कुंडलिनी जगाने से कम नहीं है लिखना-पढ़ना

यकीनन, हम में से हर कोई एक हद तक आत्ममोह या सम्मोहन का शिकार होता है। हम कभी-कभी घरवालों और मित्रों से वही बात कहने लग जाते हैं जो पहले भी कई बार कह चुके होते हैं। लेकिन इससे भी संवादहीनता की ही स्थिति की पुष्टि होती है। ब्लॉग पर लिखना आज आपसी संवाद कायम करने का एक ज़रिया बन गया है। यह लिखना जितना ज्यादा बढ़ेगा, संवाद की स्थिति उतनी ही बढ़ती जाएगी। संवाद जितना बढ़ेगा, आत्म-सम्मोहन की स्थिति उतनी ही जर्जर होगी और एक कालखंड व देश-समाज में रहते हम सभी लोग किसी समान सत्य के करीब पहुंचते जाएंगे।
असल में हम पूरी जिंदगी संवेदनाओं और अनुभूतियों के अलग-अलग ऑरबिट/चक्रव्यूह से गुजरते रहते हैं। हर मंजिल पर चक्रव्यूह के सात नहीं, अनेक द्वार होते हैं। जैसे ही एक व्यूह के सारे द्वार तोड़कर हम कामयाब होने का उल्लास मना रहे होते हैं, तभी अचानक दूसरा चक्रव्यूह सामने आकर खड़ा हो जाता है। यह कुछ वैसा ही है जैसा हमारे योग-विज्ञान में कुंडलिनी को जाग्रत करने के बारे में कहा गया है। मूलाधार से सहस्रार चक्र तक की यात्रा में कुंडलिनी को सात से नौ चक्र तोड़ने होते हैं। तब कहीं जाकर खुलता है ज्ञान-चक्षु और खिलता है सहस्र दलों वाला कमल। वैसे, इस तुलना को हमारे संजय भाई ज्यादा अच्छी तरह व्याख्यायित कर सकते हैं।
लेकिन अक्सर ऐसा भी होता है कि हमारे कई मित्र इस अनंत यात्रा के दौरान कहीं बीच में ही ठहर जाते हैं। वो पूरे ‘कॉमरेड’ बन जाते हैं। उन्हें लगता है कि उन्होंने अपने अंदर ज्ञान का इतना भंडारण कर लिया है कि अब उन्हें बस इसे फू-फू करके उड़ाना भर है। उनके पास सारे सवालों के जवाब हैं। दूसरे जब उनकी बात नहीं समझते तो उन्हें लगता है कि जनता इतनी नासमझ है तो हम क्या, कोई भी इसका कुछ नहीं कर सकता। अपने अंदर आते इसी ठहराव को निरंतर तोड़ने की ज़रूरत पड़ती है। बराबर आत्म-निरीक्षण और आत्मालोचना के साथ ही खुद को औरों के आइने में परखने की ज़रूरत होती है।
हां, इतना ज़रूर है कि योगियों की तरह अंदर पैठने से हम सच तक कभी नहीं पहुंच सकते, सच के नाम पर भ्रम का चोंगा ज़रूर ओढ़ सकते हैं। हम जितना बाहर जाएंगे, उतना ही अपने अंदर पहुंचेंगे क्योंकि बाहर का हर बदलाव हमारे अंदर की दुनिया को छेड़ता है, कुछ नए तथ्य पैदा करता है तो कई पुराने सत्य उद्घाटित करता है। जो कुछ बाहर है, वही हमारे अंदर है। हम जैसा सोचते हैं, दुनिया वैसी नहीं होती। बाहरी दुनिया से ही हमारा आंतरिक संसार बनता है। हम ज़माने से हैं। ज़माना हम से कतई नहीं है।
हां, इतना ज़रूर है कि योगियों की तरह अंदर पैठने से हम सच तक कभी नहीं पहुंच सकते, सच के नाम पर भ्रम का चोंगा ज़रूर ओढ़ सकते हैं। हम जितना बाहर जाएंगे, उतना ही अपने अंदर पहुंचेंगे क्योंकि बाहर का हर बदलाव हमारे अंदर की दुनिया को छेड़ता है, कुछ नए तथ्य पैदा करता है तो कई पुराने सत्य उद्घाटित करता है। जो कुछ बाहर है, वही हमारे अंदर है। हम जैसा सोचते हैं, दुनिया वैसी नहीं होती। बाहरी दुनिया से ही हमारा आंतरिक संसार बनता है। हम ज़माने से हैं। ज़माना हम से कतई नहीं है।
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