ऊल-जलूल कहानी, फ्रस्टेशन और खिन्न होते लोग

कुछ लोग मेरे मानस की कहानी से बहुत खिन्न हैं। एक तो जनमत ही है जिसने अभी तक बायीं तरफ के साइड बार में किन्हीं विनीत नाम के सज्जन की ललकार चस्पा कर रखी है, “वो कहां गया बाल विवाह का प्रेमी उसे ये वक्तव्य नहीं दिखता कौशल्या देवी का...उसका ब्लॉग देखा उसमें अब वो कथा चित्रण कर रहा है। पूरी तरह फ्रस्टेट हो चुका है...कुंठा में कहानी ही याद आती है वो भी ऊल-जलूल।”

इसके अलावा हमारे चंदू भाई भी काफी खिन्न हैं। उन्होंने कल की कड़ी और उस पर आई टिप्पणियों पर यह बेबाक टिप्पणी की है ....
प्यारे भाई, ये लोग अपने जीवन की सबसे लंबी मुहिम पर निकले एक आदमी के पराजित होने, टूट-बिखर जाने का किस्सा सुनकर इतने खुश क्यों हो रहे हैं? क्या जो बंदे अच्छे बच्चों की तरह पढ़ाई करके ऊंची-ऊंची पगार वाली नौकरियां करने चले जाते हैं, वे ही अब से लेकर सृष्टि की अंतिम घड़ी तक संसार की युवा पीढ़ी का आदर्श होने जा रहे हैं? उनके जैसे तो आप कभी भी हो सकते थे और कुछ साल इधर-उधर गुजार चुकने के बाद आज भी हो गए हैं। फिर क्या अफसोस, कैसा दुख, किस बात का पछतावा? क्या भंडाफोड़, किस पोल का खोल?
सीपीआई – एमएल (लिबरेशन) किस देश या प्रदेश की सत्ता संभालती है, या निकट भविष्य में संभालने जा रही है? इसके नेता चाहे कितने भी गंधौरे हों, भाजपा, राजद, कांग्रेस टाइप दलों का छोटा से छोटा नेता भी उनसे कहीं ज्यादा नुकसान इस देश और समाज को पहुंचाता है। इन्हीं हरामजादों के गुन गाने की नौकरी हमारे-आप जैसे मीडिया में काम करने वाले लोग दिन रात बजाते हैं, लेकिन आपके किस्से की तारीफ करने वाले लोगों का स्वर कुछ ऐसा है जैसे पहली बार उन्हें किसी असली राक्षस के दर्शन हुए हों।
मन बहुत खिन्न है। यदि संभव हो तो इस कटु वचन के लिए पहले की तरह एक बार फिर मुझे क्षमा करें- कहीं आपका यह लेखन ज्यादा से ज्यादा हिट्स के लालच में अपना टुंड दिखाकर लोकप्रियता की भीख मांगने जैसा तो नहीं है?

जाहिर है चंद्रभूषण जी की टिप्पणी से मेरे दिल को चोट पहुंची तो मैंने भी उनका जवाब लिख मारा....
चंदू जी, सवाल ऊंची-ऊंची पगार पानेवालों को आदर्श मानने का नहीं है। सवाल है, जो नौजवान समाज के लिए ज्यादा उपयोगी हो सकता था, उसे कुंठा में डुबोकर किसी काम का नहीं छोड़ने का है। इसे उत्पादक शक्तियों का बरबादी भी कहा जा सकता है।
और, जो पार्टियां पहले से एक्स्पोज्ड हैं, उनके बारे में किसी को भ्रम नहीं है। जिनको लेकर भ्रम है, उसे छांटना ज़रूरी है। टुटपुंजिया दुकानों को समाज बदलाव का साधन मानने का भ्रम आप पाले रखिए, मुझे अब इनको लेकर कोई गफलत नहीं है।
रही बात आपके खिन्न मन और टुंड दिखाकर लोकप्रियता की भीख मांगने के आरोप की, तो मैं साफ कर दूं कि मैं पार्टी में रहता तो आपके बहुत सारे प्रिय लोगों की तरह आज टुंड दिखाकर भीख ही मांग रहा होता। आज मैं अपनी मेहनत से सम्मान की ज़िंदगी जी रहा हूं।
और, मुझे हिट ही पाना होता तो महोदय मैं सेक्स बेचता, टूट कर बनते-बिगड़ते किसान पृष्ठभूमि से आए एक आम आदर्शवादी हिंदुस्तानी नौजवान की कहानी नहीं कह रहा होता। ज़रा अपने अंदर पैठकर परखने की कोशिश कीजिए कि आप खिन्न क्यों हो रहे हैं?

