होता तो सेंचुरी बन जाती, भारत जीत जाता। फिर ये भी सोचता हूं कि हम करें क्या! आखिर हमारे पास यथार्थ सूचनाएं ही कितनी होती हैं! किन हालात में, किन दबावों में फैसला लेना होता है, समाधान निकालना होता है, उनसे तो हम रत्ती भर भी वाकिफ नहीं होते। जैसे जब सारा देश कह रहा था, विधायकों, सांसदों और शिवसेना सुप्रीमो बाल ठाकरे जैसे नेताओं को छोड़कर, कि प्रतिभा पाटिल राष्ट्रपति पद के लिए सही उम्मीदवार नहीं हैं तो ऐसा नहीं कि कांग्रेस हाईकमान सोनिया गांधी या सीपीएम महासचिव प्रकाश करात को ये बात समझ में नहीं आई होगी।
लेकिन जिस सोनिया गांधी के आगे किसी कांग्रेसी सांसद या मंत्री की कोई औकात नहीं है, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तक जिनकी मर्जी के खिलाफ चूं तक नहीं कर सकते, जिस सोनिया गांधी ने पब्लिक का मूड समझकर प्रधानमंत्री का पद छोड़ दिया और त्याग की प्रतिमूर्ति बन गईं, उसी सोनिया गांधी ने अपनी छवि को चमकाने का ये मौका क्यों गंवा दिया। कौन से दवाब थे, जिनके सामने सोनिया गांधी को अपनी छवि का भी होश नहीं रहा। ये भी होश नहीं रहा कि इस फैसले पर देश का तीस करोड़ आबादी वाला मध्य वर्ग उन्हें अगले पांच साल तक कोसता रहेगा।
मैं ये भी चाहता हूं कि मायावती केंद्र सरकार से 80,000 करोड़ रुपए की सहायता मांगने के बजाय उत्तर प्रदेश के प्राकृतिक और मानव संसाधनों पर ध्यान दें और उनकी बदौलत विकास का वह मुकाम हासिल करें कि सारी दुनिया ईर्ष्या करे। लेकिन ये महज चाहत है और चाहतें तो चाहतें हैं, चाहतों का क्या! मैं ये नहीं चाहता कि मैं अंतरिक्ष में पहुंच कर सुनीता विलियम्स की तरह 24 घंटे में 16 सूर्योदय और 16 सूर्यास्त देखूं। लेकिन मैं इतना ज़रूर चाहता हूं कि आसमान की माइक्रोग्रेविटी में कभी परिंदा बनकर उड़ूं तो कभी मछली की तरह गोता लगाऊं।
मैं किसी नेता की तरह हेलिकॉप्टर से बाढ़ग्रस्त इलाकों का दौरा नहीं करना चाहता। मैं तो चील की तरह दूर गगन में वहां तक जाना चाहता हूं जहां से अपनी धरती का चप्पा-चप्पा साफ नज़र आए। मुंबई बाढ़ से डूबे तो मैं गोता लगाकर देख सकूं कि पानी कहां-कहां फंसा है और कैसे उसका निकास किया जा सकता है। मैं तो ऊपर पहुंचकर ज़मीन के हर टुकड़े की पैमाइश करना चाहता हूं ताकि न्यायप्रिय तरीके से भूमि सुधार किया जा सके। चित्रगुप्त की तरह देश के हर कर्ताधर्ता का बहीखाता रखना चाहता हूं ताकि पहले से बता सकूं कि बाबूभाई कटारा या अमर सिंह क्या गोरखधंधा कर रहे हैं। दूर से सब कुछ क्रम में नज़र आता है और सही क्रम समझकर ही आप समस्याओं का व्यावहारिक हल पेश कर सकते हैं। इसीलिए सारे पूर्वग्रहों से मुक्त होकर मै दूर जाना चाहता हूं।
मैं चाहता हूं कि मेरी ख्वाहिशें परिंदा बन जाएं, मेरी चाहतों को परियों के पर लग जाएं और मैं बादलों के पार चला जाऊं। नीचे उतरूं तो देश की हर एक समस्या का समाधान मेरी उंगलियों के पोरों पर हो। आमीन...

Tuesday 24 July, 2007

कल आज और कल

एपीजे अब्दुल कलाम का आज राष्ट्रपति भवन में आखिरी दिन है। कल से देश की नई राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल यहां स्थापित हो जाएंगी। कलाम अविवाहित हैं और पूरा देश ही उनका कुनबा था, जबकि प्रतिभा पाटिल का भरा-पूरा परिवार है। वह राष्ट्राध्यक्ष हैं, लेकिन किस परिवार को अहमियत देती हैं, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता कि जब उनका गृह राज्य महाराष्ट्र उनके पधारने का इंतज़ार कर रहा था, तब वो आधिकारिक रूप से यहां नहीं आईं। लेकिन गुपचुप जलगांव पहुंच कर लौट भी गई क्योंकि जलगांव में उनके नाती का अस्पताल में इलाज चल रहा था। कलाम और प्रतिभा की प्राथमिकताएं स्पष्ट हैं।
राष्ट्रपति भवन के कर्मचारियों को कलाम का संदेश

फॉर्मूला दुनिया की सबसे हिट ब्लॉगर का

सु जिंगलेई का चीनी में लिखा जा रहा ब्लॉग आज दुनिया का सबसे हिट ब्लॉग है। इसी साल 12 जुलाई को इस ब्लॉग ने 10 करोड़ हिट का आंकड़ा छुआ। लेकिन उसके बाद के 12 दिनों में ही इसके हिट 41 लाख और बढ़ गए हैं। मैं जिस वक्त ये पोस्ट लिख रहा हूं, तब इसका विजिटर काउंटर 10,41,42,555 का आंकड़ा दिखा रहा है। जब आप इसे पढ़ रहे होंगे, तब इस काउंटर पर नज़र डाल लीजिएगा। आपको सु जिंगलेई के ब्लॉग की लोकप्रियता का अंदाजा लग जाएगा। वैसे तो सु जिंगलेई चीन की सेलिब्रिटी हैं, फिल्म अभिनेत्री हैं, डायरेक्टर हैं, इसलिए उनके जीवन में तांकझांक करने की तगड़ी दिलचस्पी लोगों में होगी। लेकिन खास बात सु के लिखने की स्टाइल और विषय में भी हैं। वे छोटी पोस्ट लिखती हैं। अपनी सोच और काम से निकले निजी अनुभवों पर लिखती हैं। किस्से कहानियों से जोड़कर लिखती हैं। एक ताज़ा नमूना पेश है, जो पहले चीनी से अंग्रेजी में यांत्रिक रूप से अनूदित हुआ, फिर उस भ्रष्ट अनुवाद को मैंने दुरुस्त किया।
....वाह, आपका ब्लॉग तो बिलियन डॉलर का हो गया! ये तारीफ है या सवाल? कुछ लोग कहते हैं कि यह आंकड़ा अतिरंजित है। इस पर मुझे एक बड़ी ही दिलचस्प भारतीय लोककथा याद आ गई : एक बार एक बुजुर्ग धोबी अपने नाती के साथ मेले से लौट रहा था। उसने नाती को गधे पर बैठा रखा था और खुद पैदल चल रहा था। लोगों ने कहा - बुजुर्गों का मान कितना घट गया है। बताओ, नाती गधे पर बैठा और बूढ़ा बाबा पैदल चल रहा है। इसे सुनकर धोबी खुद गधे पर बैठ गया और नाती को नीचे उतार कर पैदल चलने को कहा। लोगों ने देखा तो कहने लगे - कोई बूढ़ा आदमी इतना निर्दयी कैसे हो सकता है कि खुद तो मजे से गधे पर बैठा है और बेचारा बच्चा पैर घसीट रहा है। इसके बाद धोबी खुद भी गधे से उतर गया और नाती-बाबा दोनों गधे की रस्सी पकड़े हुए पैदल-पैदल चलने गए। सड़क चलते लोगों ने देखा तो कहने लगे - देखो, बाबा-नाती कितने बड़े मूर्ख हैं। गधा होते हुए भी पैदल चले जा रहे हैं।
कहानी का मतलब ये है कि लोग तो बोलते ही रहते हैं। हर किसी का अपना नज़रिया होता है। हालांकि हमें बचपन से सिखाया जाता है कि दूसरों की राय को सुनो, उसका आदर करो। लेकिन दुनिया में बड़ी हास्यास्पद चीजें होती हैं। आप जब बड़े होते हैं तो आपको बहुत सारी चीजें फिर से सीखनी पड़ती हैं। वो बहुत कुछ अन-लर्न करना पड़ता है जो आपने स्कूलों में पढ़ा होता है।

अपडेट : रात 10 बजे सु जिंगलेई के ब्लॉग के विजिट काउंटर का आंकड़ा है 10,43,50,534 यानी 14 घंटे में दो लाख से ज्यादा नए विजिटर...

Monday 23 July, 2007

किसी दिन ढूंढे नहीं मिलेंगे सरकारी दूल्हे

इस समय केंद्र सरकार में सचिव स्तर के अधिकारी की फिक्स्ड सैलरी 26,000 रुपए हैं। इसमें एचआरए और दूसरे भत्ते मिला दिए जाएं तो यह पहुंच जाती है 63,110 रुपए महीने पर यानी साल भर में करीब 7.5 लाख रुपए का पैकेज। इससे कई गुना ज्यादा वेतन तो आईआईएम से निकले 24-25 साल के नए ग्रेजुएट को मिल जाता है। आज स्थिति ये है कि जिस आईएएस अफसर को, चाहे अपने संस्कारों से या अपनी पोस्टिंग से, बेईमानी करने का मौका नहीं मिलता, वह अपनी तनख्वाह को लेकर हमेशा जलता-भुनता रहता है। ऊपर से सीबीआई के छापे का डर। कहीं अंदरूनी राजनीति के चलते किसी सीनियर की वक्री दृष्टि पड़ गई तो समझिए पूरा करियर चौपट। रेलवे में काम कर रहे मेरे एक आईएएस मित्र मारुति-800 से ऊपर की कार नहीं खरीद रहे क्योंकि उन्हें बेकार में सीबीआई की नज़रों में आने का डर लगता है।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय में मेरे हॉस्टल (ए एन झा, या म्योर हॉस्टल) से निकले मेरे ही बैच के करीब दर्जन भर आईएएस अफसर हैं, जिन्हें मैं जानता हूं। उनमें से एक-दो के ही चेहरों पर मैंने अफसरी की लुनाई देखी है। बाकी तो किसी दफ्तर के सामान्य बाबू की तरह मुश्किलों का रोना रोते रहते हैं। ऊपर से आप में स्वामिभान हुआ और आपने किसी नेता से पंगा ले लिया तो सचिवालय में ऐसे निर्वासित कर दिए जाएंगे कि ज़िंदगी पर अपने ‘मान’ को कोसते रह जाएंगे। मुझसे चार साल सीनियर एक बाबूसाहब ग्वालियर के डीएम हो गए। तब माधवराव सिंधिया ज़िंदा थे। बाबूसाहब पुराने जिलाधिकारियों की तरह महाराज के दरबार में हाज़िरी बजाने नहीं गए। नतीजा ये हुआ कि पहले तो वे अपने ही ज़िले में ज़लील किए गए। फिर उठाकर वस्त्र मंत्रालय के हथकरघा विभाग में फेंक दिए गए, जहां वो कुछ साल पहले तक हिंदी साहित्य की अटरम-बटरम किताबें बांचा करते थे। अब क्या हाल है, पता नहीं।
ऐसी ही वजहों के चलते आज के काबिल नौजवान सिविल सर्विसेज से मुंह मोड़ रहे हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड या नॉर्थ ईस्ट जैसे पिछड़े राज्यों को छोड़ दिया जाए तो बाकी देश में सिविल सर्विसेज का क्रेज बुरी तरह घटा है। इसे देखकर तो लगता है कि कहीं भविष्य में इन सेवाओं की हालत हमारी सेनाओं की तरह न हो जाए जहां बड़े-बड़े विज्ञापन निकालकर नौजवानों को अफसर बनने के लिए लुभाना पड़ता है।
इस ट्रेंड से हमारा कॉरपोरेट जगत भी बड़ा परेशान हो गया है। उसे लगता है कि जिन तंत्र की गोंद में खेल-कूद कर वह इतना महारथी बना है, वह तंत्र ही अगर मिट गया तो वह नए सिरे से कैसे सामंजस्य बैठाएगा। शायद इसीलिए कुछ महीने पहले देश के तीसरे नंबर के उद्योग संगठन एसोचैम (एसोसिएटेड चैंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्रीज) ने एक सर्वे कराया। सर्वे में सैंपल रखा गया है 300 नौजवानों का। इसके आधार पर उसने ज़ोर-शोर से प्रचारित करवाया कि 80 फीसदी नौजवानों की पहली पसंद आज भी सिविल सर्विसेज हैं और वो ज्यादा तनख्वाह के बावजूद निजी क्षेत्र की नौकरियों में इसलिए नहीं जाना चाहते क्योंकि वहां पर स्थायित्व नहीं है, सुरक्षा नहीं है।
लेकिन एसोचैम के इस बेहद छोटे आकार के सैंपल सर्वे में भी आधे से ज्यादा युवाओं ने स्वीकार किया कि आज उन्हें ‘सिस्टम’ की तरफ से सिविल सर्विसेज में जाने के लिए हतोत्साहित किया जा रहा है। इनमें से ज्यादातर लोगों ने ये भी कहा कि सरकारी विज्ञापन संस्था डीएवीपी को सिविल सर्विसेज के सकारात्मक पहलुओं पर विज्ञापन निकालने चाहिए ताकि इस सेवा से प्रतिभा पलायन को रोका जा सके।
सर्वे में ज्यादातर लोगों ने ये भी सुझाव दिया गया कि हर राज्य की राजधानी में नौजवान लड़कों-लड़कियों को सिविल सर्विसेज में करियर बनाने की ट्रेनिंग देने के लिए एकेडमी बनाई जाए। इस एकेडमी को पूरी तरह सरकार अपनी देखरेख में अपने फंड से चलाएं। इस व्यग्रता को देखकर क्या आपको नहीं लगता कि एक दिन ऐसा आनेवाला है जब सर्चलाइट लेकर ढूंढने पर भी आईएएस-पीसीएस बनने के लिए `सरकारी दूल्हे’ नहीं मिलेंगे।...समाप्त

भारत के जिलाधिकारियों सावधान!

