ट्रेन पर सवार धार्मिक आस्था के तीन ताज़ा चेहरे
ट्रेन मुंबई से दिल्ली की ओर सरपट भागी जा रही थी। किनारे की आमने-सामने वाली सीट पर 35-40 साल के दो मित्र बैठे थे। शायद किसी एक ही कंपनी के एक्ज़ीक्यूटिव थे। दोनों के पास लैपटॉप थे। करीब छह बजे एक ने सूटकेस से आधी बांह का गाढ़े मरून रंग का कुर्ता निकाला, जिस पर गायत्री मंत्र लाइन-दर-लाइन छपा हुआ था। मुझे लगा कि यकीनन ये महोदय काफी आस्तिक किस्म के होंगे। सात बजे अटेंडेंड पूछने आया कि किसी को रोस्टेड चिकन अलग से चाहिए तो गायत्री मंत्र कुर्ता-धारी महोदय ही इकलौते शख्स थे, जिन्होंने ऑर्डर किया। मैं थोड़ा चौंका। लेकिन मुझे झट एहसास हो गया कि हिंदू धर्म में कितना लचीलापन है और वह किसी के सिर पर चढ़कर नहीं बैठा।
मतलब साफ हो गया कि मांसाहारी होने और धार्मिक आस्तिक होने में कोई टकराव नहीं है। धर्म का वास्ता जहां आस्था है, वहीं मांसाहारी होना या न होना आपके संस्कार और संस्कृति से तय होता है।
इसी ट्रेन में उसी रात एक मुस्लिम परिवार भी सफर कर रहा था। दो भाई थे या पार्टनर। उनकी बीवियां और बेटियां थीं। शायद इनका मार्बल का धंधा था क्योंकि मोबाइल पर इसी तरह के ऑर्डर और माल सप्लाई की बातें कर रहे थे। बात-व्यवहार में दोनों और उनके परिजन बड़े भले लग रहे थे। वैसे तो मैं बचपन से ही मुसलमानों को दिल के बहुत करीब पाता रहा हूं। लेकिन इन दोनों ने ही अपने मोबाइल की रिंग अल्ला-हो-अकबर टाइप लगा रखी थी, जिसे सुनकर मुझे अच्छा नहीं लगा। मुझे उनसे चिढ़-सी हो गई और मैं कोटा में उनके उतर जाने की बाट जोहता रहा। एक बात और। मेरी उम्मीद के विपरीत इन लोगों ने वेजीटेरियन खाना ही ऑर्डर किया।
मेरे लिए यह नई अनुभूति थी। लेकिन एक सवाल मेरे जेहन में गूंजता रहा कि जब मुसलमानों के मुख्यधारा से कटे होने की बात की जा रही है, तब इस धर्म के अनुयायी बकरा-कट दाढ़ी या अल्ला-अल्ला की रिंगटोन रखकर क्यों अपने अलगाव को बनाए रखना चाहते हैं। वैसे मैं इस बात पर भी चौंका कि मुझे आरती की धुन, गायत्री मंत्र या महा-मृत्युंजय मंत्र को रिंगटोन बनाने पर ऐतराज़ क्यों नहीं होता?