अपनी सीमित समझ से मैंने आरोप का जवाब पेश कर दिया। वैसे, यह कहानी भले ही किसी को ऊल-जलूल लगे और किसी को खिन्न करे, लेकिन मुझे तो इसे पूरा करना ही है। हालांकि, मानस की आगे की ज़िंदगी भी कई हादसों की गवाह रही है। लेकिन इस बार उसे बस एक मोड़ तक पहुंचा कर छोड़ देना है।

Comments

आलोक said…
मूल कहानी की कड़ी तो पेश करें।
Anonymous said…
इनकी कहानी खत्म होने के बाद मैं एक पोस्ट लिखने वाली थी. पर अब रहा नहीं गया इस वजह से 2-4 बात अभी ही लिख रही हूं.

-ये कुछ 2-3 या 4 लोग हैं जो काइयां धमकियों के जरिए बराबर कहे जा रहें हैं कि चुप हो जाओ, मुंह बन्द कर लो वरना “ प्यारे“ अनिल तुम्हारा केरेक्टर असेसीनेशन करके रहेंगे.
-CPI-ML पार्टी नहीं भगवान है उसके चंद नेता कुछ भी करें सब सही है. जनता का कुछ भी हो इन नेताओं की वजह से, चलेगा. पार्टी के नेताओं की छवि बनी रहनी चाहिए कोई पोल-वोल नहीं खोली जानी चाहिए. जो लोग पोल नहीं खोलते बिचारे कितने अच्छे हैं चुप रह कर आखिर किनकी चाकरी कर रहे हैं?
-सच है हम वो लोग हैं जिन्हें राक्षस के दर्शन पहली बार किसी की हिम्मत की वजह से हो रहे हैं नहीं तो बड़े ‘सच्चे खिन्न होने वाले लोगों ‘ की वजह से ही आज तक/भी मेरे जैसी तमाम जनता सच से वंचित थी.
-चूंकि और पार्टियां गलत काम कर रही है तो यह पार्टी तिनका भर कम गलत काम कर रही है तो गलत क्या है. आप ही देख लें अपना यह बोदा तर्क.
-और मेरी मेरे पति से इल्तिज़ा है कि इन मंडलों, भूषणों और बहादूरों की हरकतों से दुखी ना हों और जो-जितना लिखा जाना चाहिए उतना ज़रुर लिखें.
-(बाद में हर बात की काट पेश करुं शायद!)
Anonymous said…
This comment has been removed by a blog administrator.
अनिल भाई, कोई आके रातोंरात इस देश में क्रांति कर देगा, यह गलतफहमी मुझे नहीं है और शायद जो लोग माले पार्टी के होलटाइमर हैं, उनको भी नहीं है। पूंजीवादी, पार्टीविरोधी और जनविरोधी हो जाने की गालियां भी मुझे शायद आपसे ज्यादा ही पड़ी होंगी क्योंकि पिछले दस-एक सालों से आप माले के मित्रों का कुछ निजी फायदा कराने की स्थिति में रहे हैं, जो कि न तो मैं अब हूं, न आगे कभी होने की कोई संभावना है। किसी का स्वामिभक्त होकर मैं आपसे बहस नहीं कर रहा, न किसी से करता हूं। एक खुले दिमाग वाला व्यक्ति आपको मानकर आपसे दो अपेक्षाएं जरूर हैं- एक, बाहरी शक्तियों के अलावा खुद के बारे में भी वस्तुगत हों, अन्य लोगों के अलावा अपनी पेचीदगियों की भी तलाश करें, ताकि बात और गहराई में उतरकर हो सके। और दो, किसी नए समाज