हिम्मत है तो कर के दिखाओ
आगे बढ़ने से पहले दो बातें साफ कर देना चाहता हूं। एक तो मैं अर्थशास्त्री नहीं हूं, न ही किसी विकासशील अर्थव्यवस्था में ज़मीन के सवाल की समग्र समझ रखता हूं। बल्कि लेखों की इन कड़ियों के ज़रिए खुद भारत में ज़मीन के सवाल को समझने की कोशिश कर रहा हूं। इसके लिए मेरे पास एकमात्र स्रोत एकमात्र इंटरनेट पर मौजूद सामग्रियां हैं। इसलिए ज़मीनी कार्यकर्ताओं और इस मुद्दे पर जानकारी रखनेवाले ब्लॉगर बंधुओं से मेरी अपील है कि जहां भी मैं गलत डगर पर भटकता नजर आऊं, मुझे फौरन दुरुस्त कर दें।
दूसरी बात जमीन का सवाल भू-दक्षिणा या भू-दान का मसला नहीं है। निर्धन सुदामा को किसी श्रीकृष्ण का उपहार नहीं चाहिए, न ही किसी बिनोबा भावे का यज्ञ। असल में भूमि सुधार का सवाल गरीबों को दो जून की रोटी मुहैया कराने तक सीमित नहीं है। न ही ये महज वंचित तबकों के हक़ का मसला है। बल्कि ये देश के तेज़ औद्योगिक विकास की ज़रूरी शर्त है। ऐसा मेरा नहीं, नोबेल विजेता अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन का कहना है।
हैदराबाद में पिछले साल 93वीं इंडियन साइंस कांग्रेस की बैठक में अमर्त्य सेन ने चेतावनी भरे लफ्ज़ों में कहा था कि भारत तब तक दुनिया की प्रमुख ताक़त नहीं बन सकता, जब तक वह भूमि सुधारों की प्रक्रिया को पूरा नहीं करता। अगर भारत को चीन जैसी स्थिति हासिल करनी है, (उत्पादक) शक्तियों को मुक्त करना है तो देश में भूमि सुधारों को लागू करना बेहद ज़रूरी है। इस बैठक में खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी मौजूद थे। ज़ाहिर है मनमोहन सिह ने खुद अर्थशास्त्री होने के नाते अमर्त्य सेन की बातों के मर्म को अच्छी तरह समझा होगा। लेकिन ‘भक्तवत्सल’ मनमोहन ने अपनी आंखों पर उद्धव के निष्ठुर ज्ञान की ऐसी पट्टी बांध रखी है कि उन्हें इसमें अर्थ तो नज़र आया होगा, इंसानी प्रेम और गरिमा नहीं।
भूमि का सवाल सामाजिक न्याय के पैरोकारों को भी हजम नहीं होता, जबकि सामाजिक न्याय की पूर्णाहुति भूमि सुधारों के बिना हो ही नहीं सकती। मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करनेवाले वी पी सिंह से पूछा जाना चाहिए कि क्या वो डय्या और मांडा रियासतों की हजारों एकड़ ज़मीन इलाके के कोल आदिवासियों और भूमिहीन दलितों को देने को तैयार हैं? उच्च शिक्षा में 27 फीसदी ओबीसी आरक्षण का शिगूफा उछालने वाले अर्जुन सिंह से पूछा जाना चाहिए कि क्या वे मध्य प्रदेश में अपनी रियासत की सैकड़ों एकड़ ज़मीन गरीब पिछड़ों को देने को तैयार हैं? और, दलितों के सम्मान की वाहक मायावती से पूछा जाना चाहिए कि राजा भैया और उनके बाप उदय सिंह को जेल की हवा खिलाकर उन्होंने यकीनन दलितों का हौसला बढाया है, लेकिन क्या भदरी रियासत की तीन-चार सौ एकड़ ग़ैरक़ानूनी ज़मीन को वो इलाके के पासियों में बांटने को तैयार हैं? कहां दस-बीस हज़ार नौकरियों के लिए लड़ते दो-चार लाख नौजवानों की बात और कहां मेहनत से जिंदगी जीने को लालायित करोड़ों बे-जमीन किसानों की बात। आप ही तय कीजिए कि सामाजिक न्याय को व्यापक आधार देने का रास्ता क्या हो सकता है।