हफ्ते भर बाद ट्रेन दिल्ली से मुंबई की ओर सरपट लौट रही थी। किनारे की खिड़की के पासवाली दोनों बर्थ 30-35 साल के मियां-बीवी की थी, जिनका एक सात-आठ महीने का बच्चा था। पति साहब ज़रूरत से ज्यादा ही मोटे थे। वजन डेढ़ सौ किलो से कम नहीं रहा होगा। लेकिन ऊपर से लेकर नीचे तक पूरा शरीर एकसार था। पेट निकला था, लेकिन बहुत ज्यादा नहीं। गर्दन और सिर कहां मिलते थे, पता नहीं चलता था। पत्नी सामान्य कदकाठी की थी। लंबाई पति से कम थी। न बहुत मोटी थीं और न ही खास पतली। शक्ल से ही भक्तिन टाइप लग रही थीं। रात के दस बजे के आसपास मैंने पाया कि बच्चे के रोने के बाद उसे थपथपाने और हरे राम, हरे राम, हरी ओम, हरी ओम की आवाज़ आ रही है तो मैंने झांक कर देखा। महोदया अपने बच्चे को थपथपाकर सुला रही थीं और लोरी की जगह हरी ओम से लेकर राम, कृष्ण बोलने के जितने तरीके हो सकते थे, उसे गाती जा रही थीं।
मुझे लगा, धर्म किसी को कितना आच्छादित कर सकता है। लोरी की जगह रामनाम की टेर लगाना मुझे कहीं से भी इस युवा मां का स्वस्थ बर्ताव नहीं लगा। राम-राम सुनकर बढ़ते हुए इस बच्चे का मानस कल को क्या स्वरूप लेगा, मैं तो इसे सोचकर ही घबरा जाता हूं।
मतलब साफ हो गया कि मांसाहारी होने और धार्मिक आस्तिक होने में कोई टकराव नहीं है। धर्म का वास्ता जहां आस्था है, वहीं मांसाहारी होना या न होना आपके संस्कार और संस्कृति से तय होता है।
इसी ट्रेन में उसी रात एक मुस्लिम परिवार भी सफर कर रहा था। दो भाई थे या पार्टनर। उनकी बीवियां और बेटियां थीं। शायद इनका मार्बल का धंधा था क्योंकि मोबाइल पर इसी तरह के ऑर्डर और माल सप्लाई की बातें कर रहे थे। बात-व्यवहार में दोनों और उनके परिजन बड़े भले लग रहे थे। वैसे तो मैं बचपन से ही मुसलमानों को दिल के बहुत करीब पाता रहा हूं। लेकिन इन दोनों ने ही अपने मोबाइल की रिंग अल्ला-हो-अकबर टाइप लगा रखी थी, जिसे सुनकर मुझे अच्छा नहीं लगा। मुझे उनसे चिढ़-सी हो गई और मैं कोटा में उनके उतर जाने की बाट जोहता रहा। एक बात और। मेरी उम्मीद के विपरीत इन लोगों ने वेजीटेरियन खाना ही ऑर्डर किया।
मेरे लिए यह नई अनुभूति थी। लेकिन एक सवाल मेरे जेहन में गूंजता रहा कि जब मुसलमानों के मुख्यधारा से कटे होने की बात की जा रही है, तब इस धर्म के अनुयायी बकरा-कट दाढ़ी या अल्ला-अल्ला की रिंगटोन रखकर क्यों अपने अलगाव को बनाए रखना चाहते हैं। वैसे मैं इस बात पर भी चौंका कि मुझे आरती की धुन, गायत्री मंत्र या महा-मृत्युंजय मंत्र को रिंगटोन बनाने पर ऐतराज़ क्यों नहीं होता?
हफ्ते भर बाद ट्रेन दिल्ली से मुंबई की ओर सरपट लौट रही थी। किनारे की खिड़की के पासवाली दोनों बर्थ 30-35 साल के मियां-बीवी की थी, जिनका एक सात-आठ महीने का बच्चा था। पति साहब ज़रूरत से ज्यादा ही मोटे थे। वजन डेढ़ सौ किलो से कम नहीं रहा होगा। लेकिन ऊपर से लेकर नीचे तक पूरा शरीर एकसार था। पेट निकला था, लेकिन बहुत ज्यादा नहीं। गर्दन और सिर कहां मिलते थे, पता नहीं चलता था। पत्नी सामान्य कदकाठी की थी। लंबाई पति से कम थी। न बहुत मोटी थीं और न ही खास पतली। शक्ल से ही भक्तिन टाइप लग रही थीं। रात के दस बजे के आसपास मैंने पाया कि बच्चे के रोने के बाद उसे थपथपाने और हरे राम, हरे राम, हरी ओम, हरी ओम की आवाज़ आ रही है तो मैंने झांक कर देखा। महोदया अपने बच्चे को थपथपाकर सुला रही थीं और लोरी की जगह हरी ओम से लेकर राम, कृष्ण बोलने के जितने तरीके हो सकते थे, उसे गाती जा रही थीं।
मुझे लगा, धर्म किसी को कितना आच्छादित कर सकता है। लोरी की जगह रामनाम की टेर लगाना मुझे कहीं से भी इस युवा मां का स्वस्थ बर्ताव नहीं लगा। राम-राम सुनकर बढ़ते हुए इस बच्चे का मानस कल को क्या स्वरूप लेगा, मैं तो इसे सोचकर ही घबरा जाता हूं।
Comments
दुसरे दो मुस्लिम मित्रों द्वारा अपने मोबाइल की रिंग अल्ला-हो-अकबर होने से आपके विचलित होने का कोई कारन मेरी समझ मे नही आता. ये तो महज उनकी आस्था और धर्म का मामला है और इससे उनका अलग दिखने कि बात भी ग़लत है.