अगर आप, आपका कोई नातेदार या जान-पहचान वाला भारत के किसी जिले का डीएम है तो उस तक ये सूचना ज़रूर पहुंचा दीजिए कि जिलाधिकारी/ डिप्टी-कलेक्टर/ डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट की पोस्ट पर ही तलवार लटक रही है और इस पद को कभी भी खत्म किया जा सकता है। वैसे, भारत के लिए ये अभी दूर की कौड़ी है, लेकिन ज्यादा दूर की नहीं क्योंकि पुराने हिंदुस्तान के एक हिस्से पाकिस्तान में ऐसा हो चुका है। और टूटे बांध का पानी दस गांव दूर तक पहुंच गया हो तो बाकी गांवों के लोग इस गफलत में नहीं रह सकते हैं कि हमारे गांव में पानी थोड़े ही आएगा। या, उस पादरी की तरह भी नहीं हो सकते, जिसने बीच मझधार में जब नाव के दूसरे किनारे पर छेद हो गया और नाव उधर से डूबने लगी तो कहा था – थैंक गॉड द होल इज नॉट अवर साइड।
पाकिस्तान ने दो सौ सालों के अंग्रेजी शासन से विरासत में मिले डीएम के पद को खत्म कर दिया है और अभी नहीं, सात साल पहले से। इसकी जगह ज़िला वित्त आयोग और ज़िला-स्तरीय पब्लिक सर्विस कमीशन बनाए गए हैं। ज़िले के अधिकारियों-कर्मचारियों का चयन ज़िला समितियां करती है और ये लोग राज्य या केंद्र सरकार के प्रति नहीं, इन समितियों के प्रति जवाबदेह होते हैं। हर ज़िला समिति के सदस्यों में महिलाओं का भी एक निश्चित अनुपात होता है। ज़िलों की इस नई प्रशासनिक व्यवस्था को पाकिस्तान के संविधान में शामिल कर लिया गया है।
हाल ही में लाहौर में स्थानीय स्वशासन पर एक संगोष्ठी की गई, जिसमें भारत और पाकिस्तान के कुछ केंद्रीय व प्रांतीय मंत्रियों, अफसरों, बुद्धिजीवियो और पंचायती स्तर तक के नुमाइंदों ने शिरकत की। उसी संगोष्ठी में प्रशासनिक सुधारों पर चर्चा के दौरान पाकिस्तान में डीएम के पद को खत्म करने के अनुभव पर भी बात की गई। इसी संगोष्ठी में नक्कारखाने में तूती बने हमारे पंचायती-राज मंत्री मणिशंकर अय्यर ने अपनी पीठ थपथपाते हुए कहा कि भारत में 530 ज़िला पंचायतें हैं और यहां 32 लाख चुने हुए व्यक्ति हैं जो एक अरब भारतीयों का प्रतिनिधित्व करते हैं। वैसे, जिस देश में सालों-साल से चुनाव नहीं हुए हो, उसके लिए यह सच्चाई वाकई जलन की बात है और हमारे लिए गर्व की। ये अलग बात है कि हमारे पंचायती तंत्र की धमनियों में अभी तक सही रक्त संचार नहीं शुरू हो पाया है।
लेकिन पंचायती राज की सोच का दायरा बढ़ रहा है और हो सकता है कि ये सिलसिला बढ़ते-बढ़ते जिलाधिकारी तक पहुंच जाए। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी लंबे समय से प्रशासनिक सुधारों की बात कर रहे हैं। इसलिए संभव है कि ब्रिटिश शासन से उत्तराधिकार में मिली सिविस सर्विसेज पर भी किसी दिन गाज गिर जाए। हम लोग जब राजनीतिक कार्यकर्ता की हैसियत से गांवों में जाते थे तो एक बात लोगों से ज़रूर पूछते थे। वो यह कि तेल पेरनेवाली मशीन से आटा कैसे पीसा जा सकता है? तब, अंग्रेजों ने भारतीय अवाम के दोहन के लिए जो मशीनरी बनाई थी, वह हमारे काम की कैसे हो सकती है? सालों पहले कर्नाटक में नंदुन्जास्वामी की अगुआई में आम लोगों ने ‘पब्लिक सर्वेंट्स’ के घरों पर छापे भी मारे थे और उनसे पूछा था कि उन्होंने इतनी संपत्ति कहां से अर्जित की। नंदुन्जास्वामी ने लोगों से कहा था कि डीएम, कलेक्टर हमारे अफसर नहीं, बल्कि पब्लिक सर्वेंट हैं, हमारे नौकर हैं।
मेरे कहने का मतलब ये है कि आईएएस-पीसीएस जैसे अफसरों के खिलाफ एक सुगबुगाहट देश में लंबे समय से चल रही है। ऐसी ही सुगबुगाहट के चलते नौकरशाही के लाख विरोध के बावजूद राइट टू इनफॉरमेशन एक्ट आज अवाम के हाथों का एक मजबूत अस्त्र बन चुका है। ऐसे में किसी दिन डीएम साहब का ओहदा भी घेरे में न आ जाए। इसलिए देश भर के जिलाधिकारियों सावधान! वैसे भी आप लोग अपनी कम तनख्वाह और नेताओं के दखल से काफी समय से काफी परेशान चल रहे हैं। जारी...

Saturday 21 July, 2007

फैलेगी बरगद छांह वहीं

गजानन माधव मुक्तिबोध की कविताओं ने विद्यार्थी जीवन में मुझ पर गज़ब का जादुई असर किया था। उन्हीं की तीन प्यारी-सी छोटी-छोटी कविताएं।

1. मैं बहुत दिनों से बहुत दिनों से बहुत-बहुत-सी बातें
तुमसे चाह रहा था कहना
और कि साथ-साथ यों साथ-साथ फिर बहना-बहना-बहना
मेघों की आवाज़ से, कुहरे की भाषाओं से, रंगों के उद्भासों से
ज्यों नभ का कोना-कोना है बोल रहा धरती से, जी खोल रहा धरती से
त्यों चाह रहा था कहना उपमा संकेतों से, रूपक से, मौन प्रतीकों से
मैं बहुत दिनों से बहुत दिनों से
बहुत-बहुत-सी बातें तुमसे चाह रहा था कहना!
जैसे मैदानों को आसमान, कुहरे की, मेघों की भाषा त्याग
बिचारा आसमान कुछ रूप बदलकर रंग बदलकर कहे।

2. बाज़ार में बिकते हुए इस सूट में, इस पैंट में, इस कोट में
कैसे फंसाऊं जिस्म!!
या मैं किस तरह काटूं-तराशूं देह जिससे वह जमे उसमें बिना संदेह
जीने की अदा हो रस्म!!
चाहे मैं छिपूं, छिपता रहूं अपनी स्वयं की ओट में
बेशक कि जोकर दीखता हूं और लगता हूं खुद ही को चोर
पिटता हूं अकेले चुप-छिपे, निज की निहाई पर स्वयं के हथौड़ों की चोट में
...फिर भी एक सज-बज, एक धज भई वाह!!
मुझको नित बताती ज़िंदगी की राह।

3. पता नहीं, कब कौन कहां किस ओर मिले
किस सांझ मिले, किस सुबह मिले!
यह राह ज़िंदगी की जिससे जिस जगह मिले
है ठीक वहीं, बस वहीं अहाते मेंहदी के
जिनके भीतर है कोई घर, बाहर प्रसन्न पीली कनेर
बरगद ऊंचा, गीली ज़मीन
मन जिन्हें देख कल्पना करेगा जाने क्या!!
तब बैठ एक गंभीर वृक्ष के तले
टटोलो मन जिससे जिस छोर मिले
कर अपने तप्त अनुभवों की तुलना, घुलना-मिलना!!
यह सही कि चिलचिला रहे फासले, तेज दुपहर भरी
सब ओर गरम धार-सा रेंगता चला काल बांका-तिरछा
पर, हाथ तुम्हारे में जब भी मित्र का हाथ
फैलेगी बरगद छांह वहीं, गहरी-गहरी सपनीली-सी...

Friday 20 July, 2007

अपने से चली बड़-बड़, तड़-बड़

पिता ने कहा – हवन करो। लेकिन मैं हवन क्यों करूं? मैं तो सोते-जागते निरंतर आहुतियां देता रहता हूं। जब बोलता हूं तो सांसों की आहुति देता हूं और जब सांस लेता हूं तो वचन की आहुति देता हूं।
दोस्तों ने कहा – जिंदगी में नशा ज़रूरी है। मैंने कहा - हर नशे से दूर हूं क्योंकि भोजन के नशे का आदी हो गया हूं। सिगरेट का नशा क्यों करूं? मैं तो हवा का नशा करता हूं। शराब का नशा क्यों करूं? मैं तो पानी का नशा करता हूं।
उसने कहा - मनुष्य के रूप में ये तुम्हारा पहला जन्म है। तभी तो तुम्हें दुनिया की रीति-नीति, छल-छद्म एकदम नहीं आते। मैंने कहा - शायद तुम ठीक कहते हो।
बॉस ने कहा – तुम जो कुछ हो, मैंने तुम्हें बनाया है। मैंने कहा – तुम मुझे क्या बनाओगे। मैं सूर्य-पुत्र, सरस्वती का बेटा। मैं असीम हूं, अनंत हूं। सूरज मेरा पिता है, नेता और दोस्त भी। जैसे वह पेड़-पौधों को बढ़ाता है, बनाता है, वैसे ही मुझे भी आगे बढ़ाएगा। उसका प्रकाश मेरे लिए भी जिंदगी और ज्ञान का स्रोत बन जाएगा। दोस्त की हैसियत से सूरज हर सफर में तब तक मेरे साथ चलता रहता है, जब तक वह डूब नहीं जाता। पेड़ों, घरों और बादलों की ओट आती जरूर है, लेकिन उनके पीछे भी सूरज लगातार मेरे साथ चलता रहता है। लेकिन उसका साथ तो केवल दिन का है, रात में क्या होगा, जिंदगी के अंधेरे में क्या होगा। कुछ नहीं होगा, मां सरस्वती की छाया तो मेरे साथ रहेगी।

Thursday 19 July, 2007

देश के माथे पर बिंदी या कलंक का टीका

शाम ढल चुकी है। दिल्ली और राज्यों की राजधानियों में घड़ी की सुइयां दो घंटे पहले ही पांच बजा चुकी हैं। राष्ट्रपति चुनाव के लिए वोट पड़ चुके हैं। देश भर के 4,896 जन प्रतिनिधियों (776 सांसद, 4120 विधायक) के मतों के बहुमत से नए राष्ट्रपति का फैसला शनिवार 21 जुलाई की शाम तक सबके सामने आ जाएगा। यूपीए को यकीन है कि प्रतिभा पाटिल बहुमत से चुन ली जाएंगी और तब उनके माथे पर चिपके दाग-धब्बों का कोई मतलब नहीं रह जाएगा।
कांग्रेस प्रतिभा पाटिल पर को-ऑपरेटिव बैंक, चीनी मिल, शिक्षा ट्रस्ट और सांसद निधि में घोटाला करने और हत्या के आरोपी अपने भाई को बचाने के आरोपों को बेबुनियाद मानती है। वह कहती है कि इन आरोपों के कोई दस्तावेज़ी सबूत नहीं है। वैसे आपको बता दूं कि इन आरोपों को अब हम दो दिन तक ही दोहरा सकते हैं। कह सकते हैं कि कैसी अंधविश्वासी महिला को हम आधुनिक भारत की राष्ट्रपति बना रहे हैं जो किसी मरे हुए शख्स से बात करने का दावा करती है। लेकिन कांग्रेस जानती है और हमें भी समझ लेना होगा कि राष्ट्रपति बन जाने के बाद हम प्रतिभा ताई की कोई आलोचना नहीं कर सकते, क्योंकि तब देश की महामहिम होने के नाते वे सारी आलोचनाओं और जवाबदेहियों से ऊपर उठ जाएंगी।
कांग्रेस और सरकारी वामपंथी बेशर्मी से कह रहे हैं कि प्रतिभा पाटिल देश की पहली महिला राष्ट्रपति होंगी और यह महिला एम्पावरमेंट का प्रतीक है। लेकिन देश की तमाम मुखर महिलाओं ने इसे समूचे महिला समुदाय का अपमान करार दिया है। रानी जेठमलानी, मधु किश्वर, इरा पांडे, कामिनी जायसवाल, ब्यास भौमिक और बीना रमानी जैसी कई प्रमुख हस्तियों ने सांसदों और विधायकों से विवेक के आधार पर वोट देने की अपील की थी। सांसद चाहते तो पार्टी की राय से खिलाफ जाकर अपने विवेक से वोट दे सकते थे क्योंकि राष्ट्रपति चुनावों में पार्टी का व्हिप नहीं चलता। लेकिन लगता नहीं कि ऐसा उन्होंने किया होगा क्योंकि निजी ‘सामुदायिक’ स्वार्थ उनके विवेक को कब का मार चुका है और प्रतिभा पाटिल से अच्छा उनके समुदाय का नुमाइंदा कोई और हो ही नहीं सकता। वैसे ये अच्छा भी है क्योंकि कलाम जैसे लोग हमारे राजनेताओं का असली प्रतिनिधित्व नहीं करते। कलाम एक अपवाद थे, जबकि प्रतिभा पाटिल एक नियम हैं, देश के नाम पर कलंक हैं।
इस बार का राष्ट्रपति चुनाव इसलिए भी दिलचस्प रहा कि अलग-अलग जेलों में बंद करीब आधा दर्जन सांसदों और पांच दर्जन विधायकों को भी वोट देने का पूरा मौका चुनाव आयोग ने मुहैया कराया। इस सहूलियत का फायदा उठाते हुए तिहाड़ जेल में बंद आरजेडी सांसद पप्पू यादव और बीजेपी सांसद बाबूलाल कटारा ने संसद में आकर वोट डाला। सीवान जेल में बंद आरजेडी सांसद शहाबुद्दीन ने पटना जाकर वोट डाला, जबकि दुमका जेल में बंद जेएमएम के सांसद और पूर्व कोयला मंत्री ने रांची में प्रतिभा ताई के मतों में 708 (प्रति सांसद नियत वोट) की संख्या जोड़ दी होगी।

प्यार में नहीं चलती जागीरदारी

अमेरिका के ओहायो प्रांत का एक्रॉन शहर। इसी शहर में रहा करते थे एक अनिवासी भारतीय डॉक्टर, जिनका नाम था गुलाम मूंडा। सालों पहले भारत से गए तो अमेरिका के ही बनकर रह गए। जमकर दौलत कमाई। लेकिन प्यार में ओवर-पज़ेसिव होना उनकी मौत का सबब बन गया। उनकी मौत का ज़रिया बन गई वही औरत जो पहले उनकी क्लीनिक में नर्स थी और बाद में उनकी बीवी बन गई, जिसे वो अपनी ज़ागीर की तरह सहेज कर, संवार कर रखते थे।
जी हां, डोना मूंडा, यही नाम है डॉ. गुलाम मूंडा की 48 साल की पत्नी का, जिस पर इल्जाम है कि उसने 26 साल के एक नौजवान को अपनी लाखों डॉलर की जायदाद का आधा हिस्सा देने का लालच दिखाया और उसके हाथों 69 साल के अपने पति की हत्या करवा दी। डोना को गिरफ्तार किया जा चुका है और सज़ा का फैसला भी होनेवाला है। उसे या तो उम्रकैद मिलेगी या मिलेगी सज़ा-ए-मौत। अगर उसे मौत की सज़ा मिलती है तो वह अमेरिका के इतिहास में मौत की सज़ा पानेवाली तीसरी महिला होगी। वैसे, जो औरत ताज़िंदगी तिल-तिल कर मरती रही, शायद उसके लिए मौत की सज़ा ज्यादा तकलीफदेह नहीं होगी।
डॉ. गुलाम मूंडा डोना का इतना ख्याल रखते थे कि पूछिए मत। वह कब कौन-सी जूतियां पहनेगी, कब कौन से सैंडल या चप्पल पहनेगी, इससे लेकर डॉक्टर साहब ही तय करते थे कि वह कौन-सा पर्स रखेगी, कौन-सी परफ्यूम लगाएगी। यहां तक कि डिनर की मेज़ पर उसके रिश्तेदार कहां-कहां बैठेंगे, इसका भी फैसला वे ही करते थे।
डॉक्टर साहब जब काम से घर लौटते तो उन्हें फलों की प्लेट तैयार चाहिए होती थी। उसके बाद वो जब आराम करते थे तो घर में पूरी शांति रहनी जरूरी होती थी, नहीं तो उनका पारा सातवें आसमान तक चढ़ जाता था। जागीर बनी डोना को उनकी ये सारी की सारी ख्वाहिशें पूरी करनी पड़ती थीं। डोना समझ ही नहीं पाई कि उसका वजूद कब मिटता गया और कब वह गुलाम की बांदी बन गई। लेकिन एक दिन उसके वजूद ने उससे अपने होने का मतलब पूछा तो उस पर छाये ओवर-पज़ेसिव प्यार का कवच फट पड़ा।
उसने डैमियन ब्रैडफोर्ड को पहले अपना ब्वॉयफ्रेंड बनाया और फिर उससे कहा कि अगर वह उसे उसके पति से निजात दिला दे तो वह अपनी आधी जायदाद उसके नाम कर देगी। ब्रैडफोर्ड इस झांसे में आ गया। उसने 13 मई 2005 को डॉक्टर गुलाम मूंडा के सिर पर सीधे गोली मारी और उन्हें हमेशा-हमेशा के लिए खत्म कर दिया। लेकिन वह जब पुलिस के हत्थे चढ़ा तो उसने डोना की साजिश को बेपरदा कर दिया। ब्रैडफोर्ड को साढ़े सत्रह साल कैद की सज़ा मिल चुकी है।
लेकिन एक सवाल मेरे मन में उठता है कि क्या प्यार में ओवर-पज़ेसिव होना सही है, मानवीय है? क्या अपने प्यार में किसी के वजूद को ही मिटा देना वाज़िब है? आखिर हर किसी का अपना अलग व्यक्तित्व होता है, शख्सियत होती है। कबीर जब कहते हैं कि नैना अंतर आव तू, पलक छांपि तोहि लेहु, न मैं देखूं और को, तुज्झ न देखन देहूं, तो यकीनन इसमें ओवर-पज़ेसिव प्यार का ही इजहार है, लेकिन इससे पहले वो अपना सीस उतार कर ज़मीन पर भी रख चुके होते हैं, खुद का बलिदान कर चुके होते हैं। प्यार में अपना बलिदान पहली शर्त होती है, नहीं तो वह डॉ. गुलाम मूंडा की तरह दूसरों को अपनी जागीर बनाने का ज़रिया भर रह जाता है।
अपडेट : डोना मूंडा को जूरी ने सज़ा-ए-मौत के बजाय उम्रकैद की सज़ा सुनाई है।

