Thursday 29 November, 2007

तुष्टीकरण मुस्लिम अल्पमत का या बहुमत का?

तसलीमा नसरीन का नंदीग्राम से कोई लेनादेना नहीं है, लेकिन कुछ बेतुकी वजहों से उन्हें कई महीनों से नंदीग्राम में चल रहे विरोध की काट के लिए कोलकाता से बाहर भेज दिया गया। आज़ादी के बाद से ही भारत में चल रही तुष्टीकरण की राजनीति का यह एक ताज़ा उदाहरण है। तसलीमा को बाहर भेजकर पश्चिम बंगाल की सरकार ने लगता है कि मुसलमानों की मांगों के आगे ‘घुटने टेक’ दिए, लेकिन उसने एक ऐसे मसले पर कार्रवाई करने का फैसला किया जिसकी कोई सामाजिक-आर्थिक प्रासंगिकता मुसलमानों के बहुमत के लिए नहीं है।

उसका यह कदम औसत मुसलमान से कहीं ज्यादा मुस्लिम-विरोधी पार्टियों को खुश करता है। यह उन मुसलमान नेताओं और संगठनों को भी खुश कर सकता है, जो अपने निहित राजनीतिक मकसद के लिए तसलीमा के खिलाफ अभियान चला रहे हैं। ये मुस्लिम नेता अब अपनी जीत का दावा कर सकते हैं और हो सकता है कि वे अब इसी तरह के किसी और सांकेतिक मु्द्दे की तलाश में जुट गए हों।

कोलकाता में जो हिंसा तसलीमा नसरीन को निकाले जाने का सबब बन गई, वह हुई थी बुधवार 21 नवंबर को अखिल भारतीय अल्पसंख्यक फोरम (एआईएमएफ) नाम के छोटे से संगठन के विरोध प्रदर्शन के दौरान। इसके नाम में भले ही अखिल भारतीय लगा हो, लेकिन न तो इसका देश भर में कोई आधार है और न ही यह सभी अल्पसंख्यकों की नुमाइंदगी करता है। इसके अध्यक्ष इदरिस अली भावनात्मक मुद्दों को उठाने के लिए जाने जाते हैं। वे हाईकोर्ट की अवमानना के दोषी भी करार दिए जा चुके हैं।
राज्य सरकार एक छोटे-से अनजान संगठन और कुछ हिंसक मुस्लिम युवाओं के आगे क्यों झुक गई, जबकि उसने एक लाख मुसलमानों और स्थापित व सम्मानित मुस्लिम संगठन की आवाज़ को अनसुनी कर दिया?

पिछले हफ्ते एआईएमएफ के विरोध प्रदर्शन में महज कुछ हज़ार लोगों ने ही शिरकत की थी और कुछ अनजान वजहों से वे पुलिसवालों से भिड़ गए। अचंभे की बात है कि हर तरह के प्रदर्शन से निपटने में माहिर कोलकाता पुलिस हिंसा फैलाते इन मुठ्ठी भर लोगों से निपटने के लिए तैयार नहीं थी। इसके पांच दिन पहले ही कोलकाता में करीब एक लाख मुसलमानों ने नंदीग्राम की हिंसा के खिलाफ शांतिपूर्ण रैली निकाली थी। इसका आयोजन मिल्ली इत्तेहाद परिषद ने किया था, जिसमें जमायत उलेमा-ए-हिंद, जमायते इस्लामी मिल्ली काउंसिल, और मजलिस-ए-मुशावरात जैसे तमाम मुस्लिम संगठन शामिल हैं। अगर पश्चिम बंगाल के मुसलमान हिंसा ही करना चाहते थे तो उन्होंने शुक्रवार की रैली के बजाय बुधवार के प्रदर्शन का मौका क्यों चुना?

कुछ और भी सवाल हैं। जैसे, राज्य सरकार एक छोटे-से अनजान संगठन और कुछ हिंसक मुस्लिम युवाओं के आगे क्यों झुक गई, जबकि उसने एक लाख मुसलमानों और स्थापित व सम्मानित मुस्लिम संगठन की आवाज़ को अनसुनी कर दिया? क्या हम इससे देश के मुसलमानों को यह संदेश नहीं भेज रहे हैं कि हिंसा ही अपनी आवाज़ को सुनाने का एकमात्र तरीका है? और सरकार नंदीग्राम पर टस से मस होने को क्यों तैयार नहीं है जो एक सामाजिक, आर्थिक और न्यायिक समस्या है? उसने चंद मुसलमानों की धार्मिक भावना से जुड़े सांकेतिक मुद्दे से जुड़ी मांगों को ही क्यों तरजीह दी?

ये सवाल पश्चिम बंगाल सरकार से ही नहीं, सभी राज्यों और केंद्र सरकार से पूछे जाने चाहिए। सरकारी अधिकारियों, नीति-नियामकों, पत्रकारों और व्यवसायियों से लेकर सभी को समझने की जरूरत है कि अगर भारत को अपनी संपूर्ण संभावनाएं हासिल करनी हैं तो उसे मुसलमानों के बहुमत की जायज़ मांगों पर गौर करना होगा। सौभाग्य से न्याय, समानता, गरिमा, सुरक्षा, शिक्षा और रोज़गार जैसी उनकी मांगें हर आम भारतीय से ताल्लुक रखती हैं और उनका धर्म से कोई लेनादेना नहीं है। मुस्लिम समुदाय की बाकी धार्मिक मांगों पर मेरिट के आधार पर विचार किया जाना चाहिए, न कि इन पर तुष्टीकरण की राजनीति खेली जानी चाहिए।

मुठ्ठी भर हिंसक लोगों को यह मत तय करने दीजिए कि भारतीय मुसलमान क्या चाहता है। साथ ही, राजनेताओं को इस हिंसक अल्पमत को खुश करने का मौका मत दीजिए। अगर राजनीतिक पार्टियों को तुष्टीकरण की राजनीति खेलते रहने की इजाज़त मिली रही तो वे भारतीय मुसलमानों को ही नहीं, सारे भारत को हमेशा पिछड़ा बनाए रखेंगी।
- मिंट अखबार में आज छपे काशिफ-उल-हुडा के लेख के संपादित अंश। हुडा एक राजनीतिक विश्लेषक हैं और समाचारों की एक वेबसाइट के संपादक भी हैं।

2 comments:

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

असल बात तो यह है कि जिस गुमनाम संगठन ने यह मुद्दा उठाया है, उसने इसे अपने-आप नहीं उठाया. उससे यह मुद्दा उठावाया गया है और उठावाया भी है सीपीएम ने ही, ताकि नंदीग्राम के मसले को दबाया जा सके. अब जो मोदी और उनके साथी तस्लीमा की जिम्मेदारी लेने की बात कर रहे हैं, वह केवल वोट बटोरने के लिए ही नहीं कर रहे हैं. हकीकत ये है कि उनका इरादा भी परोक्षतः सीपीएम को मदद पहुँचाना है. भाजपा और सीपीएम कोई अलग नहीं हैं. दोनों दुकानें हैं और दोनों में एक ही माल भरा है. बस ब्रैंड नेम बदल गया है. यही बात देश की अन्य पार्टियों के साथ भी है. सोचने की बात यह है कि इन चालाकियों से आम जनता को सतर्क कैसे किया जाए?

अजित वडनेरकर said...

आपसे और ईष्टदेवजी दोनो से सहमत हूं।