वैसे, हमारे संविधान के तहत कृषि एक ‘स्टेट सब्जेक्ट’ है। इसीलिए मुख्यमंत्री मायावती चाहें तो उत्तर प्रदेश में भदरी जैसी रियासतों की जमीनें भूमिहीन किसानों में बांटकर देश के इतिहास में अपना नाम स्वर्णाक्षरों में लिखा सकती हैं। वो साबित कर सकती हैं कि वामपंथियों ने तो पश्चिम बंगाल और केरल में भूमि सुधार का कैरिकेचर ही लागू किया है, असली काम तो उन्होंने किया है।
लेकिन ये एक खूबसूरत ख्याल के अलावा कुछ नहीं है क्योंकि राजा भैया को जेल भिजवाना मौजूदा सत्ता के बांट-बखरे का निर्मम खेल है, जबकि उनकी जमीनें लेकर पासियों में बंटवाने से सत्ता के मौजूदा तंत्र में ही भूचाल आ सकता है। असल में कृषि का मामला इतना विस्फोटक है कि राज्यों से लेकर केंद्र सरकार तक इसके पास आने से घबराती है। इसीलिए वो दलितों और पिछड़ों को आरक्षण जैसे झुनझुनों में उलझाए रखना चाहती हैं। लेकिन सच तो ये है कि ओस की बूंदों से प्यास बुझाने की हिमायत करनेवाले लोग ही आरक्षण पर तालियां बजा कर नाच सकते हैं। वो चाहें तो सामने के तालाब से मन भर के पानी पी सकते हैं। लेकिन शर्त ये है कि इससे पहले इनको कई यक्ष प्रश्नों के उत्तर देने पड़ेंगे, जिसके लिए वो कतई तैयार नहीं हैं। जारी...
दूसरी बात जमीन का सवाल भू-दक्षिणा या भू-दान का मसला नहीं है। निर्धन सुदामा को किसी श्रीकृष्ण का उपहार नहीं चाहिए, न ही किसी बिनोबा भावे का यज्ञ। असल में भूमि सुधार का सवाल गरीबों को दो जून की रोटी मुहैया कराने तक सीमित नहीं है। न ही ये महज वंचित तबकों के हक़ का मसला है। बल्कि ये देश के तेज़ औद्योगिक विकास की ज़रूरी शर्त है। ऐसा मेरा नहीं, नोबेल विजेता अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन का कहना है।
हैदराबाद में पिछले साल 93वीं इंडियन साइंस कांग्रेस की बैठक में अमर्त्य सेन ने चेतावनी भरे लफ्ज़ों में कहा था कि भारत तब तक दुनिया की प्रमुख ताक़त नहीं बन सकता, जब तक वह भूमि सुधारों की प्रक्रिया को पूरा नहीं करता। अगर भारत को चीन जैसी स्थिति हासिल करनी है, (उत्पादक) शक्तियों को मुक्त करना है तो देश में भूमि सुधारों को लागू करना बेहद ज़रूरी है। इस बैठक में खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी मौजूद थे। ज़ाहिर है मनमोहन सिह ने खुद अर्थशास्त्री होने के नाते अमर्त्य सेन की बातों के मर्म को अच्छी तरह समझा होगा। लेकिन ‘भक्तवत्सल’ मनमोहन ने अपनी आंखों पर उद्धव के निष्ठुर ज्ञान की ऐसी पट्टी बांध रखी है कि उन्हें इसमें अर्थ तो नज़र आया होगा, इंसानी प्रेम और गरिमा नहीं।