Wednesday 18 July, 2007

राष्ट्रपति के खजाने में 7 लाख करोड़ के शेयर

आज यूं ही एजेंसी की खबरों पर नज़र डाल रहा था तो बड़ी चौंकानेवाली बात पता लगी। प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया के मुताबिक, भारत के राष्ट्रपति इस समय देश के सबसे अमीर शेयरधारक है। उनके नाम में स्टॉक एक्सचेंजों में लिस्टेड कंपनियों के जो शेयर हैं, उनका बाजार मूल्य इस समय तकरीबन 7,00,000 करोड़ रुपए है। अगर पांच सबसे अमीर भारतीयों – लक्ष्मी मित्तल, मुकेश अंबानी, अनिल अंबानी, कुशलपाल सिंह और अज़ीम प्रेमजी की कुल शेयरधारिता को भी मिला दिया जाए, तब भी वह राष्ट्रपति के शेयरों की कीमत से कम बैठेगी।
ये अलग बात है कि राष्ट्रपति की कुर्सी पर बैठनेवाला शख्स इस राशि का महज कस्टोडियन होता है, मालिक नहीं। भारतीय संविधान के मुताबिक भारत सरकार का सारा कारोबार राष्ट्रपति के नाम पर होता है। इसलिए केंद्र सरकार की सारी शेयरधारिता राष्ट्रपति या उनके नॉमिनी के नाम पर दर्ज है। लगभग 50 लिस्टेड कंपनियों में खुद राष्ट्रपति के नाम पर चढ़े शेयरों की बाज़ार कीमत 6,00,000 करोड़ रुपए है, जबकि दस और कंपनियों के 1,00,000 करोड़ रुपए मूल्य के शेयर केंद्र सरकार में राष्ट्रपति के मनोनीत प्रतिनिधियों के पास हैं।
राष्ट्रपति ए पी जे अब्दुल कलाम ने 25 जुलाई 2002 को जब अपना कार्यकाल शुरू किया था, तब राष्ट्रपति के स्वामित्व वाले शेयरों की कीमत 1,18,000 करोड़ रुपए थी। लेकिन उसके बाद शेयर बाजार का संवेदी सूचकांक, सेनसेक्स 3000 अंक से बढ़ते-बढ़ते 15,000 अंक के ऊपर पहुंच चुका है। इसी के अनुरूप राष्ट्रपति की शेयर संपदा भी करीब छह गुना हो गई। अभी देश के सभी शेयरधारकों की कुल संपदा, यानी सभी लिस्टेड कंपनियों का बाज़ार पूंजीकरण (शेयर की कीमत और कुल जारी शेयरों की संख्या का गुणनफल) 45,00,000 करोड़ रुपए है। इस तरह 7,00,000 करोड़ रुपए की शेयर संपदा के साथ अकेले हमारे राष्ट्रपति के पास सभी शेयरधारकों की संपदा का 15 फीसदी से ज्यादा हिस्सा पड़ा हुआ है।
राष्ट्रपति के पोर्टफोलियो में सबसे कीमती शेयर है ओएनजीसी का। इसके बाद नंबर आता है एनटीपीसी का। इसके अलावा देश के प्रथम नागरिक के खजाने के दूसरे कुछ खास रत्न हैं – इंडियन ऑयल, नेशनल एल्युमीनियम, एमएमटीसी, नैवेली लिग्नाइट, पावर फाइनेंस कॉरपोरेशन, पंजाब नेशनल बैंक, सेल, हिंद कॉपर, हिंदुस्तान ज़िंक, बीएचईल और कंटेनर कॉरपोरेशन।

Tuesday 17 July, 2007

तस्वीर का फ्रेम अधूरा है कलाम साहब

कलाम साहब महामहिम है, महान हैं। देश के प्रथम नागरिक हैं, खास-म-खास हैं। उम्र और अनुभव के लिहाज़ से भी काफी बड़े हैं। ऐसे में उनकी कही गई बात को काटना छोटे मुंह बड़ी बात होगी। लेकिन कलाम साहब खास होने के बावजूद कभी-कभार अपने जैसे भी लगते हैं। शायद इसीलिए मैं उनकी बातों की काट पेश करने की हिमाकत कर पा रहा हूं। कलाम साहब ने जो तस्वीर पेश की है, उसकी सबसे बड़ी खामी है कि उसका फ्रेम अधूरा है। उसमें पब्लिक ही पब्लिक नज़र आती है, जबकि सरकार गायब है। दो बंडल बीड़ी, 50 ग्राम तेल और एक किलो आटा खरीदनेवाले आम आदमी से लेकर होटलों में खाना खानेवाली खास पब्लिक जिन कामों के लिए इस साल केंद्र सरकार को कस्टम और एक्साइज ड्यूटी के रूप में 2,28,990 करोड़ रुपए, सेल्स टैक्स या वैट और लोकल टैक्स के रूप में हज़ारों करोड़ रुपए, इनकम टैक्स के बतौर 98,774 करोड़ रुपए और सर्विस टैक्स के रूप में 50,200 करोड़ रुपए अदा करेगी, वे काम अगर पब्लिक खुद करने लगे तो सरकारी संस्थाओं की ज़रूरत ही क्या रह जाएगी। टैक्स देनेवाली पब्लिक अपनी जिम्मेदारी निभाए, लेकिन जो इस जिम्मेदारी को निभाने के लिए पब्लिक से पैसे लेते हैं, वो भ्रष्टाचार और कामचोरी करते हुए सीनाज़ोरी करते रहें, ये कहां तक वाजिब है।
यहां मैं मुंबई का एक उदाहरण पेश करना चाहूंगा। मुंबई महानगरपालिका ने पिछले साल मुंबईवासियों के लिए एक बीमा करवाया। इसमें प्रावधान था कि मुंबई में जो कोई भी प्रॉपर्टी टैक्स भरता है, अगर वह या उसके परिवार का कोई सदस्य दुर्घटना का शिकार हो जाए तो उसे एक लाख रुपए तक का मुआवजा दिया जाएगा। इस स्कीम की मियाद अगले महीने अगस्त में खत्म हो रही है, लेकिन बीएमसी ने इस स्कीम के बारे में मुंबईवासियों को बताना ज़रूरी नहीं समझा। बीमा कंपनी को करोड़ों का प्रीमियम मिल गया और सरकारी अमले को लाखों का कमीशन। कलाम साहब, क्या इनकी गरदन पकड़ने की जरूरत नहीं है?
मुंबई का ही एक और उदाहरण। कुछ महीने पहले शहर में सफाई अभियान चलाया गया। जो भी सार्वजनिक जगहों पर थूकते या पेशाब करते पकड़े गए, उन्हें पकड़ कर थूक साफ करवाया गया, जुर्माना लगाया गया, अखबारों में फोटो छपवाए गए और टेलिविजन पर खबरे चलवाई गईं। लेकिन शहर प्रशासन यह तो बताए कि उसने कितने नए पेशाब घर बनवाए हैं या कहां-कहां कचरे के डिब्बे लगवाए हैं। रेलवे स्टेशन पर आप उतरें तो चिप्स का रैपर या कागज हाथ में लेकर टहलते रहते हैं, आपको कहीं कचरे का डिब्बा नहीं मिलता। बस स्टॉप, समुद्री तटों और दूसरी सार्वजनिक जगहों का भी यही हाल है। कलाम साहब, क्या सिंगापुर, टोक्यो और न्यूयॉर्क में भी आपको यही सूरते-हाल नज़र आता है?
हर आदमी अपना घर साफ रखता है। विदेश जाता है तो सड़क से लेकर सभी सार्वजनिक जगहों पर सफाई का पूरा ख्याल रखता है। लेकिन वही आदमी भारत की सड़कों पर उतरते ही कैसे बदल जाता है? ये कैसा विरोधाभास है! क्या भारत की मिट्टी, यहां की आबोहवा उसे गैर-जिम्मेदार बना देती है? सच ये है कि हमारे यहां नियम नहीं हैं और अगर हैं भी तो उन्हें लागू करने की व्यवस्था लचर है।
हम मानते हैं कि हमारे यहां लोगों में सिविक सेंस का विकास नहीं हुआ है। लेकिन ये भी तो देखना पड़ेगा कि ट्रैफिक पुलिस को अपनी औकात की धौंस दिखानेवाले लोग कौन-से हैं। ऐसे लोग विदेश में भी ट्रैफिक पुलिस को घूस खिला देते, लेकिन उन्हें पता होता है कि घूस देने के लिए ट्रैफिक नियम तोड़ने से कहीं ज्यादा सज़ा मिलेगी। आम आदमी तो जगह-जगह पान की पीक नहीं थूकता। ये काम वो करते हैं जिनका रुतबा समाज में है। तो रुतबेवालों को टाइट करो! उनको क्यों नसीहत दे रहे हो, जो पहले से डरे रहते हैं, हर नियम का पालन करते हैं। समय पर टैक्स-रिटर्न भरते हैं। खिड़की पर लाइन में लगकर टिकट खरीदते हैं।
इतिहास गवाह है कि सालों-साल के अनुशासन से लोगों की जड़ से जड़ आदतें भी बदल जाती हैं। और, सार्वजिनक अनुशासन लागू करना उन सामूहिक संस्थाओं का काम होता है, जिन्हें व्यक्ति ने इसकी जिम्मेदारी सौंपी होती है। आम भारतीय तो अपनी जिम्मेदारी टैक्स देकर पूरा कर देता है। बाकी जिम्मेदारी उनकी है जो करदाताओं की इस पूंजी पर ऐश करते हैं। कलाम साहब, सारी जिम्मेदारियां व्यक्ति पर डालकर आप अकर्मण्य और भ्रष्ट तंत्र को क्यों बचा रहे हैं? आप व्यक्ति की जिम्मेदारियों को तो गिना रहे हैं, लेकिन सरकारी संस्थाओं को लताड़ नहीं पिला रहे, जिनके मुखिया आप खुद रहे हैं?
वैसे कलाम साहब, आखिर में एक बात कहना चाहूंगा कि निरपेक्ष सत्य जैसी कोई चीज़ नहीं होती। आप व्यक्ति की जिन जिम्मेदारियों की बात कर रहे हैं, वे यकीनन सही हैं, लेकिन उस समाज में जब राजसत्ता का विलोप हो जाएगा, स्टेट-लेस सोसायटी बन जाएगी। उसी तरह जैसे यह नीति वाक्य कि मेहनत करे इंसान तो क्या चीज़ है मुश्किल, अवसरों की समानता देनेवाले किसी विकसित देश के लिए 100 % सच है, लेकिन भारत जैसे असमान अवसरों वाले देश के लिए यह महज एक अधूरा सच है।
पुनश्च : कृपया राष्ट्रपति कलाम के संदेश और इस टिप्पणी को पढ़ने के बाद साइडबार में पेश सवाल का जवाब ज़रूर दें, ऐसी मेरी गुजारिश है। शुक्रिया...

