ज़िद्दी ज़िंदगी को मंजूर नहीं थी मानस की मौत
 मेरी दिल्ली, मेरी शान। दिल्ली दिलवालों की। ऐसे ही कुछ नारे और ख्याल लेकर मानस दिल्ली पहुंचा था। दोस्तों ने आने से पहले चेताया था कि संभल कर आना, कहीं गोरख पांडे जैसा हाल न हो जाए। जवाब में उसने कहा था कि न तो वह इतना इमोशनल है और न ही इतना बच्चा। दिल्ली पहुंचने पर सदानंद का सहारा मिला। घनश्याम की घनिष्ठता मिली। काम भी जल्दी-जल्दी मिलता गया। कुछ महीनों में ही इन दो मित्रों की छत्रछाया में वह सेटल हो गया। उनके साथ ही उनके कमरे पर रहता था। सुबह 10 बजे काम पर निकलकर रात नौ बजे तक कमरे पर पहुंच जाता। दिल्ली में मुनीरका गांव के गंवई माहौल में ज़िंदगी चैन से कटने लगी।
मेरी दिल्ली, मेरी शान। दिल्ली दिलवालों की। ऐसे ही कुछ नारे और ख्याल लेकर मानस दिल्ली पहुंचा था। दोस्तों ने आने से पहले चेताया था कि संभल कर आना, कहीं गोरख पांडे जैसा हाल न हो जाए। जवाब में उसने कहा था कि न तो वह इतना इमोशनल है और न ही इतना बच्चा। दिल्ली पहुंचने पर सदानंद का सहारा मिला। घनश्याम की घनिष्ठता मिली। काम भी जल्दी-जल्दी मिलता गया। कुछ महीनों में ही इन दो मित्रों की छत्रछाया में वह सेटल हो गया। उनके साथ ही उनके कमरे पर रहता था। सुबह 10 बजे काम पर निकलकर रात नौ बजे तक कमरे पर पहुंच जाता। दिल्ली में मुनीरका गांव के गंवई माहौल में ज़िंदगी चैन से कटने लगी।लेकिन इस चैन में अक्सर उसे एक बेचैनी परेशान करती रहती। उसे लगता कि वह समय से आगे चलने की कोशिश में समय से काफी पीछे छूट गया है। अब उसे समय के साथ बहना है। समय और अपने बीच बन गए फासले को कवर करना है। इस जद्दोजहद में उसके अंदर धीरे-धीरे प्रतिकूलताओं से लड़ने का बुनियादी इंसानी जुनून वापस आ रहा था। लेकिन कभी-कभी उसे यह भी लगता कि उसने जनता के साथ गद्दारी की है।
एक दिन वह छत पर सो रहा था तो सपना आया कि कुरुक्षेत्र जैसा कोई मैदान है। सभी कटे-पिटे पड़े हैं। हर तरफ लाशों और घायलों का अंबार है। वह भागा जा रहा है। अचानक एक गढ्ढे में उसकी चप्पलें फंस गईं। नीचे देखा तो मिस्त्री ने उसका पैर पकड़ रखा था। पैर झड़कने पर भी मिस्त्री का हाथ नहीं छूटा क्योंकि वे तब तक दम तोड़ चुके थे। इसी बीच चाची ने पीछे से आकर उसे गढ्ढे में धकेल दिया और ठठाकर हंसने लगीं। मानस झटके से उठा तो पसीने से तर-ब-तर था। कृष्ण पक्ष की रात थी। सदानंद और घनश्याम नीचे कमरे में सो रहे थे। वह भी उठकर भीतर कमरे में चला गया।
ऐसे भावों में उठने-गिरने के बावजूद उसकी बाहरी ज़िंदगी का एक रूटीन बन गया। दोस्तों के साथ वह मंडी हाउस जाता। शनिवार-इतवार को नाटक देखता। सिरीफोर्ट ऑडीटोरियम में चुनिंदा फिल्में देखता। जेएनयू के मित्रों के बीच भी उठना-बैठना होता। दफ्तर में अपने काम और मेहनत की धाक जमा ली थी तो वहां भी औरों का पूरा सहयोग और प्यार मिलता। लेकिन रह-रहकर निरर्थकता का भाव भी उस पर छा जाता है। लगता इस तरह नौकरी करने, खाने और सोने का मतलब क्या है? इस बोध ने धीरे-धीरे एक बड़े शून्य की शक्ल अख्तियार कर ली, जिसमें न तो बाहर की कोई आवाज़ आती थी और न ही अंदर की कोई आवाज़ कहीं बाहर जाती थी।
 और, उसने इसी शून्य में घुटते-घुटते एक दिन बडा़ ही निर्मम फैसला कर डाला। एक पुराने ‘बैरी’ ने ट्रैंक्विलाइजर की गोली का नाम बताते हुए कहा था कि अगर कोई बीस गोली खा ले तो दो घंटे में दुनिया से उड़न-छू हो जाएगा। उसने आठ पर्चियों पर डॉक्टरों के प्रिस्क्रिप्शन का Rx चिन्ह बनाया, हर पर्ची पर पांच गोली की मांग लिखी और आठ दुकानों से 40 गोलियां खरीद लीं। सदानंद और घनश्याम दफ्तर चले गए। उसने खूब मल-मलकर नहाया-धोया। एकदम साफ प्रेस किए कपड़े पहने। बाहर जाकर शुद्ध शाकाहारी भोजन किया। मीठा पत्ता, बाबा-120, कच्ची-पक्की सुपाड़ी, इलायची का पान खाया। (एक दोस्त ने बताया था कि स्वर्ग में सब कुछ मिलता है, लेकिन तंबाकू नहीं) पान खाते हुए कमरे पर आया। फर्श पर पहले चटाई, उस पर दरी और उस पर सफेद चादर बिछाई। इनके साथ ही नया खरीदा गया तकिया सिरहाने पर लगाया।
