घरवाली को ही नहीं मिलता घर आधी ज़िंदगी

राजा जनक के दरबार में कोई विद्वान पहुंचे, योगी की जीवन-दृष्टि का ज्ञान पाने। जनक ने भरपूर स्वागत करके उन्हें अपने अतिथिगृह में ठहरा दिया और कहा कि रात्रि-भोज आप मेरे साथ ही करेंगे। भोज में नाना प्रकार के व्यंजन परोसे गए, लेकिन विद्वान महोदय के ठीक सिर पर बेहद पतले धागे से लटकती एक धारदार तलवार लटका दी गई, जिसके गिरने से उनकी मृत्यु सुनिश्चित थी। जनक ने भोजन लेकर डकार भरी तो विद्वान महोदय भी उठ खड़े हुए। राजा जनक ने पूछा – कैसा था व्यंजनों का स्वाद। विद्वान हाथ जोड़कर बोले – राजन, क्षमा कीजिएगा। जब लगातार मृत्यु आपके सिर पर लटकी हो तो किसी को व्यंजनों का स्वाद कैसे मालूम पड़ सकता है? महायोगी जनक ने कहा – यही है योगी की जीवन-दृष्टि।

आज भारत में ज्यादातर लड़कियां अपने घर को लेकर ‘योगी की यही जीवन-दृष्टि’ जीने को अभिशप्त हैं। जन्म से ही तय रहता है कि मां-बाप का घर उनका अपना नहीं है। शादी के बाद जहां उनकी डोली जाएगी, वही उनका घर होगा। लड़की सयानी होने पर घर सजाने लगती है तो मां प्यार से ही सही, ताना देती है कि पराया घर क्या सजा रही हो, पति के घर जाना तो अपना घर सजाना। बेटी मायूस हो जाती है और मजबूरन पति और नए घर के सपने संजोने लगती है। मां-बाप विदा करके उसे ससुराल भेजते हैं तो कहा जाता है – बेटी जिस घर में तुम्हारी डोली जा रही है, वहां से अरथी पर ही वापस निकलना।

लड़की ससुराल पहुंचती है, जहां सभी पराए होते हैं। केवल पति ही उसे अपना समझता है, लेकिन वह भी उसे उतना अपना नहीं मानता, जितना अपनी मां, बहनों या घर के बाकी सदस्यों को। भली सास भले ही कहे कि वह उसकी बेटी समान है, लेकिन विवाद की स्थिति में वह हमेशा अपनी असली बेटियों का पक्ष लेती है। जब तक सास-ससुर जिंदा रहते हैं, लड़की ससुराल को पूरी तरह अपना घर नहीं समझ पाती। अगर वह पति को किसी तरह वश में करके अलग घर बसाने को राज़ी कर लेती है तो दुनिया-समाज के लोग कहते हैं कि देखो, कुलच्छिनी ने आते ही घर को तोड़ डाला।

वैसे, पिछले 20-25 सालों में हालात काफी बदल चुके हैं। संयुक्त परिवार का ज़माना कमोबेश जा चुका है और न्यूक्लियर फेमिली अब ज्यादा चलन में हैं। लेकिन पुरुष अभी तक मां के पल्लू में ही शरण लेता है। ज्यादातर मां और घरवालों की ही तरफदारी करता है। लड़की यहां भी एकाकीपन का शिकार हो जाती है। जब तक बच्चे नहीं होते, तब तक पति से होनेवाले झगड़ों के केंद्र में ज्यादातर मां या बहनों की ख्वाहिशें ही होती हैं। बच्चे हो जाते हैं, तब यह स्थिति धीरे-धीरे बदलने लगती है। उसे निक्की-टिंकू की मम्मी कहा जाने लगता है। लेकिन तब तक लड़की की आधी ज़िंदगी बीत चुकी होती है। वह 35-40 साल की हो चुकी होती है।

सब कुछ ठीक रहा तो अब जाकर शुरू होती है अम्मा बन चुकी भारत की आम लड़की की अपने घर के सपने को पाने की मंजिल। कभी-कभी सोचता हूं कि ऐसा अभी कब तक चलता रहेगा क्योंकि विदेशों में तो यह सिलसिला बहुत पहले खत्म हो चुका है। वहां तो लड़की अपने पैरों पर खड़ा होने के पहले ही दिन से अपना घर बनाने लगती है। शादी करती है अपने दम पर और अपनी मर्जी से। पति के साथ घर बनाती है तो हर चीज़ में बराबर की साझीदार होती है। शादी टूटती है तो जाहिर है घर भी टूटता है। लेकिन वह अपने सपने, अपनी चीज़ें लेकर अलग हो जाती है। घर ही नहीं, अकेली माएं बड़े गर्व से अपने बच्चे भी सपनों की तरह पालती है।

Comments

आपने कल ज्ञान भइया कि पोस्ट चिन्दियाँ बीनने वाला पर एक टिपण्णी की थी "विकास के साथ ये चिंदिंयां बटोरनेवाले भी एक दिन विलुप्त हो जाएंगे। बस 10-15 सालों की बात है।" मुझे लगता है कि ये बात यंहा भी लागू होती है. " विकास के साथ-साथ यह स्थिति सुधर रही है, लोगों की मानसिकता मे परिवर्तन आ रहा है.
बालकिशन जी की बात से मैं सहमत हूँ ...कुछ सालों में हमारे देश की नारी की सोच भी बदलेगी...थोड़ी बहुत मानसिकता तो बदल चुकी है...पूरी बदलने में कुछ और समय बस... !
कुछ कतरे रोशनी के नजर आने लगे हैं। मैं कहूं तो जितना लूना मॉपेड ने नारी को लिबरेट किया है, उतना किसी विचारधारा ने नहीं। विकास नारी का साथ देगा।
आपने सच लिखा है। चीजें बदल रही हैं बेशक, लेकिन ऐसी भी नहीं कि सबकुछ सुंदर हो उठा है और अब ये चिंताएं बेमानी हैं। बदलाव ऐसे नहीं हैं कि अब घर अपना है, जीवन अपना है, आजादी है, स्‍पेस है। ये सारे दावे मिथ्‍या हैं, भ्रम हैं। घर अब भी अपना नहीं है, कुछ भी अपना नहीं है।
अब क्या कहूँ.. ये तो शायद घर घर की कहानी रहती होगी. अभी तक ओई ऐसा व्यक्तिगत अनुभव तो नहीं है पर पता नही.. क्या पता कभी ऐसा ही हो मेरे घर में भी..

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