Monday 16 July, 2007

महामहिम की नसीहत

अगले मंगलवार, 24 जुलाई को राष्ट्रपति ए पी जे अब्दुल कलाम राष्ट्रपति भवन से विदा ले लेंगे। उन्होंने अभी कुछ दिन पहले ही हैदराबाद में एक भाषण दिया था, जिसे बाद में उन्होंने ई-मेल के जरिए लाखों लोगों को भेजा और उसे दूसरों को फॉरवर्ड करने को भी कहा। काका कलाम के उसी संदेश का हिंदी अनुवाद मामूली संपादन के साथ पेश कर रहा हूं। बहुतों को उनकी बातें एकदम वाजिब लग सकती हैं, लेकिन उनकी नसीहत इस नाचीज़ के गले नहीं उतरती। क्यों, ये बाद में, पहले महामहिम की नसीहत...
क्या आपके पास अपने देश के लिए 10 मिनट है? अगर हां, तो इसे पढ़ें, वरना जैसी आपकी मर्जी।
आप कहते हैं कि हमारी सरकार अक्षम है। आप कहते हैं कि हमारे कानून काफी पुराने पड़ चुके हैं। आप कहते हैं कि नगरपालिकाएं कचरा नहीं उठाती हैं। आप कहते हैं कि फोन काम नहीं करते, रेलवे मजाक बन गई है, एयरलाइन की हालत दुनिया में सबसे खराब है, चिट्ठियां कभी अपने पते पर नहीं पहुंचतीं। आप कहते हैं कि देश का सत्यानाश हो चुका है। आप कहते हैं और कहते ही रहते हैं। लेकिन आप इस बारे में करते क्या हैं?
मान लीजिए कि आप सिंगापुर जाते हैं। एयरपोर्ट से बाहर निकलते ही आप दुनिया की बेहतरीन सुविधाओं से रूबरू होते हैं। सिंगापुर में आप सिंगरेट के टुकड़े सड़क पर नहीं फेंकते। आप वहां मुंबई के माहिम कॉजवे या पेडर रोड जैसी ऑर्चर्ड रोड पर शाम को 5 से 8 बजे के बीच ड्राइव करते हैं तो 5 सिंगापुरी डॉलर (करीब 60 रुपए) अदा करते हैं। आप दुबई में रमजान के दौरान सार्वजनिक जगहों पर खाने की हिमाकत नहीं करते। आप जेद्दा में सिर को कपड़े से ढंके बिना निकलने की जुर्रत नहीं करते। आप लंदन में टेलिफोन एक्सचेंज के कर्मचारी को हर महीने 10 पौंड (650 रुपए) घूस इस काम के लिए नहीं दे सकते कि वह आपके एसटीडी और आईएसडी चार्जेज किसी दूसरे के बिल में डाल दे। आप वॉशिंग्टन में 88 किमी/घंटा से ज्यादा की स्पीड से ड्राइव नहीं करेंगे और फिर ट्रैफिक पुलिस से ये नहीं कहते कि जानता है मैं कौन हूं। ये ले सौ का पत्ता और फूट ले। आप ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के बीचों पर नारियल पानी पीने के बाद उसका खोल कचरे के डिब्बे के अलावा कहीं और नहीं फेंकते।
आप टोक्यो की सड़कों पर पान की पीक क्यों नहीं थूकते? आप बोस्टन में दलालों के जरिए फर्जी सर्टीफिकेट क्यों नहीं खरीदते? आप दूसरे देशों के विदेशी सिस्टम का पालन कर सकते है, उनका आदर कर सकते हैं, लेकिन अपने देश में ऐसा नहीं करते। भारत की धरती पर पहुंचते ही आप कागज या सिगरेट के टुकड़े कहीं भी सड़क पर फेंक देते हैं। अगर आप किसी गैर मुल्क में ज़िम्मेदार नागरिक बन सकते हैं तो अपने मुल्क भारत में आपको क्या हो जाता है?
हम चुनावों में वोट देकर सरकार चुनते हैं और फिर सभी जिम्मेदारियों से हाथ झाड़ लेते हैं। हम उम्मीद करते हैं कि सरकार हमारे लिए सब कुछ करे, जबकि खुद हमारा योगदान पूरी तरह नकारात्मक होता है। हम उम्मीद करते हैं कि सरकार सफाई करे, पर खुद सड़क पर पड़ा कागज का एक टुकड़ा भी उठाकर कचरापेटी में नहीं डालते। हम उम्मीद करते हैं कि रेलवे साफ बाथरूम मुहैया कराए, लेकिन खुद बाथरूम के सही इस्तेमाल का तरीका सीखने की जहमत नहीं उठाते। हम इंडियन एयरलाइंस और एयर इंडिया से चाहते हैं कि वो सबसे अच्छा खाना और साफ-सफाई की सुविधा दे, लेकिन ज़रा-सा मौका मिलते ही हम गंदगी फैलाने से बाज़ नहीं आते।
हम दहेज और बच्चियों की भ्रूण हत्या जैसी सामाजिक समस्याओं पर गरमागरम बहस करते हैं, लेकिन अपने घरों पर इसका ठीक उल्टा करते हैं। और बहाना क्या होता है? यही कि पूरा सिस्टम बदलना होगा। मैं अपने बेटे के लिए दहेज न लूं तो क्या फर्क पड़ जाएगा। ...तो ये सिस्टम आखिर कौन बदलेगा?
फिर, सिस्टम बनता किससे है? बेहद सुविधाजनक तरीके से हम मान लेते है इसमें हमारे पड़ोसी, हमारा मोहल्ला, दूसरे शहर, दूसरे समुदाय और सरकार आते हैं। लेकिन यकीनन, हम खुद नहीं आते। जब सिस्टम में वाकई सकारात्मक योगदान की बात आती है तो हम खुद को अपने परिवार के साथ सुरक्षित खोल में बंद कर लेते हैं। हम या तो उम्मीद पाले रहते हैं कि कोई मिस्टर क्लीन आएगा जो हाथ घुमाकर सारी समस्याओं को हल कर देगा या हम देश ही छोड़कर भाग खड़े होते हैं।
काहिल कायरों की तरह हम डरकर अमेरिका चले जाते है और उनके सिस्टम की तारीफ करते हैं। न्यूयॉर्क असुरक्षित हो जाता है तो इंग्लैंड का रुख कर लेते हैं। इंग्लैंड में बेरोज़गारी बढ़ती है तो हम अगली फ्लाइट पकड़ कर खाड़ी के देशों में पहुंच जाते हैं। जब खाड़ी में युद्ध छिड़ जाता है तो हम भारत सरकार से मांग करते हैं कि वह हमें सुरक्षित बाहर निकाले। हर कोई देश को गाली देता है। कोई सिस्टम को सही करने के बारे में नहीं सोचता। हमारा विवेक आज पैसों का गुलाम हो गया है।
प्यारे भारतवासियों, जे एफ कैनेडी ने जो बात अमेरिकियों से कही थी, वैसी ही बात मैं आपसे कहना चाहूंगा, ‘पूछो कि तुम देश के लिए क्या कर सकते हो और वह करो जिससे भारत को आज के अमेरिका या दूसरे पश्चिमी देशों जैसा बनाया जा सके।’
शुक्रिया...
डॉ. अब्दुल कलाम

Sunday 15 July, 2007

और, वह जा गिरा अष्टधातु के कुएं में

जहां तक मुझे याद है, उसका नाम चंदन था। छह साल पहले दिल्ली में एक बस स्टैंड पर उससे मेरी मुलाकात हुई थी। बस के लिए 45-50 मिनट के इंतजार के दौरान उसने अपनी मनोदशा का जो हाल बयां किया, वह मैं आज आपको सुना रहा हूं। इसे सुनने के बाद मुझे लगा था कि उसने या तो कोई सपना देखा था या वह पागल होने की तरफ बढ़ रहा है। आपको क्या लगता है, ये चंदन का हाल जानने के बाद जरूर बताइएगा।
एक सुबह चंदन अपने घर के ईशान कोण के कोने में आलथी-पालथी मारकर बैठा था कि तभी किसी ने उसे अष्टधातु से बने सीधे-संकरे और गहरे अतल कुएं में उठाकर फेंक दिया। गिरने की रफ्तार या फेंके जाने की आकस्मिता से वह इतना संज्ञा-शून्य हो गया कि जब तक वह कुएं की अंधेरी तलहटी से नहीं टकराया तब तक उसे यही लगता रहा, मानो उसका शरीर धातु की बनी कोई मूर्ति हो जो कुएं की दीवारों से टकरा कर खन, खनाखन, टन-टनटन करती हुई बिना टूटे-फूटे नीचे गिरती जा रही हो। कई दिन और रात तक गिरते रहने के बाद वह अष्टधातु के इस अतल कुएं की तलहटी में जा पहुंचा।
कुएं का तल एकदम सूखा था। सख्त फौलाद जैसी धातु से बना था वह। चौड़ाई बस इतनी थी कि वह दोनों हाथों की कोहनियां भर उठा सकता था। कुआं अंदर से सुघड़ ज्यामितीय आकार के बेलन जैसा था। उसकी गहराई का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि तल में बैठकर चंदन को ऊपर का सिरा दिन में रोशनी के एक चमकते बिंदु के माफिक दिखता था, जबकि रात में तो कोहनियों या टखनों से टकरा कर आती खन-टन की आवाजें ही उसे कुएं की मौजूदगी का, उसके धातु से बने होने का अहसास कराती थीं।
चंदन को इस भयंकर गहरे कुएं की तलहटी में अकेलापन तो लग रहा था, पर अकुलाहट बिलकुल नहीं हो रही थी। सांस तो ऐसे साफ चल रही थी मानो उसे शुद्ध ऑक्सीजन से भरे सिलिंडर में बैठा दिया गया हो। अकेलापन भी उसे परेशान करनेवाला नहीं था। वह ऐसा ही था जैसे घनघोर हवन से उठे धुएं में आप किसी को देख नहीं पाते हैं और आंखें बंद रखना आपकी मजबूरी बन जाती है।
चंदन को न भूख लगती थी, न प्यास। समय बीतता गया। वह कभी खड़ा होता तो कभी अपनी जगह पर घूम-घूम कर नाच लेता। इस तरह बीत गए तकरीबन छह महीने। अचानक एक दिन कहीं से निश्चित अंतराल पर विशालकाय घंटों के बजने की आवाज़ें आने लगीं। हर आवाज़ अपने आखिरी स्पंदन तक गूंजती रहती। झंकृत होती आवाजें उसके करीब आती गईं और तभी उसे लगा कि कुएं की तलहटी एकदम सधी गति से धीरे-धीरे ऊपर उठ रही है। दिन का वक्त था। कुएं के ऊपरी छोर पर रोशनी का बिंदु बड़ा होता गया। सूरज के डूबने में यही कोई एक घंटे बचे रहे होंगे, जब वह जहां से गिरा था, घर के उसी कोने पर पहुंच गया। दुनिया का कारोबार सहज ढंग से चल रहा था। जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो, जैसे वह कहीं गायब ही नहीं हुआ हो।
चंदन को लगा जैसे सूरज पर लगा ग्रहण छह महीने तक उस पर छाये रहने के बाद अब समाप्ति की ओर है। उसे सूरज पर बनी हीरा-जड़ित अंगूठी की आकृति साफ दिखाई दे रही थी। फिर से नौकरी पाने की उम्मीदें बलवती हो गई थीं। लेकिन वह सोचने लगा कि वह नौकरी पाने के लिए इतना बेचैन क्यों है? पैसे तो उसने इतने कमा लिए हैं कि वह राजधानी में कम से कम पांच साल ऐश से काट सकता है।
फिर, गांव की ज़मीन है, जहां वह जाकर मिट्टी का ज्यामितीय आकार का खुला-खुला बड़ा-सा घर बनाएगा, जिसके हर कमरे की छत पर वह मोटे कांच के टुकड़े लगाएगा। दिन भर घर के हर कमरे में सूरज की रोशनी और रात में लालटेन या ढिबरी का मद्धिम उजाला। बाहर बाग-बगीचे होंगे, तालाब होगा जिसमें बत्तख और मछलियां पाली जाएंगी। गांव के इस शांत-शीतल माहौल में वह बाकी उम्र पूरे सुकून से काट सकता है। लेकिन उम्र को काट ले जाना ही क्या जीवन का उद्देश्य रह गया है या इसका कोई और भी मतलब है। जो भी हो, नौकरी करना तो जीने का उद्देश्य नहीं हो सकता।
चंदन ने जब ये वाक्य कहा, तभी मेरी बस आ गई और मैं दूसरे दिल्लीवासियों की तरह बस की तरफ लपक गया, बिना कोई दुआ-सलाम किए।

Saturday 14 July, 2007

टिन-टिन टीना, बीन बजाना

टीना बहुत उदास करनेवाली चीज़ है। इसलिए उसे छोड़कर आइए बीन बजाते हैं। चौंकिए मत, इस धीर-गंभीर रघुराज का पतन नहीं हुआ है और वह किसी लड़की को छोड़कर नागिन को रिझाने की बात नहीं कर रहा है। मैं तो उन जुमलों की बात कर रहा हूं, जिन्हें पिछले कुछ सालों से दुनिया भर के बुद्धिजीवियों के साथ ही अपने अंग्रेजीदां बुद्धिजीवी भी चलाए हुए हैं। टीना का विस्तृत रूप है There is No Alternative, जबकि इस सोच को खारिज करनेवाले लोग कहते हैं कि विकल्प ज़रूर है और Build it Now, जिसका संक्षिप्त रूप है बीन।
मैं भी बीन वाली सोच का पैरोकार हूं और मानता हूं कि देश-दुनिया, समाज को बदलने के विकल्प मौजूद हैं, बशर्ते कोई उन्हें देखना चाहे। मसलन, देश में किसानों की सेज़ (स्पेशल इकोनॉमिक ज़ोन) की बात ही ले ली जाए। इसी हफ्ते केंद्र सरकार ने मुकेश अंबानी के चौथे एसईज़ेड को मंजूरी दे दी। संसद की स्थाई समिति ने नए एसईज़ेड की मंजूरी पर फ्रीज लगाने की सिफारिश की थी, लेकिन गुरुवार, 12 जुलाई को एक ही दिन में 27 एसईज़ेड को हरी झंडी दे गई। कुल मिलाकर देश भर में अभी तक 511 एसईज़ेड की तैयारी अलग-अलग चरणों में है। इन सभी का मालिकाना बड़ी कंपनियों के पास है और सरकार इनमें किसानों को मौत की नींद सुलाने की सेज सजा रही है। लेकिन किसान खुद भी एसईज़ेड बनाने की कुव्वत रखते हैं, इस विकल्प को सरकार देखना ही नहीं चाहती।
किसानों की असल कुव्वत का एक सच्चा नमूना पेश है। महाराष्ट्र में पुणे से करीब 40 किलोमीटर दूर है अवसारी खुर्द नाम का गांव। यहां के तकरीबन डेढ़ हजार किसानों ने ग्रामसभा की बैठक में सर्वसम्मति ने अपने गांव को एसईज़ेड में तब्दील करने का फैसला किया है। इसके लिए वो एक कंपनी बना रहे हैं जिसका नाम होगा, अवसारी खुर्द इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट प्राइवेट लिमिटेड। गांव के सभी किसान इस कंपनी के शेयरधारक होंगे और शुरुआती पूंजी के रूप में कहीं से एक-एक लाख रुपए जुटाकर लगाएंगे। किसानों की जमीन तो अलग से पूंजी के रूप में रहेगी ही। किसानों के इस प्रयास को अंजाम तक पहुचाने में मदद की है माहरट्टा चैंबर ऑफ कॉमर्स, इंडस्ट्रीज एंड एग्रीकल्चर ने।
इस चैंबर के प्रवक्ता सोपन भोर के मुताबिक, अवसारी खुर्द में एसईज़ेड बनाने की पूरी योजना केंद्र सरकार द्वारा तय सभी नियमों के हिसाब से बनाई गई है। गांव की कुल 6250 एकड़ जमीन का 40 फीसदी हिस्सा एसईज़ेड के लिए, 43 फीसदी हिस्सा खेती के लिए और 17 फीसदी हिस्सा रिहाइशी मकानों के लिए रखा गया है। करीब 2500 एकड़ के एसईज़ेड में ऑटोमोबाइल, इलेक्ट्रॉनिक्स, इलेक्ट्रिकल, केमिकल, इंफॉरमेशन टेक्नोलॉजी, फार्मास्युटिकल और बायो-टेक्नोलॉजी के साथ ही हॉर्टीकल्चर सेक्टर की कंपनियों को उद्योग चलाने का मौका दिया जाएगा। ग्रामसभा ने अपनी योजना में गोदामों से लेकर सड़कों और मॉल्स तक का प्रावधान भी रखा है।
गांव वालों का कहना है कि सरकार उनकी जमीन लेकर किसी बाहरी कंपनी को दे दे, इससे बेहतर ये है कि वो खुद ही औद्योगिकीकरण के बढते अवसरों का फायदा उठाएं। जरूरत भर की खेती करेंगे औद्योगिक तरीके से, साथ ही कंपनी भी चलाएंगे पूरे कारोबारी अंदाज में। इस तरह पुणे के इस अवसारी खुर्द गांव के किसानों ने आपसी रजामंदी के साथ एक विकल्प पेश किया है। उन्होंने अपना प्रस्ताव केंद्र और महाराष्ट्र सरकार के मंजूरी के लिए भेज दिया है। किसानों ने सरकार की तरफ टीना के खिलाफ बीना का विकल्प फेंका है। देखिए, सरकार करती क्या है।
वैसे आपको बता दूं कि रिटेल सेक्टर में कॉरपोरेट मॉल्स के आने के खिलाफ कुछ ही महीने पहले पंजाब में गुरदासपुर के दुकानदारों ने भी मिलकर अपना मॉल बनाने की पहल की है।