भूमि का सवाल सामाजिक न्याय के पैरोकारों को भी हजम नहीं होता, जबकि सामाजिक न्याय की पूर्णाहुति भूमि सुधारों के बिना हो ही नहीं सकती। मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करनेवाले वी पी सिंह से पूछा जाना चाहिए कि क्या वो डय्या और मांडा रियासतों की हजारों एकड़ ज़मीन इलाके के कोल आदिवासियों और भूमिहीन दलितों को देने को तैयार हैं? उच्च शिक्षा में 27 फीसदी ओबीसी आरक्षण का शिगूफा उछालने वाले अर्जुन सिंह से पूछा जाना चाहिए कि क्या वे मध्य प्रदेश में अपनी रियासत की सैकड़ों एकड़ ज़मीन गरीब पिछड़ों को देने को तैयार हैं? और, दलितों के सम्मान की वाहक मायावती से पूछा जाना चाहिए कि राजा भैया और उनके बाप उदय सिंह को जेल की हवा खिलाकर उन्होंने यकीनन दलितों का हौसला बढाया है, लेकिन क्या भदरी रियासत की तीन-चार सौ एकड़ ग़ैरक़ानूनी ज़मीन को वो इलाके के पासियों में बांटने को तैयार हैं? कहां दस-बीस हज़ार नौकरियों के लिए लड़ते दो-चार लाख नौजवानों की बात और कहां मेहनत से जिंदगी जीने को लालायित करोड़ों बे-जमीन किसानों की बात। आप ही तय कीजिए कि सामाजिक न्याय को व्यापक आधार देने का रास्ता क्या हो सकता है।
वैसे, हमारे संविधान के तहत कृषि एक ‘स्टेट सब्जेक्ट’ है। इसीलिए मुख्यमंत्री मायावती चाहें तो उत्तर प्रदेश में भदरी जैसी रियासतों की जमीनें भूमिहीन किसानों में बांटकर देश के इतिहास में अपना नाम स्वर्णाक्षरों में लिखा सकती हैं। वो साबित कर सकती हैं कि वामपंथियों ने तो पश्चिम बंगाल और केरल में भूमि सुधार का कैरिकेचर ही लागू किया है, असली काम तो उन्होंने किया है।
लेकिन ये एक खूबसूरत ख्याल के अलावा कुछ नहीं है क्योंकि राजा भैया को जेल भिजवाना मौजूदा सत्ता के बांट-बखरे का निर्मम खेल है, जबकि उनकी जमीनें लेकर पासियों में बंटवाने से सत्ता के मौजूदा तंत्र में ही भूचाल आ सकता है। असल में कृषि का मामला इतना विस्फोटक है कि राज्यों से लेकर केंद्र सरकार तक इसके पास आने से घबराती है। इसीलिए वो दलितों और पिछड़ों को आरक्षण जैसे झुनझुनों में उलझाए रखना चाहती हैं। लेकिन सच तो ये है कि ओस की बूंदों से प्यास बुझाने की हिमायत करनेवाले लोग ही आरक्षण पर तालियां बजा कर नाच सकते हैं। वो चाहें तो सामने के तालाब से मन भर के पानी पी सकते हैं। लेकिन शर्त ये है कि इससे पहले इनको कई यक्ष प्रश्नों के उत्तर देने पड़ेंगे, जिसके लिए वो कतई तैयार नहीं हैं। जारी...
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मुझे इसकी अगली किस्त का इंतज़ार है. बेसब्री से इंतज़ार. आज मेरे जैसे न जाने कितने लोग गांव-देहात छोड़ कर शहरों की खाक छान रहे हैं. मैं जब गांव जाता हूं तो मालूम चलता है कि मेरी उम्र के बस चंद जवान ही वहां रह रहे हैं. ज्यादातर दिल्ली, मुंबई जैसे महानगरों में लुप्त हो गए हैं तो ढेरों ऐसे भी हैं जो वतन से दूर खाड़ी के देशों में रोजी रोटी कमा रहे हैं. घर परिवार छोड़ने को मजबूर हुए इन तमाम लोगों के लिए सबकुछ गांव की मिट्टी, उसके पेड़ पौधे और वहां बसा कुनबा है. लेकिन गांव आना हो पाता है दो साल में दो महीने के लिए. तब जब उन्हें छुट्टी मिलती है और वो बचाए गए पैसों के साथ घर पहुंचते हैं. वो उन्हीं दो महीने को जी भर के जीते हैं. बेबसी के इस अहसास के साथ कि अगले दो साल तक वो बीवी-बच्चों, मां-बाप और भाई-बहन का चेहरा नहीं देख सकेंगे. यार दोस्तों के साथ बतिया नहीं सकेंगे.