और, उसने इसी शून्य में घुटते-घुटते एक दिन बडा़ ही निर्मम फैसला कर डाला। एक पुराने ‘बैरी’ ने ट्रैंक्विलाइजर की गोली का नाम बताते हुए कहा था कि अगर कोई बीस गोली खा ले तो दो घंटे में दुनिया से उड़न-छू हो जाएगा। उसने आठ पर्चियों पर डॉक्टरों के प्रिस्क्रिप्शन का Rx चिन्ह बनाया, हर पर्ची पर पांच गोली की मांग लिखी और आठ दुकानों से 40 गोलियां खरीद लीं। सदानंद और घनश्याम दफ्तर चले गए। उसने खूब मल-मलकर नहाया-धोया। एकदम साफ प्रेस किए कपड़े पहने। बाहर जाकर शुद्ध शाकाहारी भोजन किया। मीठा पत्ता, बाबा-120, कच्ची-पक्की सुपाड़ी, इलायची का पान खाया। (एक दोस्त ने बताया था कि स्वर्ग में सब कुछ मिलता है, लेकिन तंबाकू नहीं) पान खाते हुए कमरे पर आया। फर्श पर पहले चटाई, उस पर दरी और उस पर सफेद चादर बिछाई। इनके साथ ही नया खरीदा गया तकिया सिरहाने पर लगाया।चार छोटे-छोटे ज़रूरी खत लिखे। अगल-बगल अगरबत्तियां जलाईं। 40 गोलियां खाईं। बाहर का दरवाजा अंदर से चिपकाकर सिटकनी खोल दी। रेडियो पर विविध भारती के गाने चालू किए और सेज पर आकर लेट गया। रेडियो का हर गाना लगता उसी के लिए बजाया जा रहा हो। गांव, घर, सीवान, गोरू-बछरू, भाई-बहन, अम्मा-बाबूजी सबकी याद सावन-भादों के बादलों की तरह आने लगी। आंखों से आंसू बरसने लगे। इसी बीच न जाने कब वह गहरी नींद में डूब गया। डूबते-डूबते उसे एहसास हुआ कि गोलियों ने अपना असर दिखा दिया है और अब वह सबको अलविदा कहकर मर रहा है। यह उसके 28वें जन्मदिन से चार दिन पहले की तारीख थी, 24 सितंबर 1989...
लेकिन ज़िंदगी भी कितनी जिद्दी है! उसने मानस की मौत को मंजूर नहीं किया। करीब 40 घंटे की गहरी नींद के बाद वह उठ बैठा। सदानंद और घनश्याम उसके पास खड़े थे। पहले तो उन्हें लगा था कि थककर आया होगा, सो गया होगा। लेकिन जब लगातार दो दिन घर लौटने पर उन्होंने मानस को एक ही मुद्रा में सोते देखा तो उनका माथा ठनकने लगा। फिर उन्होंने उसे पलटा तो देखा कि मुंह से झाग-सा निकला हुआ है। फौरन पानी छिड़का और झकझोरा तो मानस की आंख धीरे-धीरे खुल गई। घनश्याम ने पूछा कि बात क्या है तो उसने जेब से निकालकर चारों खत उनके हाथ में थमा दिए और खुद मुंह नीचे करके लेटा रहा।
घनश्याम और सदानंद में कुछ बातें हुईं और वे दफ्तर जाने का कार्यक्रम रद्द कर उसे फौरन डॉक्टर के पास ले गए। डॉक्टर ने कहा कि इतनी लंबी नींद हो जाने से गोलियों का असर अब खत्म हो चुका है। लेकिन दो-तीन तक इन्हें ठोस खाने से परहेज करना होगा, जूस वगैरह ही ज्यादा मुनासिब रहेगा। मानस घर आ गया। दोनों मित्र उसका ज्यादा ही ख्याल रखने लगे। इस दौरान कई दिन तक वह चलता तो उसके पैर कहीं के कहीं पड़ते। लगता जैसे कोई बछड़ा जन्म लेने के तुरंत बाद उठकर चलने की कोशिश कर रहा हो। हां, मानस का इसी जीवन में पहला पुनर्जन्म हो चुका था और अब वह नई व्याख्या के साथ ज़िंदगी जीने को तैयार था।
आगे है - कहानी खत्म, मगर ज़िंदगी चालू है
 
 
Comments
जिन्दगी कितनी खूबसूरत है.
अत: यह व्यवहार किसी भी विचारधारा में हो सकता है!
लेकिन ऐसे मोड़ की उम्मीद नही थी, न ही मानस के व्यक्तित्व रेखांकन को देखते हुए इस मोड़ की उम्मीद थी!!
आप सब को दिवाली शुभ हो
सबके यहाँ आये खुशिया
दीये हो दिवाली के
रौशनी हो आशीर्वादों की
आये सब मिल कर
माहोल को मीठा
दिवाली पर बनाये
इस हफ्ते बिना
वाद विवाद के
संस्कार कुछ मीठे
मिल कर सब दे जाये
तीज त्यौहार
ना निकाले मित्र
मन की भडास
वैस ही ज़माने मे गम
कुछ कम नहीं है
कब कुछ हो जाये
और हम आप से दिवाली
भी ना मनाई जाये
कुछ गम भी हो तो दिवाली
पर आंखो के देखने दे सिर्फ
आतिश बाजी , दिये और , मिठाई
देश की तरक्की को देखे
भ्रम ही अगर खुशिया हमसब की
तो भ्रम मे चार दिन रहना मित्र
आशीर्वादों की रौशनी से
मन को अपने रोशन करना
Rachna