के सपने को हमेशा पार्टी-पव्वे से ऊपर उठकर देखें, उसे हर हाल में, विपरीत से विपरीत परिस्थिति में भी जिंदा रखें, क्योंकि यही एक चीज है जो हमें चिथ्थड़ यथास्थितिवादी बनने से रोकती है। इन दोनों बातों का संबंध माले या मार्क्स से नहीं, बुद्ध, कबीर, हेराक्लाइटस और न जाने उन किन-किन लोगों का है, जिनका हवाला आप अपने लिखे में अक्सर देते रहे हैं? आप जितने प्यार से 'अपनी मेहनत की कमाई खाने' का जिक्र कर रहे हैं, उससे तो लगने लगा है कि बुद्ध आदि के समय में उनके साथ जाने वाले सारे लोग लूट की कमाई खाते रहे होंगे। सतही वाहवाहियों पर जीने वाला आपका यह निषेध किस मुकाम तक जाकर ठहरेगा? आखिर किन शब्दों में यह बात मैं आपसे कहूं कि आपसे बहस करना मेरे लिए खुद से बहस करने जैसा है, क्योंकि आज जो-जो आप लिख रहे हैं, उसे ही होलटाइमर जीवन से हटे मेरे समेत ज्यादातर लोग न जाने कितनी बार अपने दिमाग में लिख-लिखकर पुनर्विचार की कलम से काट देते रहे हैं। यहां ब्लॉग पर लिखी गई आपकी कहानीनुमा टिप्पणियों पर एतराज जताना बिल्कुल सिरे से मेरी बेवकूफी ही कही जाएगी, क्योंकि लाख चाहकर भी यहां किसी का कोई कर ही क्या सकता है, और करे भी क्यों- जब घटिया से घटिया चीज पर वाह-वाह करके ही यहां सबका मार्केट बढ़ता है। लेकिन जब भी मुझे लगेगा, मैं यह काम जरूर करूंगा- क्योंकि और किसी को हो या न हो- किसी पार्टी या किसी क्रांति या किसी अमूर्त जीवन मूल्य की बिना पर नहीं, आपसे अपने उस इकतरफा वैचारिक-भावनात्मक रिश्ते की बिना पर, जो अभी तक मेरी एकाधिक कविताओं और कहानियों का आधार बना है- मुझे आपसे बेहतर की उम्मीद हमेशा बनी रहेगी। मेरा आग्रह है कि मेरे साथ ब्लॉगरी वाले मानदंड न अपनाएं- न सुनने में और न कहने में। ठीक यही, बल्कि इससे भी ज्यादा निर्मम रवैया आप मेरे लिखे-पढ़े के प्रति बरतें- कभी उफ भी करूं तो आपका जूता मेरा सिर।
Anonymous said…
एक बात और- किरन बेदी ने एक बहुत सुंदर आंखें खोलने वाला article लिखा है - Zero tolerance- zero tolerance गलत कार्यों के प्रति. मैं ढुंढ रही हूं मिल गया तो लिंक ज़रुर पेश करुंगी.
काकेश said…
वाह वाह तो हम भी कर रहे थे जी.क्योंकि कहानी हमको अच्छी लग रही थी.अब कोई वाह वाह कहने से नाराज हो रहा है तो जी चुप हो जाते हैं.अब तो वह भी सोच समझ कर करने पड़ेगी.हम पढ़ते रहेंगे.पर वाह वाह नहीं करेंगे ..डर लगता है जी.
अपन तो पढ़ेंगे और जरुरत महसूस हुई तो वाह वाह भी करेंगे जी!!

आप तो बस जारी रखें!!

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