Friday 13 July, 2007

शास्त्रीजी ने ले ली अपनी क्लास

शरीर क्या है? क्षिति जल पावक गगन समीरा, पंच तत्व यह अधम शरीरा। ये तो छह-सात सौ साल पहले कही गई पुरानी बात है, नया क्या है? नहीं पता। क्यों नहीं पता? नहीं पढ़ा। पढ़ना चाहिए था ना!
प्राण क्या है? आत्मा ही प्राण है। आत्मा क्या है? परमात्मा का अंश। परमात्मा क्या है? नहीं पता। क्यों नहीं पता? सोचा नहीं। सोचना चाहिए था ना!
जीवन के लिए बुनियादी ज़रूरत क्या है? रोटी, कपड़ा और मकान। अरे बेवकूफ, मैं ये नहीं पूछ रहा। मेरा सवाल है कि जीवन की उत्पत्ति के लिए बुनियादी ज़रूरतें क्या हैं? पता है। अच्छा! कैसे? कल ही पढ़ा है। तो बताओ...
जीवन की उत्पत्ति के लिए बुनियादी ज़रूरतें हैं – पानी जैसा कोई एक तरल बायो-सॉल्वेंट, कार्बन आधारित मेटाबॉलिज्म, अणुओं की ऐसी व्यवस्था जो इवॉल्व कर सके, खुद को विकसित कर सके, और बाहरी पर्यावरण से ऊर्जा के आदान-प्रदान की क्षमता।
लेकिन क्या जीवन के लिए केवल यही शर्तें रह गई हैं?
...पता है, पता है, बताता हूं। अमेरिका की नेशनल रिसर्च काउंसिल की एक नई रिपोर्ट में कहा गया है कि धरती से भिन्न रूपों में भी जीवन का होना संभव है। जिन ग्रहों पर पानी और ऑक्सीजन नहीं है, वहां भी जीवन हो सकता है। हमें इस सोच से बाहर निकलना होगा कि जीवन जहां भी होगा, धरती के जीवन जैसा होगा या उससे संबधित ज़रूर होगा।
वैसे धरती पर विचित्र-विचित्र किस्म के जीव-जंतु हैं। कुछ ऐसे जीवाणु हैं जिन्हें सांस लेने के लिए ऑक्सीजन नहीं चाहिए, बल्कि वे ऑक्सीजन की उपस्थिति में मर जाते हैं। साल 2003 में ही एकल कोशिका वाले एक जीवाणु की खोज की गई है। स्ट्रेन-121 नाम का ये जीवाणु 120 डिग्री सेंटीग्रेट पर भी आराम से रह सकता है, बच्चे पैदा कर सकता है। ये वह तापमान है, जिस पर अस्पताओं में चीरने-फाड़ने के औजारों को स्टेरलाइज किया जाता है। समुद्र की तलहटी में हजारों गुना वायुमंडलीय दबाव के बीच भी जीव होते हैं, जबकि इस दबाव में सामान्य पानी का जहाज चाक की तरह चकनाचूर हो जाएगा। रूस में रेडियो-एक्टिव लीकेज के हादसे से गुजरे चेर्नोबिल इलाके में ऐसा बैक्टीरिया पाया गया है, जो इंसान को मारने लायक रेडिएशन से 10,000 गुना ज्यादा रेडिएशन में भी मजे से जिंदा रहता है।
शाबाश। अच्छी पढ़ाई की है। अब इसे पचाने की कोशिश करो। अपने जेहन में जीव, जीवन और शरीर की साफ सोच और चिंतन विकसित करो।

Thursday 12 July, 2007

धरती नहीं रोती, मगर कलपता है इंसान

भारत जैसी समृद्ध बौद्धिक और सांस्कृतिक विरासत वाले देश के एक अरब दस करोड़ मानुष, यानी एक अरब दस करोड़ दिल और दिमाग, एक अथाह मानव संपदा। प्राकृतिक संपदा का इस्तेमाल न करो तो उसकी पीड़ा मुखर नहीं होती क्योंकि उनकी जुबान नहीं है। लेकिन मानव संपदा का इस्तेमाल न करो तो वह कलसती है, कुढ़ती है, घुट-घुट कर आत्महंता हो जाती है। लोकतंत्र का मतलब ही होता है समाज और व्यक्ति के हित में प्राकृतिक और मानवीय संसाधनों का अधिकतम इस्तेमाल। जर्मनी में रहने के दौरान मैंने पाया कि किसी लोकतांत्रिक कल्याणकारी राज्य में कितनी संभावनाएं हो सकती हैं। मुझे पता चला कि कैसे कोई लोकतांत्रिक देश व्यक्ति के वजूद से जुड़ी सारी चिंताओं का जिम्मा ले लेता है और उससे उसकी काबिलियत के हिसाब से काम लेता है।
अपने यहां लोकतंत्र के नाम पर संसद, विधानसभाओं, शहरी स्थानीय निकायों और पंचायतों के चुनाव होते हैं। बहुमत-अल्पमत का ऐसा हिसाब-किताब है कि कुल 40 फीसदी वोट पाकर भी किसी पार्टी को विपक्ष में बैठना पड़ सकता है और 33 फीसदी के पासिंग नंबर पाकर भी कोई पार्टी सरकार बना सकती है। कई बार आनुपातिक प्रतिनिधित्व की बातें चलीं, जन-प्रतिनिधियों को वापस बुलाने के अधिकार की चर्चाएं भी उठीं, लेकिन हमारे लोकतंत्र को ऐसे सुझाव आज तक हजम नहीं हुए। लोकतंत्र का मतलब महज चुनाव नहीं होते, बल्कि निर्णय लेने में सक्रिय और सार्थक भागीदारी ही सच्चा लोकतंत्र ला सकती है।
हम तो ऐसा समाज चाहते हैं जो मानव के संपूर्ण विकास को सुनिश्चित करे, जिसमें हर किसी को अपने व्यक्तित्व के स्वतंत्र विकास का अधिकार हो, जिसमें हर कोई अपनी सृजनात्मक क्षमता का अधिकतम संभव विकास कर सके और एक लोकतांत्रिक समाज के हित में अपनी क्षमता के अनुरूप हरसंभव योगदान दे सके। मुझे लगता है कि ऐसा होना चाहिए। लेकिन क्या होना चाहिए और क्या है, अभी इसमें भारी फासला है। हमारी सृजनात्मक संभावना का पूरा विकास नहीं हो रहा है। हमारी क्षमताओं के मामूली अंश का इस्तेमाल हो पा रहा है, जबकि बाकी हिस्सा हमारे भीतर घमासान मचाता रहता है। मानव विकास की कोई तय और बंधी हुई सीमा नहीं है। इंसान कहां तक जा सकता है, हम इसकी सीमाओं से वाकिफ नहीं हैं। लेकिन जिस तरह ‘आकाश में कुहरा घना है, ये किसी की व्यक्तिगत आलोचना है’ उसी तरह इंसान में निहित असीम संभावनाओं की बात करना भी एक राजनीतिक वक्तव्य है, क्योंकि इसमें एक विकल्प की बात है, एक मंजिल की बात है, जिस तक पहुंचा जा सकता है।
सवाल ये है कि लोग अपनी क्षमता और संभावनाओं का विकास कैसे करें? कैसे इंसान का संपूर्ण विकास हो सकता है। जवाब है कि सार्वजनिक मामलों के प्रबंधन पर नियंत्रण, उसके निर्माण और उस पर अमल में लोगों की भागीदारी ही वो तरीका है जिसके किसी का व्यक्तिगत और सामूहिक विकास संभव है। सक्रिय, सचेत और संयुक्त भागीदारी से ही हर मानव की सृजनात्मक क्षमताओं का विकास हो सकता है।
लेकिन समाज के साथ-साथ अपने में भी बदलाव लाना जरूरी है। हमें राजनीतिक ताकत के इस्तेमाल के लिए खुद को अभी से तैयार करना होगा। हालात को बदलना है तो खुद को भी बदलना होगा। ये दोनों प्रकियाएं एक साथ चलती हैं, थोड़ा इधर-उधर हो सकता है। मगर पहले ये और बाद में वो की बात, नहीं चल सकती।

गांवों से शहर नहीं, राज्यों से केंद्र को घेरो

कितने अफसोस की बात है कि नक्सलवाद की जिस धारा से तीन-चार दशक पहले तक रेडिकल बदलाव की उम्मीद की गई थी, आज उसकी तरफ से कोई राजनीतिक वक्तव्य नहीं आते, आती हैं तो बस यही खबरें कि माओवादियों ने 24 को मार डाला तो 55 पुलिसवालों का सफाया कर दिया। शायद यही वजह है कि कल के नक्सली और आज के माओवादी महज लॉ एंड ऑर्डर की समस्या बनकर रह गए हैं। कुछ भावुक नौजवान, पीयूसीएल जैसे संगठनों से जुड़े लोग और जली हुई रेडिकल रस्सी की ऐंठनें भले ही उन्हें थोड़ी-बहुत अहमियत दें, लेकिन राजनीतिक रूप से वो अप्रासंगिक होते जा रहे हैं।
ये सच है कि माओवादियों का असर छ्त्तीसगढ़, उड़ीसा, झारखंड, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, बिहार से लेकर पूर्वी उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल के 154 जिलों तक फैला हुआ है। ये भी सच है कि जिन आदिवासियों के बीच इन्होंने अपनी पैठ बनाई है, वो उदारीकरण से पहले से लेकर बाद तक सामाजिक और आर्थिक रूप से अनाथ रहे हैं। ये भी सच है कि हमारी सरकारें जंगलों की खनिज संपदा बड़े भारतीय कॉरपोरेट घरानों और विदेशी कंपनियों के हवाले कर रही हैं और आदिवासियों को जीने के लाले पड़ गए हैं। ये भी सच है कि सल्वा जुदुम के नाम पर राज्य सरकारें विद्रोह के दमन के अमेरिकी मॉडल की नकल करते हुए हिंसा को बढ़ावा दे रही हैं।
लेकिन ये भी तो सच है कि गांवों से शहरों को घेरने का नारा देनेवाले आप लोग शहरों तक पहुंचने की बात तो छोड़ दीजिए, गांवों तक से निकल दूरदराज के जंगली-पहाड़ी इलाकों में सिमटते जा रहे हैं। किसी भी राष्ट्रीय मसले पर आप रटे-रटाए जुमलों को छोड़कर ऐसा कोई बयान नहीं देते जो लोगों को प्रासंगिक लग सके, सही लग सके। पुराने नक्सलियों में से लिबरेशन ग्रुप को छोड़ दिया जाए तो किसी ने भी राजनीति की मुख्य धारा में अलग छाप छोड़ने की कोशिश तक नहीं की है। आदिवासी इलाकों में समानातंर सरकार चलाई जा सकती है, वर्ग शत्रुओं को जन अदालत में सजा सुनाई जा सकती है। लेकिन अकेले इनके दम पर भारत की राजनीति को नहीं बदला जा सकता।
ऐसा नहीं कि इस देश में वामपंथी राजनीति की स्वीकार्यता नहीं है। मध्य वर्ग का बड़ा हिस्सा इनका समर्थक रहा है। इनकी ईमानदारी, त्याग और भ्रष्टाचार रहित सादगी भरे जीवन की लोग तारीफ करते हैं। उदारीकरण के बावजूद अब भी ज्यादातर मध्य-वर्गीय बुद्धिजीवी इनके साथ हैं। पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा की राजनीति में वामपंथ आज अपरिहार्य हो चुका है। यहां तक कि यूपीए सरकार पर वामपंथियों का दबाव सिर चढ़कर बोल रहा है।
मुंबई में बैठकर सुविधाजनक नौकरी करते हुए मुझे कोई उपदेश देने का हक तो नहीं बनता। लेकिन मैं सामान्यीकरण करते हुए कहूं तो नक्सली धारा के लोग या तो जंगलों में पलायन कर गए हैं या सीधे दिल्ली में हस्तक्षेप करने की कोशिश में लगे हैं। इनके बीच की कड़ी राज्यों पर कम ध्यान दे रहे हैं। ऊपर-ऊपर से देखने पर मुझे लगता है कि केंद्र की सत्ता के बजाय राज्यों की राजनीति पर कब्जा करना ज्यादा आसान है। बिहार में लिबरेशन और पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा में लेफ्ट फ्रंट का असर इसी ट्रेंड की तरफ इशारा करता है। राज्यों की राजनीति की अपनी जटिलताएं हैं और वर्ग-युद्ध को नज़रअंदाज कर सार्थक और स्थाई बदलाव नही किया जा सकता। लेकिन गांवों की ताकत के दम पर राज्य की सत्ता हासिल की जा सकती है। उत्तर प्रदेश में, दूसरे समीकरणों के जरिए ही सही, मायावती ने इसे करके दिखा दिया है।
ऐसे में मुझे लगता है कि गांवों से शहरों को घेरने और समानातंर सेना बनाने की रणनीति अब खुद को भ्रम में रखने के अलावा किसी और काम की नहीं है। रेडिकल लेफ्ट को व्यापक राजनीतिक गोलबंदी के जरिए राज्यों की राजनीति में अपना दखल बढ़ाना चाहिए। वैसे भी, ज़मीन से लेकर सुरक्षा तक के मामले राज्यों के अधीन आते हैं। इस तरह धीरे-धीरे देश के ज्यादातर राज्यों में रेडिकल लेफ्ट का कब्जा हो गया तो दिल्ली दूर नहीं रह जाएगी।

Wednesday 11 July, 2007

फ्रेम से बाहर निकलो, धारणाओं के गुलाम!