तीसरे अगर एक माँ अपने बच्चों को लोरी मे राम नाम सुनाती है तो इससे अच्छी बात क्या होगी. हम पहले भी इतिहास मे पढ़ चुके है कि माएं अपने बच्चों को यही सब सुनाया करती थी.
गुजरात में मेरे एक मित्र हैं जिनकी किराना की दुकान का नाम है "अंबिका किराना स्टोर"।
यहाँ हैदराबाद में एक खोजा मित्र का नाम है सुलेमान पंजवाणी और स्टेज पर मुकेश के गाने गाते हैं और अपने आप को सुनील पंजवाणी कहलाया जाना ज्यादा पसंद करते हैं।
ऐसे भी कई हिन्दू मित्र है जो रमजान में एक दो दिन का रोजा रखते हैं।
बाकी हिन्दू और मांसाहार पर इतना जरूर कहना चाहूंगा कि मुझे मेरे कई मुस्लिम मित्र चिढ़ाते थे, जब से तुम जैनों ने मांसाहार करना शुरु किया है मटन के भाव बढ़ गये हैं। यह जानते हुए भी कि
मैं शुद्ध शाकाहारी हूँ, क्यों कि कई जैन बड़े मजे से मांसाहार करने लगे हैं।
कई नमूने तो ऐसे हैं जो जैन आमलेट खाते हैं, बिना प्याज का आमलेट। यानि लहसुन-प्याज से परहेज और अंडे से कोई तकलीफ नहीं।
ओह... अभी और कहना है पर टिप्पणी बहुत लम्बी हो गई।
आजकल औरों के चिट्ठे पढ़कर टिप्पणी करना अच्छा लगता है।
पहली बार आपका ब्लॉग पढ़ रहा हूँ।
अच्छा लगा।
मेरी कुछ टिप्पणियाँ:
आजकल वेश से कुछ पता नहीं चलता।
मेरे पास भी एक T-Shirt है जिसकी पीठ पर श्री श्री रविशंकर की छवी छपी हुई हैं। उसे पहनकर कभी कभी मैं सुबह सुबह टहलने चलता हूँ। एक बार किसी ने पूछ लिया "क्या आप श्री श्री रविशंकर के अनुयायी हैं?" ऊत्तर में मैं समझाता हूँ कि मैं उनके प्रवचनों को जरूर सुनता हूँ लेकिन मैं उनका सक्रिय शिष्य नहीं हूँ। लोग फ़िर पूछते हैं की मैं इस T-Shirt को क्यों पहनता हूँ? इसका सीधा उत्तर है कि यह T-Shirt मार्केट में मुझे सस्ते में मिला और ठीक से फ़िट होता है! और इस T-shirt के बहाने सुबह टहलते टहलते मेरा आप जैसी जिज्ञासु लोगों से परिचय भी हो जाता है।
हिन्दू धर्म में गोहत्या को छोड़कर खाने के मामले में कोई परहेज़ नहीं है। मेरे लिए हिन्दू धर्म का यह लचीलापन ही उसकी शक्ति है और आकर्षण भी है। बचपन में मैं शाकाहारी बन गया क्योंकि मेरे माँ बाप शाकाहारी थे। आज मैं शाकाहारी इस लिए हूँ क्योंकि मुझे इसी में अपनी और समाज की भलाइ नज़र आती है।
लेकिन मैं अपने इन विचारों को औरों पर थोंपता नहीं हूँ।
मेरे दोस्त और कई रेश्तेदार माँस खाते हैं और मुझे उनके साथ बैठकर अपना अलग शाकाहारी खाना खाने में कोई हिचक नहीं होती।
जहाँ तक मुसलमानों का सवाल है, मैं जानना चाह्ता हूँ कि क्या मुसलमानों का माँसाहारी होना अनिवार्य है?
