एक तो चोरी, ऊपर से जमींदारी!!
तथ्यों की दलदली जमीन पर दिमाग की गाड़ी धंसी जा रही है। इतिहास लिखू, अनुभव लिखूं या किसी रटी-रटाई सोच को दोहरा दूं। कोई एकल पैटर्न ही नहीं उभर रहा। कभी सोचता हूं कि कैसा नीरस विषय पकड़ लिया, न कमेंट, न अमेंट, न ही कोई आवाजाही। फिर सोचता हूं कि जब मैं किसी के लिखे पर कमेंट नहीं करता तो कोई मेरे लिखे पर क्यों कमेंट करे। फिर भी पांच-दस लोगों को आह-वाह तो कर ही देना चाहिए ना! खैर, हम सभी लोगों की अपनी दुनिया है, जिसमें मैं भी शामिल हूं। सब सहे, मस्त रहे के अंदाज में कामधेनु सरिया जैसा जीवन जीते हैं।
वैसे, सचमुच सोचता हूं कि क्या मतलब है इस तरह जमीन और कृषि के सवाल पर लगातार लिखते जाने का? फिलहाल तो मन को यही सोचकर दिलासा देना पड़ रहा है कि ये मेरे स्वाध्याय का हिस्सा है। लेकिन इसे स्वांत: सुखाय लेखन भी तो नहीं कह सकते है? खैर, चलिए आगे बढते हैं...
तो, मैं जिस महलवारी प्रथा की बात कर रहा था, उसी प्रथा के तहत हमारा गांव भी आता था। इस महलवारी व्यवस्था को शायद जजमानी और पट्टीदारी प्रथा भी कहा जाता था, जो भारत की पुरानी व्यवस्था का ही नैरंतर्य थी। बाबा के परबाबा गांव के लंबरदार थे, गांव भर से मालगुजारी जुटाकर साहब बहादुर तक पहुंचाते थे। आजादी के बाद जमींदारी से लेकर रैयतवारी और महलवारी व्यवस्था खत्म कर दी गई। लेकिन मेरे अपने बाबा भी मरते दम तक लंबरदार कहलाते रहे। वैसे, बताते हैं कि इलाके के नवाब के यहां वो सुबह-सुबह घंटा बजाने की ड्यूटी भी करते थे। कहने का मतलब है कि अवध के इलाके में गिनी-चुनी रियासतें पहले भी थीं और अब भी उनकी कोठियों के खंडहर नजर आ जाते हैं। लेकिन ज्यादातर किसानों में जमींदार होने का कोई गुरूर नहीं था। क्या ठाकुर, क्या ब्राह्मण सभी अपने खेतों में मजदूरों की तरह मेहनत करते थे।
लेकिन कभी-कभी मुझे लगता है कि आज की तारीख में जमींदारी का इलाके और समय से कोई लेनादेना नहीं है। खून-पसीना गलानेवाले किसान का कुछ भी हो जाए, सूखा पड़ जाए, अकाल पड़ जाए, चाहे घर में मरनी हो जाए, जमींदार को तो अपनी पूरी मालगुजारी चाहिए थी, जिसे उसे अंग्रेज बहादुर के दरबार तक पहुंचाना था। क्या यही सोच और तरीका आज भी हमारे इर्दगिर्द नहीं चल रहा है। मैं हिंदी अखबारों या न्यूज चैनलों में काम करनेवाले पत्रकार बंधुओं से पूछना चाहता हूं कि जब आपका बॉस आपसे कहता है कि मुझे कुछ नहीं सुनना है, मुझे आपका आउटपुट चाहिए तो आपको कैसा लगता है? आप देखते हैं कि बॉस से लेकर ऊपर के सभी चेलेचापट धेले भर का काम नहीं करते, बस अपने से ऊपर वाले को काम करते दिखाते रहते हैं, मीटिंग करते हैं, लडकियों की कंधा-मालिश करते हैं तो आपको कैसा लगता है? किसी दिन जनखे जैसी चाल चलनेवाला बॉस का कोई पट्ठा आपसे न्यूज का मतलब पूछता है और कहता है कि आप कहीं अपने लिए क्लर्की ढूंढ लीजिए तो आपको कैसा लगता है? सरकारी और कुछ प्राइवेट दफ्तरों में भी जमींदारी की यही संस्कृति चलती होगी, ऐसा मेरा अनुभव नहीं, अनुमान है।
वैसे, मेरे इलाके में जमींदारों का क्या हुआ, इस पर एक किस्सा सुनाना चाहता हूं। पुराने जमाने के जमींदार साहब एक किसान के खेत से मटर चुरा रहे थे। किसान ने उन्हें रंगेहाथों पकड़ लिया और मामला गांव की पंचायत में ले गया। पंचों ने पूछा तो जमींदार साहब ने कहा कि वो तो मटर के खेत में झाड़ा फिरने गए थे। इस पर किसान ने कहा, ‘मैंने इनको जहां से पकड़ा था, वहां तो सूखी टट्टी पड़ी हुई थी।’ इस पर जमींदार साहब का जवाब गौर करने लायक है। बोले – हम हई जमींदार, झूर (सूखी) हगी चाहे ओद (गीली)...तू सारे कैसे समझि पउब्या। तो पढ़नेवाले बंधुओं, शायद इसी को कहते हैं एक तो चोरी, ऊपर से जमींदारी। जारी...