तुम्हारे साथ समस्या ये है कि तुम अपनी धारणाओं के गुलाम हो। एक बार जो धारणा बना ली, बस फिर वैसा ही देखते हो। दूर के लोगों से लेकर नजदीक के लोगों के बारे में तुम्हारा यही रवैया रहा है। मां-बाप, भाई-बहन से लेकर दोस्तों तक की जो इमेज अपने अंदर बैठा ली, उससे इतर देखने की जरा-सा भी जहमत नहीं उठाते।
दुनिया-समाज को बदलने की बात की, राजनीतिक व्यवस्था को आमूल-चूल बदलने की बात की, नई संस्थाओं को बनाने की बात की। लेकिन मौजूदा संस्थाओं को एक सिरे से नकार दिया। देखा ही नहीं कि वो क्या हैं, कैसी हैं। बस खारिज किया तो खारिज ही कर डाला। अरे, कोई भी नई संस्था वैक्यूम से जन्म लेगी क्या? हर सामाजिक-राजनीतिक संस्था बनते-बनते बनती है। नई संस्था तो पुरानी संस्था का ही परिवर्धित रूप होगी न! साइंस में भी कोई नया नियम पुराने को तोड़ता है तो उसी तरह जैसे किसी वृत्त के बाहर बड़ा वृत्त खींचकर पुराने को खत्म कर दिया जाता है। कानून को नहीं समझा तो नया कानून क्या बनाओगे?
असल में जिस तरह कोई नींद में चलनेवाला शख्स हाथ-पैर तो मारता है, लेकिन उसकी आंखें बंद रहती हैं, वही हाल तुम्हारा अब तक रहा है। आंखों में मिर्ची पड़ जाने के बाद जैसे कोई शख्स हाथ-पैर मारता है, मगर दुश्मन कहीं दूर खड़ा तमाशा देखता रहता है, तुम अभी तक यही तो करते रहे हो। मान्यवर, आंख मूंदकर तुम किससे लड़ रहे हो? ज़रा देखो तो सही कौन कहां खड़ा है? ये भी तो देखो कि कौन दुश्मन है और कौन हितैषी?
तुम वाकई कितने अजीब हो, तुम खुद नहीं जानते। सही-गलत की जो धारणा बन गई, सो बन गई। जो भी नई सूचनाएं मिलीं, उसे तुमने पुराने फ्रेम में ही फिट किया। कभी पुराने फ्रेम को तोड़कर नहीं आजमाया कि नई सूचनाएं किस नए पैटर्न को जन्म दे सकती हैं। असल में क्या कहा जाए। दोष तुम्हारा भी नहीं है। हर अर्जुन को कृष्ण जैसे सारथी की ज़रूरत होती है। मुश्किल ये है कि पूर्वाग्रहों को मिटाने के लिए कोई भी ऐसा गुरु नहीं मिल पाता जो अपना विराट रूप दिखाकर सारी भ्रांतियों का निराकरण कर दे।

महा को-ऑपरेटिव हैं यहां के नेता

मायावती ने उत्तर प्रदेश की 61 को-ऑपरेटिव चीनी मिलों को निजी हाथों में सौंपने का फैसला क्या किया, महाराष्ट्र के नेताओं को जैसे सांप सूंघ गया। मायावती ने तो यह फैसला इसलिए लिया क्योंकि राज्य की ये चीनी मिलें 2000 करोड़ रुपए के घाटे में डूब चुकी हैं और इन्हें 18,000 मजदूरों को तनख्वाह तक देने के लाले पड़ गए हैं। लेकिन महाराष्ट्र के नेता इसलिए खदबदा गए क्योंकि को-ऑपरेटिव आंदोलन की मलाई काटकर उन्होंने करोड़ों कमाए हैं और अगर को-ऑपरेटिव मिलों पर हमला हुआ तो उनकी सारी मौज-मस्ती मिट जाएगी, सारा साम्राज्य डूब जाएगा।
इसकी एक बानगी पेश है। महाराष्ट्र में को-ऑपरेटिव आंदोलन के प्रणेता रहे हैं विट्ठल राव विखे-पाटिल। इन्होंने 1950 में देश की पहली को-ऑपरेटिव चीनी मिल अहमदनगर जिले में लगाई थी। बाद में उन्होंने पल्प और पेपर मिल, बायोगैस प्लांट, केमिकल प्लांट और डिस्टिलरी भी लगा डाली। 1964 में इस परिवार ने प्रवरा एजुकेशन सोसायटी बनाई, जो इस समय आर्ट्स, साइंस और कॉमर्स ही नहीं, मेडिकल, इंजीनियरिंग, होमसाइंस और बायोटेक्नोलॉजी तक के कॉलेज चलाती है। विट्ठल राव भगवान को प्यारे हो गए तो उनके बेटे बालासाहेब ने उनका राजकाज संभाल लिया। इनकी छत्रछाया में प्रवरा समूह ने 1972 में मेडिकल ट्रस्ट बना डाला, जो 800 बिस्तरों का अस्पताल चलाता है। इसके अलावा 1975 में एक को-ऑपरेटिव बैंक भी खोल डाला। इस परिवार की कुल संपत्ति आज करोड़ों में है।
विखे-पाटिल परिवार राजनीतिक रूप से अहमदनगर जिले में अजेय माना जाता है। बालासाहेब विखे-पाटिल आठवीं बार लोकसभा में चुनकर पहुंचे हैं, जबकि उनका बेटा यानी विट्ठल राव का नाती राधाकृष्ण विखे-पाटिल तीसरी बार शिरडी के विधायक हैं और ये महोदय 1998 में महाराष्ट्र सरकार में कृषि मंत्री भी रह चुके हैं। बालासाहेब विखे-पाटिल कांग्रेस छोड़कर एक बार शिवसेना में गए और 1999 में एनडीए सरकार में वित्त राज्यमंत्री और 2002 में भारी उद्योग के मंत्री रहे। 2004 में कांग्रेस में उनकी वापसी हो गई।
इस परिवार की एक और उपलब्धि सचमुच चौंकानेवाली है। इस परिवार ने 1969 में मुळा प्रवरा इलेक्ट्रिसिटी को-ऑपरेटिव सोसायटी नाम की एक बिजली वितरण संस्था बनाई थी, जो अहमदनगर जिले की श्रीरामपुर और राहुरी तहसीलों के 183 गांवों में बिजली बांटने का काम करती है। सोसायटी महाराष्ट्र राज्य बिजली बोर्ड (एमएसईबी) से बिजली खरीदकर गांववालों को बेचती है। लेकिन इसने एमएसईबी को खरीदी गई बिजली के 380 करोड़ रुपए नहीं चुकाए हैं। पैसे लौटाने की बात तो छो़ड़िए, सोसाइटी बोर्ड की किसी नोटिस तक की परवाह नहीं करती। परिवार के राजनीतिक रसूख के चलते सरकार ने भी इस पर कोई कार्रवाई नहीं की। आखिरकार बोर्ड ने जब बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर बेंच में अर्जी लगाई तो कोर्ट ने इस सोसायटी को खत्म करने का आदेश दे दिया। मगर, इस आदेश के खिलाफ अपील हो गयी तो मामला जहां का तहां अटक गया।
तो ये है महाराष्ट्र में ठीक आजादी के बाद जनता के नाम पर शुरू किए गए को-ऑपरेटिव आंदोलन का हश्र। उस समय किसानों और गांववालों की मदद के नाम पर नेताओं को स्कूल, चीनी मिल, दूध और बैंक की को-ऑपरेटिव सोसाय़टी बनाने के लिए कौड़ियों के दाम सरकारी ज़मीन दी गई। जब ये को-ऑपरेटिव्स चलने लगीं तो उन्हें चलानेवाले अपने इलाके में सत्ता के केंद्र बन गए। को-ऑपरेटिव के सदस्य इन नेताओं के बंधुआ मतदाता बन गए। किसानों की किस्मत इनके हाथों में कैद हो गई।
इनके खिलाफ आज कोई भी राजनीतिक दल आवाज़ नहीं उठाता क्योंकि हर दल के सदस्य या तो खुद को-ऑपरेटिव की मलाई काट रहे हैं या काटने की फिराक में हैं। महाराष्ट्र में एनसीपी के अध्यक्ष शरद पवार से लेकर शायद ही कोई ऐसा नेता हो जिसने सहकारिता के नाम पर करोड़ों का साम्राज्य नहीं खड़ा किया है। ऐसे में अगर यूपीए की राष्ट्रपति पद की प्रत्याशी प्रतिभा ताई पर को-ऑपरेटिव आंदोलन के दोहन का आरोप लगता है तो वह कहीं से भी अतिरंजित नहीं है। लेकिन जब कांग्रेस के प्रवक्ता प्रियरंजन दासमुंशी प्रतिभा पाटिल के कसीदे काढ़ते हुए कहते हैं कि ताई ने अपना करियर को-ऑपरेटिव आंदोलन से शुरू किया था, तो हंसी भी आती है और गुस्सा भी। आखिर यह बात कहकर आप प्रतिभा ताई को बचाना चाहते हैं या साबित करना चाहते हैं कि वो भी सहकारिता की मलाई से उतनी ही पुती हैं जितना महाराष्ट्र का कोई और नेता।
स्रोत : इंडियन एक्सप्रेस में महा-नेक्सस शीर्षक से छपा रक्षित सोनावणे का लेख

Monday 9 July, 2007

बातों का रफूगर हूं, पैबंद नहीं लगाता

देश के हर छोटे-बड़े शहर, गली-मोहल्ले और कस्बे में आपको लंबी-चौड़ी हांकने वाले मिल जाएंगे। प्रेस क्लब में बैठनेवाले पत्रकारों ने तो लगता है हांकने का पूरा टेंडर ले रखा है। रात के 9 बजे तक दो-तीन पैग चढ़ाने के बाद अदना-सा पत्रकार भी आपको सीधे 10 जनपथ तक अपनी पहुंच बताएगा। कुछ बताएंगे कि राहुल गांधी ने उन्हें अपना सलाहकार बना रखा है। वैसे, अपने देश में ये सिलसिला आज से नहीं, सालों से नहीं, सदियों से चल रहा है। ‘भारतवर्षे भरतखण्डे जंबू द्वीपे’ में हांकनेवालों की कमी नहीं रही है। एक राजा खुद बड़ा हांकू था। वह भेष बदलकर अपने राज्य में घूम रहा था कि एक आदमी फेरीवाले की तरह चिल्ला-चिल्ला कर बोल रहा था – बातों का रफूगर, बातों का रफूगर। राजा ने उसका पता-ठिकाना लिया और अगले दिन सिपाहियों को भेजकर उसे दरबार में बुला लिया।
राजा ने पूछा - सुनते हैं कि तुम बातों के रफूगर हो। उसने कहा – हां। राजा ने कहा – ठीक है। मैं तुम्हें कुछ वाकये सुनाता हूं। तुम उनका रफू करो और नहीं कर सके तो तुम्हें शूली पर चढ़ा दिया जाएगा। उसने कहा – सुनाइए हुजूर, मैं तैयार हूं।
राजा ने पहला किस्सा सुनाया – एक बार मैं शिकार करने गया। जंगल में पहुंचा तो शेर सामने था। मैंने धनुष पर तीर चढ़ाकर चला दिया। तीर शेर के पंजे में लगकर कान से बाहर निकल गया। रफूगर, करो इसका रफू।
रफूगर बोला – इसमें क्या है। जब आपने तीर चलाया तो शेर पंजे से अपना कान खुजला रहा था।
राजा ने कहा - अब दूसरा किस्सा सुनो। मैं फिर शिकार खेलने गया। जंगल पहुंचा तो वहां आग लगी थी। आग से सभी जानवर भाग रहे थे। शेर भी जंगल से भाग रहा था। मैंने धनुष पर तीर चढ़ाकर उस पर वार किया। शेर आग के बावजूद जंगल में वापस कूद गया और जलकर मर गया।
रफूगर बोला – राजा साहब, इसके जवाब से पहले मैं आपसे एक सवाल पूछना चाहता हूं। अगर आपकी मौत तय हो तो आप अपने राज्य में मरना पसंद करेंगे या बाहर।
राजा ने कहा – जाहिर है अपने राज्य में।
- तो हुजूर, जैसे आप अपने राज्य के राजा हैं, वैसे ही शेर भी जंगल का राजा था। आपके तीर से उसकी मौत तय थी और आग से भी मरना तय था। तो, उसने सोचा कि जब मरना ही है तो अपने राज्य में क्यों न मरा जाए।
राजा उस रफूगर के जवाब से संतुष्ट हो गए। उन्होंने कहा, अब तीसरा किस्सा सुनो। अगर कायदे से रफू न किया तो तुम्हारी मृत्यु निश्चित है।
राजा ने बोलना शुरू किया – एक बार मैं फिर शिकार करने गया। शेर मुझे देखकर भागने लगा। मैंने धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाकर उस पर तीर छोड़ दिया। तीर शेर के पीछे लग गया। कभी शेर आगे तो कभी तीर आगे। कभी तीर आगे तो कभी शेर पीछे। करो, इसका रफू...
रफूगर ने बिना कुछ सोचे-समझे फौरन हाथ जोड़ लिया। झुककर बोला – हुजूर, गुस्ताखी माफ हो। मैं बातों का रफूगर हूं, पैबंद नहीं लगाता।
राजा ने उसे डांट कर भगा दिया यह कहते हुए कि तुम 21वीं सदी के भारत में पत्रकार नहीं बन सकते।

न कौओं की जमात, न हंसों का झुंड

आज जतिन गांधी बन चुके मतीन शेख को फिर बड़ी शिद्दत से लगने लगा कि समाज में सभी की अपनी-अपनी गोलबंदियां हैं। सभी अपने-अपने गोल, अपने-अपने झुंड में मस्त हैं। कहीं कौए मस्त हैं तो कहीं हंस मोती चुग रहे हैं। लेकिन वह किसी गोल में नहीं खप पा रहा। सच कहें तो वह न अभी न पूरा हिंदू बना है, न ही मुसलमान रह गया है। बहुत ज्यादा कामयाब नहीं है, लेकिन खस्ताहाल भी नहीं है। फिलहाल हालत ये है कि न तो वह कौओं की जमात में शुमार है और न ही हंसों के झुंड का हिस्सा बन पा रहा है। ये भी तो नहीं कि उसके बारे में कहा जा सके कि सुखिया सब संसार है खावै और सोवै, दुखिया दास कबीर है जागै और रोवै। फिर वह आखिर चाहता क्या है?
जतिन गांधी ने बाहर जाकर सैलून में दाढ़ी-मूछ साफ करवाई। अपना चेहरा आईने में देखकर मुंह इधर-उधर टेढ़ा करके थोड़े मज़े लिए। नहाया-धोया। खाया-पिया और बिस्तर पर आकर लेट गया। लेकिन उसके तमाम सवाल अब भी अनुत्तरित थे। वह सोचने लगा कि आखिर उसके भारत में पैदा होने का मतलब क्या है? अगर इसका ताल्लुक महज पासपोर्ट से है तो चंद पन्नों के इस गुटके को पांच-दस साल बिताकर दुनिया के किसी भी देश से हासिल किया जा सकता है। अगर ये महज एक भावना है, इमोशन है तो बड़बोले लालू का भारत, चिंदबरम का भारत निर्माण और मनमोहन सिंह की इंडिया ग्रोथ स्टोरी उसे अपनी क्यों नहीं लगती? मुलायम के समाजवादी स्वांग, अमर सिंह के फरेब, तोगड़िया-आडवाणी या नरेंद्र मोदी के मुस्लिम विरोध का वह भागीदार कैसे बन सकता है? उसे तो भारत के नाम पर अपने अब्बू-अम्मी और सबीना नज़र आती हैं। अपने दोस्त दिखते हैं। अब्बा का सितार दिखता है। घर से सटा पीपल-जामुन का पेड़ दिखता है।
मगर, उसने खुद से सवाल पूछा कि क्या देश अपने अवाम और भूगोल का समुच्चय भर होता है? खुद ही जवाब भी दे डाला – कोई भी देश संविधान, सेना, सुरक्षा तंत्र और सरकार को मिलाकर बनता है। किसी का अमूर्त देश कुछ भी हो, लेकिन असल देश तो यही सब चीजें हैं जिनसे अभी तक उसका कोई तादात्म्य नहीं बन पाया है। जतिन गांधी ये सब सोच-सोचकर खुद को और ज्यादा अलग-थलग महसूस करने लगा। उसे लगा कि वह अपने वतन में रहते हुए भी निर्वासित है। दोनों हाथों की उंगलियों से सिर के बालों को खींचकर खुद से झल्लाकर बोला – मैं स्टेडियम में बैठकर क्रिकेट मैच देखनेवालों में शुमार क्यों नहीं हूं? ऐसे ही उमड़ते-घुमड़ते कई सवालों ने नए-नए हिंदू बने जतिन गांधी का पीछा नहीं छोड़ा। उसकी हालत पुनर्मूषको भव: वाली थी। जहां से शुरू किया था, वहीं घूम-फिर कर वापस आ गया था।
जतिन पहाड़गंज के उस होटल में करीब दस दिन तक रहा। इस दौरान कई बार उसके मन में आया कि अम्मी के पास लौट जाए, अब्बू से माफी मांग ले। ये न हो सके तो सबीना के पास ही चला जाए। लेकिन उसने ऐसा कुछ नहीं किया क्योंकि कदम आगे बढ़ाकर इतनी जल्दी पीछे खींच लेना, किसी काम को अंजाम पर पहुंचाए बिना छोड़ देना उसकी फितरत में नहीं था।
उसके पास लंदन वापस लौटकर पुरानी नौकरी पर डट जाने का भी विकल्प खुला था, क्योंकि अभी तो तीन महीने में से उसकी बमुश्किल चालीस दिन की छुट्टी पूरी हुई थी। लेकिन इस विकल्प को उसने एक सिरे से खारिज कर दिया। वह फिलहाल अकेलेपन से निजात पाने के लिए खुद को भीड़ में खो देना चाहता था। लिहाजा मुंबई आ गया। किस्मत का धनी था। इसीलिए खुद को अक्सर ईश्वर का राजकुमार बताता था। मुंबई में एक इंफोकॉम कंपनी में अच्छी-खासी नौकरी मिल गई। वहीं पर एक प्यारी-सी लड़की पहले दोस्त बनी और दो साल बाद बीवी। संयोग से उसका नाम नुसरत जहां था। कुछ सालों बाद उनके घर किलकारियां गूंजी तो बच्ची का नाम रखा ज़ैनब गांधी। बच्ची की पहली सालगिरह पर उसने लंदन से अपने दो खास दोस्तों इम्तियाज़ मिश्रा और शांतुन हुसैन को भी सपरिवार बुलवाया था, आने-जाने की फ्लाइट का टिकट भेजकर।
इस तरह मतीन मोहम्मद शेख के जतिन गांधी बनने की कहानी एक सुखद मोड़ पर आकर खत्म हो गई। लेकिन उसकी असल जिंदगी यहीं से शुरू हुई। धर्म उसे कोई पहचान नहीं दे सका। पेशे और काबिलियत ने ही उसे असली पहचान दी। उसी तरह जैसे अजीम प्रेमजी के बारे में कोई नहीं सोचता कि वह कितने अजीम हैं और कितने प्रेमजी। जैसे कोई शाहरुख, सलमान या आमिर के मुस्लिम होने की बात सोचता ही नहीं। सलमान राम का रोल करें तो टीवी के आगे आरती करने में किसी को हिचक नहीं होगी। हां, जतिन को जिन चीजों ने पहचान दी, उनमें बंगाली, उर्दू, हिंदी और अंग्रेजी पर उसकी अच्छी पकड़ का भी योगदान रहा। इस दौरान वह कोलकाता या दिल्ली भी आता-जाता रहा। अम्मी-अब्बू और सबीना से मिला कि नहीं, ये पता नहीं है। लेकिन लगता है, मिला ही होगा। मुस्लिम होने की बात वह काफी हद तक भुला चुका है। लेकिन दंगों की बात सोचकर कभी-कभी वह घबरा जाता है कि कहीं दंगाइयों ने उसकी पैंट उतारकर उसके धर्म की पहचान शुरू कर दी तो उसका क्या होगा? खैर, जो होगा सो देखा जाएगा। जब ओखली में सिर दिया तो मूसल का क्या डर? ...समाप्त