क्या बकरी ईद के अवसर पर अगर कोई मुसलमान माँस नहीं खाता तो क्या उसकी निन्दा की जा सकती है?
मेरा खयाल है कि ट्रेन में ये दो मुसलमानों ने शाकाहारी भोजन इस लिए की के शायद घर के बाहर का माँसाहारी भोजन जोखिम भरा होता है।
आपने मुसलमानों का अपना अलगाव कायम रखने के बारे में बात की। इससे मुझे कोई परेशानी नहीं होती। क्या हमारे सिख भाइ, जैन मुनियों, हरिद्वार और ह्रिषिकेश के साधु संतों भी अपना अलगाव कायम नहीं रखते?
आपने लिखा है:
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राम-राम सुनकर बढ़ते हुए इस बच्चे का मानस कल को क्या स्वरूप लेगा, मैं तो इसे सोचकर ही घबरा जाता हूं।
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घबराहट?
लेकिन क्यों?
बचपन में राम का नाम सुनने से किसी को कभी नुकसान हुआ है?
बच्चा बड़ा होकर अपना भाग्य स्वयं निश्चय करेगा। इस उम्र में उसे लोरी और राम नाम मे कोई फ़र्क मालूम नहीं पढे़गा। अगर उसकी माँ को राम का नाम जपने में आनन्द मिलता हैं तो जपने दो!
लिखते रहिए और कृपया हमारी टिप्पणियों को भी बर्दाश्त कीजिए।
शुभकामनाएँ।
G विश्वनाथ, जे पी नगर, बेंगळूरु
महिला अगर शक्ल से भक्तिन टाइप लग रही थीं तो राम कृष्ण का नाम लेने को अटपटा लगने पर भी स्वाभाविक रूप से लेना चाहिए था. कई मुसलमान मित्र हैं जो शुद्ध शाकाहारी हैं. कुर्बानी के दिन कमरे में दुबक जाते हैं.
बैंगलूरू के जी. विश्वनाथ जी से मेरी सहमति है।
आपकी पिछली पोस्ट पर मेरे नाम से की गई टीप मेरी नहीं है....कृपया आप अभय और प्रमोद जी और अन्य मित्रों मेरे नाम के आड़ में खेल रहे भाई से सावधान रहें....
आपका
बोधिसत्व
mei filhaal inhe reject kar rahii hoon.
कॉलेज में पुस्तकालय की पढ़ने की मेज पर सवार होकर नमाज पढ़ते देखा है लोगों को...कहें की क्या फर्क पड़ता है तो सच नहीं होगा।
अच्छा किया लिख दिया
शास्त्रीजी का कहना बिल्कुल सही है, कुछ दिनों पहले हमारी इस विषय पर बात हुई थी तब शास्त्री जी की कई खास बातें पता चली एक तो यह कि वे शुद्ध शाकाहारी हैं और शाकार के पक्षपाती है।
दूसरी एक बात कि उन्होने मुझसे जैन मासिक पत्रिका जिनवाणी का पोस्टल पता पूछा.. मुझे आश्चर्य हुआ कि आप जिनवाणी के पते से क्या करेंगे तब उन्होने बताया कि वे इस पत्रिका के नियमित पाठक हैं पर कुछ दिनों से उन्हें यह पत्रिका नहीं मिल रही और वे इस पत्रिका के सदस्य बनना चाहते हैं।
मुझे भी तब लगा था कि ईसाई और जैन पत्रिका...
धन्यवाद शास्त्री जी भूल सुधरवाने के लिये