(अगली किश्त सोमवार, 25 जून 2007 को)
वैसे, सचमुच सोचता हूं कि क्या मतलब है इस तरह जमीन और कृषि के सवाल पर लगातार लिखते जाने का? फिलहाल तो मन को यही सोचकर दिलासा देना पड़ रहा है कि ये मेरे स्वाध्याय का हिस्सा है। लेकिन इसे स्वांत: सुखाय लेखन भी तो नहीं कह सकते है? खैर, चलिए आगे बढते हैं...
तो, मैं जिस महलवारी प्रथा की बात कर रहा था, उसी प्रथा के तहत हमारा गांव भी आता था। इस महलवारी व्यवस्था को शायद जजमानी और पट्टीदारी प्रथा भी कहा जाता था, जो भारत की पुरानी व्यवस्था का ही नैरंतर्य थी। बाबा के परबाबा गांव के लंबरदार थे, गांव भर से मालगुजारी जुटाकर साहब बहादुर तक पहुंचाते थे। आजादी के बाद जमींदारी से लेकर रैयतवारी और महलवारी व्यवस्था खत्म कर दी गई। लेकिन मेरे अपने बाबा भी मरते दम तक लंबरदार कहलाते रहे। वैसे, बताते हैं कि इलाके के नवाब के यहां वो सुबह-सुबह घंटा बजाने की ड्यूटी भी करते थे। कहने का मतलब है कि अवध के इलाके में गिनी-चुनी रियासतें पहले भी थीं और अब भी उनकी कोठियों के खंडहर नजर आ जाते हैं। लेकिन ज्यादातर किसानों में जमींदार होने का कोई गुरूर नहीं था। क्या ठाकुर, क्या ब्राह्मण सभी अपने खेतों में मजदूरों की तरह मेहनत करते थे।
लेकिन कभी-कभी मुझे लगता है कि आज की तारीख में जमींदारी का इलाके और समय से कोई लेनादेना नहीं है। खून-पसीना गलानेवाले किसान का कुछ भी हो जाए, सूखा पड़ जाए, अकाल पड़ जाए, चाहे घर में मरनी हो जाए, जमींदार को तो अपनी पूरी मालगुजारी चाहिए थी, जिसे उसे अंग्रेज बहादुर के दरबार तक पहुंचाना था। क्या यही सोच और तरीका आज भी हमारे इर्दगिर्द नहीं चल रहा है। मैं हिंदी अखबारों या न्यूज चैनलों में काम करनेवाले पत्रकार बंधुओं से पूछना चाहता हूं कि जब आपका बॉस आपसे कहता है कि मुझे कुछ नहीं सुनना है, मुझे आपका आउटपुट चाहिए तो आपको कैसा लगता है? आप देखते हैं कि बॉस से लेकर ऊपर के सभी चेलेचापट धेले भर का काम नहीं करते, बस अपने से ऊपर वाले को काम करते दिखाते रहते हैं, मीटिंग करते हैं, लडकियों की कंधा-मालिश करते हैं तो आपको कैसा लगता है? किसी दिन जनखे जैसी चाल चलनेवाला बॉस का कोई पट्ठा आपसे न्यूज का मतलब पूछता है और कहता है कि आप कहीं अपने लिए क्लर्की ढूंढ लीजिए तो आपको कैसा लगता है? सरकारी और कुछ प्राइवेट दफ्तरों में भी जमींदारी की यही संस्कृति चलती होगी, ऐसा मेरा अनुभव नहीं, अनुमान है।
वैसे, मेरे इलाके में जमींदारों का क्या हुआ, इस पर एक किस्सा सुनाना चाहता हूं। पुराने जमाने के जमींदार साहब एक किसान के खेत से मटर चुरा रहे थे। किसान ने उन्हें रंगेहाथों पकड़ लिया और मामला गांव की पंचायत में ले गया। पंचों ने पूछा तो जमींदार साहब ने कहा कि वो तो मटर के खेत में झाड़ा फिरने गए थे। इस पर किसान ने कहा, ‘मैंने इनको जहां से पकड़ा था, वहां तो सूखी टट्टी पड़ी हुई थी।’ इस पर जमींदार साहब का जवाब गौर करने लायक है। बोले – हम हई जमींदार, झूर (सूखी) हगी चाहे ओद (गीली)...तू सारे कैसे समझि पउब्या। तो पढ़नेवाले बंधुओं, शायद इसी को कहते हैं एक तो चोरी, ऊपर से जमींदारी। जारी...
(अगली किश्त सोमवार, 25 जून 2007 को)
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