Sunday 8 July, 2007

कितने कच्चे हैं खून के रिश्ते

असल में सबीना मतीन से बारह साल तीन महीने बड़ी है। वह अब्बू और अम्मी की पहली संतान है, जबकि मतीन को पेट-पोंछन कहा जाता था क्योंकि वह अपने मां-बाप की पांचवीं और अंतिम संतान है। अम्मी और सबीना दोनों ही उसे छुटपन से बेहद प्यार करती थीं। लेकिन सबीना ने बकइयां-बकइयां चलने से लेकर उसे अपने पैरों पर दौड़ना तक सिखाया है। ककहरा सिखाया, दुनिया-जहान का ज्ञान कराया। अब्बू को अपने संगीत कार्यक्रमों, देश-विदेश के दौरों और रियाज़ से कभी फुरसत ही नहीं मिली कि नन्हें (मतीन) के सिर पर हाथ फेरते। यहीं से कुछ ऐसी अमिट दूरी बन गयी कि मतीन अब्बू की बातों को सिर्फ चुपचाप सुनता था, लेकिन हमेशा उनकी बातों का ठीक उल्टा करता था। संगीत न सीखना इसकी एक छोटी-सी मिसाल है। अब्बू कहते रहे, लेकिन उसने कभी भी संगीत की तरफ हल्का-सा भी रुझान नहीं दिखाया। दूसरी तरफ अम्मी और सबीना की हर बात का पलटकर जवाब देना मतीन की जैसे आदत बन गयी। लेकिन आज सबीना की बात का उसे कोई जवाब नहीं सूझ रहा था। इसलिए उसने मुद्दे से हटे बगैर बात को हल्का करने की कोशिश की।
- एक खुदा से मेरी सांस घुटती है। न उसकी कोई सूरत है, न कोई मूरत। लेकिन यहां तो कहीं श्रीकृष्ण है, कहीं शंकर तो कहीं गदाधारी हनुमान। पूरे तैंतीस करोड़ देवता हैं। जिसको मन चाहे, अपना हमनवां बना लो, सहारा बना लो। ऊपर से चाहो तो और देवता भी गढ़ सकते हो।
- बरखुरदार, तुम भगवान का सहारा खोजने निकले हो या फैशन स्ट्रीट या मॉल में शर्ट खरीदने। खुद को और अपने सवालों को समझने की कोशिश करो। तुम्हारी समस्याएं नई हैं। इनका समाधान पीछे की सोच या दर्शन में कैसे हो सकता है। अगर राह चलते तुम्हारी कोई चीज खो गई तो तुम उसे पीछे लौटकर ढूंढ सकते हो। लेकिन तुम्हारा तो कुछ भी खोया नहीं है, बल्कि तुमने बहुत कुछ नया देखा और पाया है। तुम्हें नई उलझनों के तार सुलझाने हैं। आखिर क्यों पुराने रास्ते पर लौटकर इन्हें और उलझाना चाहते हो?
सबीना उस दिन सुबह से लेकर देर रात तक मतीन को तरह-तरह से समझाती रही। कभी प्यार से तो कभी गुस्से से। हालांकि उसका गुस्सा ज्यादातर बनावटी था। आखिर में उसने दो-टूक फैसला सुना दिया।
- तुम जाकर अब सो जाओ। कल भोर में मैं बाहर जा रही हूं। मतीन शेख बनकर रहे तो लौटकर आने पर मिलूंगी और जतिन गांधी बनने की जिद पर कायम रहे तो खुदा-हाफिज़। बस, उसके बाद समझना कि सारे रिश्ते खत्म। फिर मिलने भी कभी मत आना।
मतीन के सीने से एक हूक निकलकर गले से बाहर निकलने को हुई। आंखों के आंसू पलकों में पसीज आए। सबीना उठकर चली गई। लेकिन मतीन वहीं होंठ भींचकर भीतर ही भीतर कई घंटों तक बिलखता रहा।
मन में तरह-तरह के भाव, तरह-तरह की इमोशन का रंदा चल रहा था। मतीन कहीं अंदर से टूटने लगा।
- मेरी बहन तक मुझे नहीं समझ रही। जिसने मुझे गोंदी में खिलाया, उंगली पकड़कर चलना सिखाया, जिसकी बातों और किताबों ने मेरा नज़रिया बनाया, वही बहन आज मुझसे कभी न मिलने की बात कह रही है। सिर्फ इसलिए कि मैंने उसके मजहब को छोड़कर अलग मजहब अपनाने का फैसला कर लिया? क्या सचमुच खून के रिश्ते कच्चे इतने होते हैं, उनमें इतना बेगानापन छिपा होता है? लेकिन पहले तो ऐसा नहीं था।
मतीन को याद आया, तकरीबन पांच साल पहले का वो दिन, जब वह लंदन से रातोंरात फ्लाइट पकड़कर दिल्ली पहुंचा था। दोस्त का फोन आया था कि बहन अस्तपाल में उसका हाथ पकड़कर रोई थी कि किसी तरह नन्हें को बुला दो, मैं अब बचूंगी नहीं। उस समय सबीना को शादी के कई सालों बाद पहला बच्चा होनेवाला था। मतीन की नौकरी को अभी पंद्रह दिन भी नहीं हुए थे, लेकिन वह बगैर अपने करिअर की परवाह किए सचमुच उड़कर बहन के पास पहुंचा था। और, आज वही बहन खुदा-हाफिज़...
मतीन खुद को रोक न सका और फफक कर रो पड़ा। रात भी बाहर रो रही थी। घड़ी की सुइयां बिना रुके-टिके टिक-टिक कर नियत गति से घूमती रहीं। सबीना भोर में एयरपोर्ट के लिए निकली तो उसने घर के खास नौकर नदीम को हिदायत दी कि नन्हें जब तक घर में रहे, उसका पूरा ख्याल रखना। लेकिन नदीम ने बताया कि भैया तो करीब एक घंटे पहले ही अपना सामान लेकर चले गए। सबीना ने पलटकर नदीम की तरफ नहीं देखा। गाढ़े रंग का चश्मा लगाया और सीधे जाकर कार में बैठ गई, एयरपोर्ट चली गई।
मतीन बंगले के बाहर एक बड़े पेड़ की छाया में खड़ा था। सबीना की कार निकल गई तो वह भी निकल गया। पहुंच गया नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के पास पहाड़गंज के एक गुमनाम से होटल में। न कुछ खाया, न पिया। बस बिस्तर पर लेटे-लेटे खुद को समझाने में कोशिश में लगा रहा कि ज़िंदगी है, सब चलता है। अभी तो न जाने क्या-क्या होना बाकी है। इसलिए मन को इतना कमजोर करने की रत्ती भर भी जरूरत नहीं है। लेकिन सबीना की बातों ने उसके अकेलेपन के अहसास को बेहद नाजुक मोड़ तक, ब्रेक डाउन तक पहुंचा दिया था। यह एक ऐसा अहसास था जो पराए मुल्क में रहते हुए पहली बार उसके जेहन में आया था। थेम्स नदी के किनारे बैठे हुए उसे भोर का उगता सूरज भी पराया लगता था। यहां तक कि कांव-कांव करते कौए भी उसे अंग्रेजी बोलते दिख रहे थे। ऐसा लगा था कि इन कौओं और अपने भारत के कौओं की प्रजाति अलहदा है। जारी...

मियां, तुम होते कौन हो!

सबीना जिस तरह इतिहास को खारिज कर रही थी, उससे लगता था कि इतिहास से कहीं उसको कोई गहरा व्यक्तिगत गुरेज हो, जैसे किसी इतिहास से उसका बहुत कुछ अपना छीन लिया हो। वह बोलती जा रही थी।
- मैं तो कहती हूं कि बच्चों को तब तक इतिहास नहीं पढ़ाया जाना चाहिए, जब तक वे समाज को देखने-समझने लायक न हो जाएं। बारहवीं से भले ही इतिहास को कोर्स में रख दिया जाए, लेकिन उससे पहले बच्चों के दिमाग को पूर्वाग्रह भरी बातों से धुंधला नहीं किया जाना चाहिए। बच्चों को सेक्स पढ़ा दो, मगर इतिहास मत पढ़ाओ। उन्हें आज की हकीकत से जूझना सिखाओ, ज़िंदगी का मुकाबला करना सिखाओ, आगे की चुनौतियों से वाकिफ कराओ। बीती बातें सिखाकर कमज़ोर मत बनाओ। पुरानी बातों को लेकर कोई करेगा क्या? तुमने तो साइंस पढ़ा है। दिमाग में न्यूरॉन्स मरते रहते हैं, नए नहीं बनते। स्टेम कोशिकाएं वही रहती हैं, लेकिन इंसान का बाहरी जिस्म, उसकी शरीर की सारी कोशिकाएं चौबीस घंटे में एकदम नई हो जाती हैं। तो...मन को नया करो, उसे अतीत की कंदराओं में निर्वासित कर देने का, गुम कर देने का क्या फायदा!
- मगर चमड़ी का रंग-रूप तो आपके इतिहास-भूगोल और खानदान से तय होता है। फिर... इंसान कोई तनहा अलग-थलग रहनेवाला जानवर नहीं है। उसका तो वजूद ही सामाजिक है। वह समाज से कटकर अकेला रह सकता है। समाज भी उसकी अनदेखी कर दे, लेकिन जो समाज उसके अंदर घुसा रहता है, वह उसे कभी नहीं छोड़ता। इंसान अपने दिमाग का क्या करे। वह तो सामाजिक सोच से बनता है। और...इंसान का आज तो गुजर गए कल की बुनियाद पर ही खड़ा होता है।
- ये तुम जो सामाजिक सोच और कल की बुनियाद की बात कर रहे हो, इसी की शिनाख्त में तो लोचा है। इसे तय करते हैं सत्ता के लिए लगातार लड़ रहे सामाजिक समूह। यहां कुछ भी अंतिम नहीं होता। आज गांधी सभी के माफिक पड़ते हैं तो सब उनकी वाह-वाह करते हैं। यहां तक कि हिंदुस्तान के बंटवारे के लिए गांधी को दोषी ठहराने वाले संघ परिवार ने भी सत्ता में आने के लिए गांधीवादी समाजवाद का सहारा लिया था। लेकिन हो सकता है कि देश में किसी दिन ऐसे लोगों की सरकार आ जाए जो दलाली के दलदल मे धंसी आज की राजनीति के लिए सीधे-सीधे गांधी नाम के उस महात्मा को जिम्मेदार ठहरा दे और हर गली-मोहल्ले, यहां तक कि संसद से गांधी की मूर्तियों को हटवा दे। क्या चीन और रूस में ऐसा नहीं हुआ कि माओ की तस्वीरें हटा दी गईं, लेकिन की कब्र को तोड़ दिया गया।
सबीना ने महात्मा शब्द को थोड़ा जोर देकर कहा था। मतीन समझ नहीं पाया कि वह गांधी की तरफदार है या निंदक। उसने पेज-थ्री की सेलेब्रिटीज में शामिल हो चुकी अपनी बड़ी बहन की बातों को खास तवज्जो नहीं दी। वह तो अपने में ही खोया हुआ था।
बोला – आपा, मुझे इससे मतलब नहीं है कि कल क्या होगा, या क्या हो सकता है। मुझे तो अपनी परवाह है। आज मुझे नींद में भी डर लगता है कि कोई मुझे दाढ़ी पकड़कर घसीटता हुआ ले जाकर हवालात में बंद कर देगा। फिर अनाप-शनाप धाराएं लगाकर मुझे आतंकवादी ठहरा देगा। सड़क पर घूमते हुए मुझे लगता है कि हर कोई मुझे ही घूर रहा है। मौका मिलते ही सादी वर्दी में टहल रहा कोई सरकारी एजेंट मुझे दबोच लेगा। और, इसके लिए मैं अपने नाम मतीन मोहम्मद शेख, अपने मजहब इस्लाम और अपने खानदान से मिली पहचान को गुनहगार मानता हूं। मैं अभी तक बेधड़क जीनेवाला शख्स था, किसी से भी डरता नहीं था। लेकिन आज हर वक्त अनजाने डर के साये में जीता हूं। आपा, मैं पूरी शिद्दत से ऊपर वाले की दी हुई ये खूबसूरत जिंदगी बेखौफ जीना चाहता हूं, बेवजह मरना नहीं चाहता।
- नन्हें मियां, इतनी बेमतलब और खोखली बातें मत करो। मियां, तुम होते कौन हो, उस मजहब और खानदान पर तोहमत लगानेवाले, जिसने तुम्हें तुम्हारी पहचान दी है। इनके बगैर तुम आज जो कुछ भी हो, वो कतई नहीं होते। रही, खौफ, बहादुरी और जज्बे की बात तो एक बात जान लो कि इसे पीछे तुम्हारे शरीर का बिगड़ा हुआ हार्मोनल बैलेंस है। तुम्हारा गुबार, तुम्हारी घबराहट, सारी जेहनी उठापटक और तुम्हारा अकेलापन, इस सारी सेंटीमेंटल चीजों को तय करते हैं तुम्हारे शरीर के हार्मोन्स।
मतीन पर जैसे घड़ों पानी पड़ गया। उसे लगा जैसे सरेआम चौराहे पर उसके सारे कपड़े उतार दिए गए हों। लगा, जैसे पांच फुट ग्यारह इंच का कद मोम की तरह पिघलकर सड़क किनारे गिरे हुए पत्तों के ढेर में गुम हो गया। वह सोचने लगा कि अगर ऐसा ही है तो उसका वजूद क्या है, उसके होने का मतलब क्या है। सब कुछ हारमोन्स ही तय करते है तो क्या वह कुदरत के हाथ की महज कठपुतली है? मतीन चाहकर भी इन बातों को हवा में नहीं उड़ा सका। ये बातें क्योंकि सबीना ने कही थीं, इसलिए इनकी अहमियत उसके लिए काफी ज्यादा थी। जारी...