ऐसा नहीं है कि जो लोग अपने वतन में रह रहे हैं वो सभी उनसे बेहतर स्थिति में हैं. यहां भी कुछ वैसा ही हाल है. परिवार का एक धड़ा किसी शहर में तो दूसरा किसी और शहर में. बूढ़े मां-बाप या तो गांव में तीज त्योहारों पर बच्चों का इंतजार करते हैं या फिर बुढ़ापे में गांव देहात की आजाद जिंदगी को छोड़ कर शहरों में बच्चों के एक दो कमरे के फ्लैट में तंग जिंदगी जीते हैं. अपनी इस जिंदगी पर गुस्सा आता है. मन करता है कि सबकुछ छोड़ कर गांव लौट जाऊं. कभी कभी तो दिन में दो तीन बार ऐसा करने को जी करता है. लेकिन हमारे हुक्मरानों ने ऐसी कोई व्यवस्था नहीं दी जिससे शहरों से गांवों की तरफ रुख किया जा सके। गांव में न तो अच्छे स्कूल हैं ... न स्वास्थ सुविधा ... न रोजगार के अवसर और न ही वो सौहार्द. मजबूरी में मैं आज एक ऐसी जिंदगी जी रहा हूं जिसमें हर रोज लगता है कि न जाने कितने पुश्तों से नौकरी करता चला आ रहा हूं.
पहले हममें से कुछ अपने खेतों के मालिक थे. कुछ छोटे तो कुछ बड़े. यकीनन खेतीहर मजदूरों की संख्या में खेत के मालिकों की संख्या कम थी. लेकिन अब तो लगता है कि धीरे धीरे सब के सब गुलाम बन जाएंगे. कोई अंबानी का गुलाम तो कोई टाटा का. आज भी मेरे जैसे गुलामों की संख्या कम नहीं है. करोड़ों में है. कोई गुलाम चंद हजार पाता है तो कोई चंद लाख. गुलामों की हैसियत जुदा जरूर है ... लेकिन सच्चाई एक ही है. उसकी जिंदगी और खयालात पर उसके परिवार और उसके समाज से ज्यादा हक उस कंपनी का है जहां से उसे तनख्वाह मिलती है. चाह कर भी वो अपनी जिंदगी अपनी मर्जी से नहीं जी सकता. जिंदगी आज वर्तमान को कोसते बीतती है या फिर भविष्य को सुरक्षित करते. इन दो पाटों के बीच सिर्फ इतना ही हो पाता है कि कभी कभार मां-बाप से बतिया लिये, बच्चों के साथ खेल लिये या फिर दोस्तों के साथ मिल कर भड़ास निकाल ली.
आपने जिस तरह से संस्मरण शुरू किया है.. उससे लगता है कि आने वाली कड़ियों में उन तमाम बातों का जिक्र होगा कि कैसे सोची समझी साजिश के तहत गांवों की कीमत पर शहर बनाए गए और किस तरह ये शहर एक विकृत समाज की जड़ बने. यहां मैं ये भी कहना चाहूंगा कि मुझे गांवों की पुरानी व्यवस्था की सभी बातें अच्छी नहीं लगती थीं. उस व्यवस्था में भी कई खामियां थीं. जमीन से लेकर सुख सुविधाओं पर दबंग तबके का कब्जा था. पिछड़ों और दलितों को उधार की जिंदगी महसूस होती थी. लेकिन जरूरत पुरानी व्यवस्था की उन विसंगतियों को दूर करने की थी, हमने तो पूरा पेड़ ही उखाड़ कर फेंक दिया है.
समर
"..वी पी सिंह से पूछा जाना चाहिए कि क्या वो डय्या और मांडा रियासतों की हजारों एकड़ ज़मीन इलाके के कोल आदिवासियों और भूमिहीन दलितों को देने को तैयार हैं?"
यहां दिल्ली में तो संवेदनशील राजासाब झुग्गी झोपड़ी वालों को सरकारी जमीन दिलवाने के लिये धरना दे डालते हैं, वहा क्यों नहीं करेंगे?
गांव, ज़मीन,हरे भरे खेत, ये सब हम पत्रिकाओं में या ट्रेन की खिड़्की से ही देख पाते हैं...एक अजीब सी स्थिति है हमारी.इन मुद्दो पर लिखिये जानना हमारे लिये बहुत ज़रुरी है अगली किश्त का बेसब्री से इन्तज़ार रहेगा...
आपने समस्या को गहराई से नापा है। मैं टिप्पणी लिखने बैठा तो बड़ी लंबी हो गई। इसलिए आपको संबोधित करते हुए इसे अपने ब्लाग पर दे रहा हूं। कृपया देखने का कष्ट करें।
उमाशंकर सिंह
http://valleyoftruth.blogspot.com