Saturday 7 July, 2007

सात-सात-सात, कहां-कोई-साथ

मतीन ने अपने कागज-पत्तर संभाल लिए। एक सूटकेस, हैंडबैग...बस यही वह अपने साथ लेकर जानेवाला था। बड़े जतन से खरीदी गई ज्यादातर किताबें तक उसने वहीं अपने कमरे में छोड़ दीं। उसे पता था कि इस घर और इस कमरे में लौटना अब कभी नहीं होगा। फिर भी, उसने बहुत कुछ यूं ही बिखरा छोड़ दिया जैसे कल ही उसे लौटकर आना हो। वैसे, उसे ये भी यकीनी तौर पर पता था कि उसके चले जाने के बाद उसके कमरे में अम्मी के सिवाय कोई और नहीं आएगा, कमरे को उसके पूरे मौजूदा विन्यास के साथ किसी गुजर गए अपने की याद की तरह आखीर-आखीर तक सहेज कर रखा जाएगा।
यही कोई सुबह के चार-सवा चार बजे रहे होंगे, जब मतीन अपने कमरे से हमेशा-हमेशा के लिए नीचे उतरा। दिल्ली की गाड़ी सुबह आठ बजकर दस मिनट पर छूटती थी। लेकिन उससे घर में और ज्यादा नहीं रुका गया। नीचे उतरा तो अब्बू से लेकर अम्मी तक के कमरे की लाइट जली हुई थी। लेकिन कमरे में कोई नहीं था। अब्बू अम्मी को साथ लेकर कहीं चले गए थे। मतीन को लगा, ये अच्छा ही हुआ। नहीं तो बेवजह का रोनाधोना होता। वह वक्त से दो घंटे पहले हावड़ा स्टेशन पहुंच गया।
पुराना सब कुछ छोड़ने से पहले वह दिल्ली जा रहा था, अपनी बहन सबीना से मिलने क्योंकि वही तो है जो उसे इस घर में सबसे ज्यादा समझती है। सबीना राज्यसभा की सदस्य है। सरकारी बंगला मिला हुआ है। काफी पढ़ी-लिखी आधुनिक विचारों की है। पूरा दिन और पूरी रात के सफर के बाद वह सुबह जब दिल्ली पहुंचा तब तक उस्ताद अली मोहम्मद शेख उसे अपनी पूरी विरासत और जायदाद से बेदखल कर चुके थे। लेकिन इतना सब कुछ बदल जाने के बावजूद मतीन का घर का नाम नन्हें ही रहा।
सबीना हमेशा की तरह मतीन से दौड़कर नहीं मिली। उसने उसे आधे घंटे से भी ज्यादा इंतजार करवाया। असल में सबीना को भी सारा कुछ जानकर काफी ठेस लगी थी। अब्बू और अम्मी ने इस सिलसिले में उससे कई बार बात की थी। इसलिए आज वो मिलना चाहकर भी मतीन से नहीं मिलना चाहती थी। शायद अपने दिल के जज्बातों को संभालने के लिए थोड़ा वक्त चाहती थी। वैसे, बंगले के अंदर से बाहर दीवानखाने में आई तो पुराने अंदाज में ही बोली - तो नन्हें मियां को बहन की याद आ ही गई।
मतीन जैसे भरा बैठा था। इतनी मामूली-सी अपनापे की बोली सुनकर फफक कर रो पड़ा। सबीना भी अपने आंसू नहीं रोक पाई। करीब आधे घंटे तक प्यार-दुलार चलता रहा। फिर करीब एक घंटे तक मुंह-हाथ धोने और चायपानी का सिलसिला चला। इसके बाद फौरन असली मुद्दे पर बातचीत शुरू हो गई। सबीना ने दिन भर के सारे अप्वॉइंटमेंट रद्द कर दिए। बात चलती रही, लगातार। खूब जिरह हुई। लेकिन सबीना पर मतीन के तर्कों का कोई असर नहीं हुआ।
मतीन कह रहा था - मैं अपने इतिहास को इतना छोटा नहीं कर सकता। हम भले ही मुसलमान हो गए लेकिन अपना इतिहास तो काटकर नहीं फेंक सकते। क्या मोहम्मद साहब से पहले हमारी कोई वंशबेल नहीं थी? हम वेद, उपनिषद, महाभारत, गीता, रामायण या बुद्ध और महावीर को कैसे नकार सकते हैं? क्या मोहनजोदड़ो या हड़प्पा की सभ्यता से हमारा कोई वास्ता नहीं है? क्या हम कहीं आसमान से टपक कर नीचे आ गिरे? मैं खुद को इतना छोटा, इतना अकेला नहीं महसूस करना चाहता, न ही मैं ऐसा अब और ज्यादा कर सकता हूं।
लेकिन सबीना ने मतीन की बातों को फूंक मारकर उड़ा दिया।
- तुमसे किसने कह दिया कि इस्लाम धर्म में रहकर तुम छोटे और अकेले हो जाते हो। इस्लाम किसी को उसकी विरासत से अलग नहीं करता। अपने को दलित मानो या ब्राह्मण, इसकी आजादी तुम्हें है। हम तो आदम-हौवा से अपनी शुरुआत मानते हैं। पैगंबर मोहम्मद तो बस दूत थे, एक कड़ी थे। फिर हिंदू बनने की बात करते हो तो चले जाओ पाकिस्तान, क्योंकि सिंधु नदी अब वहीं बहती है और सिंधु नदी के किनारे बसने वालों को ही हिंदू कहा जाता था। वैसे, इन बातों से अलग हटकर मेरा मानना है कि इतिहास कुछ नहीं होता। इतिहास, खानदान या जिसे तुम वंशबेल कह रहे हो, इनकी बातें असल में वहीं तक सही हैं, जहां तक इनकी याददाश्त हमारे जींस में दर्ज होती है। बाकी सारा इतिहास तो सत्ता का खेल है। सत्ता के दावेदार अपने-अपने तरीके से इतिहास की व्याख्या करते हैं। बच्चों को वही पढ़वाते हैं, उनके दिमाग में वही भरवाते हैं, जो उनके माफिक पड़ता है।
सबीना ने मतीन के सिर पर हाथ फेरते हुए बड़े प्यार से कहा - नन्हें मियां, बावले मत बनो। इतिहास-उतिहास कुछ नहीं होता। इतिहास की टूटी कड़ियों या अतीत की याददाश्त की बातें अपने जींस पर छोड़ दो। बाकी सब बकवास है, दिमाग का फितूर है।
मतीन ने दोनों हाथों की उंगलियां आपस में फंसाकर चटकाईं, दीवारों पर जहां-तहां नज़र दौड़ाई। उसे कहीं गहरे अहसास हो गया कि बहन भी उसका साथ नहीं देनेवाली। जारी...

रात के तीसरे पहर रो उठा सितार

उधर नोटिस छपते ही ये खबर अखबारों की सुर्खियां बन गई। उस्ताद के पास फोन पर फोन आने लगे। रिश्तेदारों से लेकर नेताओं और संगीतकार बिरादरी तक में कुतूहल फैल गया। पूरा तहलका मच गया। उस्ताद ने आखिरी कोशिश की और मतीन की अम्मी को उसे बुलाकर लाने को कहा।
आपको बता दें कि अम्मी का नाम कभी मेहरुन्निशा खातून हुआ करता था। लेकिन शादी के बीते चालीस सालों में उनका नाम मतीन की अम्मी, असलम की बुआ और सईद की खाला ही बनकर रह गया है। उस्ताद किसी जमाने में उन्हें बेगम कहकर बुलाते थे। लेकिन मतीन के जन्म, यानी पिछले तेइस सालों से मतीन की अम्मी ही कहते रहे हैं। मेहरुन्निशा का कद यही कोई पांच फुट एक इंच था, उस्ताद से पूरे एक फुट छोटी। दूसरी बंगाली औरतों की तरह उस नन्हीं जान ने कभी पान नहीं खाया। हां, उस्ताद के लिए पनडब्बा ज़रूर रखती थी। बच्चों के अलावा किसी ने बगैर पल्लू के उनका चेहरा नहीं देखा। हमेशा उस्ताद के हुक्म की बांदी थी। लेकिन आज मतीन के पास वे उस्ताद के हुक्म से ज्यादा अपनी ममता से खिंची चली गईं।
- नन्हकू, तू हमेशा मुझसे दूर रहा। कभी पढ़ाई के लिए तो कभी नौकरी के लिए। फिर भी दिल को तसल्ली रहती थी। लगता था कि तू पास में ही है। कभी न कभी तो आएगा। लेकिन इस बार तूने कैसा फासला बना लिया कि कोई आस ही नहीं छोड़ी।
- नहीं, अम्मी। बस यूं ही...
मतीन ने अम्मी का हाथ पकड़ कर कहा। लेकिन हाथ झटक दिया गया। अम्मी की आवाज़ तल्ख होकर भर आई।
- क्या हम इतने ज्यादा गैर हो गए कि एक झटके में खर-पतवार की तरह उखाड़ फेंका। एक बार भी नहीं सोचा कि इन तन्हा मां पर क्या गुजरेगी।...फिर, तू अकेला कहां-कहां भटकेगा, कैसे सहन कर पाएगा इतना सारा कुछ। ये सोचकर ही मेरा कलेजा चाक हुआ जाता है।
ये कहते हुए मेहरुन्निशा के आंसू फफक कर फूट पड़े। अंदर का हाहाकार हरहरा कर बहने लगा। मतीन ने खुद को संभाला, अट्ठावन साल की मेहरुन्निशा खातून को संभाला।
- अम्मी, तू मेरी फिक्र छोड़ दे। सहने की ताकत मैंने तुझी से हासिल की है। फिर, मैं कहीं दूर थोड़े ही जा रहा हूं। जब चाहे बुला लेना। अम्मी यह मेरी लड़ाई है। मुझे ही लड़ने दे। मुझे कमज़ोर मत कर मेरी अम्मा।
अम्मी ने आंसू पोंछ डाले। पल्लू सिर पर डाला और बोली - चलो, अब्बू से मिल लो। नीचे बुलाया है।
मतीन नन्हें बच्चे की तरह मां के पीछे-पीछे दूसरी मंजिल पर अब्बू के उस कमरे में पहुंच गया, जहां वो सितार की तान छेड़ा करते थे, रियाज़ किया करते थे। अब्बू पिछले कई घंटे से वहीं बैठे हुए थे।
- तो जतिन गांधी, कल तक हमारे रहे मतीन मियां, सब कायदे से सोच लिया है न।
लेकिन मतीन की जुबान पर जैसे ताले लग चुके थे।
- मतीन, आखिरी मर्तबा मेरी बात समझने की कोशिश करो। तुम तहजीब और मजहब में फर्क नहीं कर रहे। काश, तुमने मेरा कहा मानकर संगीत में मन लगाया होता तो आज इतने खोखले और कन्फ्यूज नहीं होते। तहजीब ही किसी मुल्क को, किसी सभ्यता को जोड़कर रखती है। वह नदी की धारा की तरह बहती है, कहीं टूटती नहीं। मजहब तो अपने अंदर की आस्था की चीज़ है, निजी विश्वास की बात है। मुश्किल ये है कि तुम्हारे अंदर से आस्था का भाव ही खत्म हो गया है। न तुम्हें खुदा पर आस्था है और न ही ख़ुद पर। मजहब बदलने से तुम्हारी कोई मुश्किल आसान नहीं होगी। तुम्हारे किसी सवाल का जवाब नहीं मिलेगा।
- अब्बू, आप जैसा भी सोचें, आपको कहने का हक है। लेकिन मेरे सामने पूरी ज़िंदगी पड़ी है। मुझे तो लड़-भिड़ कर इसी दुनिया-जहां में अपनी जगह बनानी है। मैं अपनी ताकत इस लड़ाई में लगाना चाहता हूं। फिजूल की परेशानियों में इसे जाया नहीं करना चाहता। बस...मैं आपसे और क्या कहूं?
उस्ताद तैश में आ गए।
- तो ठीक है। कर लो अपने मन की। मुझे भी अब तुमसे कुछ और नहीं कहना है। बड़ा कर दिया। पढ़ा-लिखा दिया। काबिल बना दिया तो उड़ जाओ इस घोंसले से क्योंकि तुम्हारा यहां मन नहीं लगता, तुम्हारे लिए यह तंग पड़ता है। छोड़ जाओ, इस फकीर और उस तन्हा औरत को, जो सिर्फ तुम्हीं में अपनी जन्नत देखती रही है। कौन रोक सकता है तुम्हें....
- अब्बू, इमोनशल होने की बात नहीं है। मेरी अपनी जिंदगी है, मुझे अपनी तरह जीने दें।
- तो जी लो ना। इमोशन का तुम्हारे लिए कोई मतलब नहीं तो ये भी समझ लो कि ये तुम जो ऐशोआराम झेलते रहे हो, ये जो पुश्तैनी जायदाद है, इसमें अब तुम्हारा रत्ती भर भी हिस्सा नहीं रह जाएगा।
- अब्बू, उतर आए न आप अपनी पर। आप तो गुजरात की उस रियासत से भी गए गुजरे निकले जिसने अपने बेटे के गे (समलैंगिक) हो जाने पर उसे सारी जायदाद से बेदखल कर दिया था। अरे, मैं कोई गुनाह करने जा रहा हूं जो आप मुझे इस तरह की धमकी दे रहे हैं।
अब अब्बू के बगल में बैठी अम्मी से नहीं रहा गया। वो पल्लू से आंसू पोंछते हुए तेजी से बाहर निकल गईं। उस्ताद के लिए थोड़ा संभलना अब जरूरी हो गया।
- मतीन बेटा, मुझे अपनी नजरों में इतना मत गिराओ। तुम्हें जो करना है करो। बस, मेरी ये बात याद रखना कि बाहर हर मोड़ पर शिकारी घात लगाकर बैठे हैं। वो तुम्हें अकेला पाते ही निगल जाएंगे।
बाप-बेटे में बातचीत का ये आखिरी वाक्य था। अंतिम फैसला हो चुका था। मतीन को जाना ही था। विदा-विदाई की बेला आ पहुंची थी। उस दिन मतीन उर्फ जतिन गांधी अपने कमरे में पहुंचा तो रात के सवा बारह बज चुके थे। उस्ताद अली मोहम्मद शेख के परिवार में ऐसा पहली बार हुआ था कि सभी लोग इतनी रात गए तक जग रहे थे। नहीं तो दस बजते-बजते अम्मी तक बिस्तर पर चली जाया करती थी। ये भी पहली बार हुआ कि उस्ताद का सितार रात के तीसरे पहर तक किसी विछोह, किसी मान-मनुहार का राग छेड़े हुए था। जारी...