हो गया बगैर ओज़ोन परत की धरती जैसा हाल
ट्रेन मुकाम पर पहुंचते-पहुंचते करीब दो घंटे लेट हो गई। सूरज एकदम सिर के ऊपर आ चुका था। रेलवे स्टेशन से मुख्य सड़क और फिर बाज़ार तक की दूरी मानस ने मस्ती से टहलते हुए काटी। देखा तो सामने ही सुबराती चचा का इक्का उसके कस्बे को जाने के लिए खड़ा था। चचा ने साल भर पहले की मरियल घोड़ी को हटाकर अब नई सफेद रंग की हट्टी-कट्टी घोड़ी खरीद ली थी। मानस उनके इक्के में तब से सवारी करता रहा है, जब वो नौ साल का था। बाहर बोर्डिंग में पढता था, तब भी पिताजी ट्रेन पकड़वाने के लिए सुबराती के इक्के से ही आते थे।
सुबराती चचा ने मानस को देखते ही बुलाकर इक्के पर बैठा लिया। जल्दी ही आठ सवारियां पूरी हो गईं और सफेद घोड़ी अपनी मस्त दुलकी चाल से इक्के को मंजिल की तरफ ले चली। रास्ते भर सुबराती किस्से सुनाते रहे कि कैसे फलाने के लड़के पर जिन्नात सवार हो गए थे और लड़का घर से भाग गया। फिर गाज़ी मियां के यहां मन्नत मांगी, उनका करम हुआ तो वही लड़का दस साल बाद जवान होकर भागा-भागा घर आ गया। मानस को लग गया कि सुबराती चाचा उसके बारे में भी यही सोच रहे हैं। खैर, वह बस हां-हूं करता रहा। इक्का ठीक उसके घर के आगे रुका। मानस ने उन्हें भाड़े के आठ रुपए दिए, सलाम किया और घर के भीतर दाखिल हो गया।
मानस ने घरवालों को अंतिम तौर पर लौट आने का फैसला सुनाया तो बाबूजी ने कहा कि सब गुरुजी (शांतिकुंज के पंडित श्रीराम शर्मा) की कृपा से हुआ है तो अम्मा ने कहा कि उसने पीर-औलिया और साधुओं से जो मन्नत मांगी थी, यह उसका नतीजा है। यह भी कहा गया कि मानस के ऊपर बुरे ग्रहों का साया था, जिसके चलते वह घर से भागा और उनके हट जाने पर लौट आया है। हफ्ते भर बाद ही मां उसे भरतकुंड के आयुर्वेदिक डॉक्टर के पास ले गई, जो डॉक्टर कम और तांत्रिक ज्यादा थे। यह वही भरतकुंड है, जिसके बारे में माना जाता है कि भरत ने राम के वनवास चले जाने पर यहीं पर बारह साल तक तप किया था।
भरतकुंड में तय तिथि और समय पर तांत्रिक डॉक्टर मिश्रा जी मानस को एक खंडहरनुमा घर के तहखाने में ले गए। वहां की काली दीवारों के बीच एक हवनकुंड बना हुआ था। तांत्रिक अनुष्ठान शाम को करीब छह बजे शुरू हुआ। बीच में मानस की चुटिया वाली जगह के थोड़े से बाल कैंची से काटे गए। साथ ही हाथ-पैर की सभी उंगलियों के नाखून काटे गए। करीब दो घंटे तक दीए की रौशनी में हवन और पूजा की गई। इसके बाद मिश्रा जी ने उसे एक ताबीज़ बनाकर दी, जिसे गुरुवार को गाय के ताज़ा दूध में डुबाकर एक खास मंत्र पढ़ने के बाद दाहिनी भुजा पर बांधना था।
मानस ने यह सब मां की तसल्ली के लिए किया। वापस बनारस भाई के पास पहुंचने पर उसने ताबीज़ उतारकर किनारे रख दी। पिताजी चाहते थे कि वह सिविल सर्विसेज या पीसीएस की परीक्षा दे। लेकिन मानस का सीधा-सा तर्क था कि घोड़ा कितना भी तेज़ दौड़नेवाला हो, अभ्यास छूट जाने पर वह रेस नहीं जीत सकता। उसके पास एक ही साल और बचा है, इसलिए वह कितनी भी मेहनत कर ले, इन प्रतियोगी परीक्षाओं में कामयाब नहीं हो पाएगा। हां, गणित में वह पैदाइशी तेज़ है और उसकी अंग्रेजी से लेकर जनरल नॉलेज तक अच्छी है, इसलिए वह बैंकों में प्रोबेशनरी अफसर (पीओ) बनने की कोशिश करेगा।
सो उसने बीएचयू के ब्रोचा हॉस्टल में रहकर पीओ बनने की जोरदार तैयारी शुरू कर दी। सुबह उठने से लेकर सोने-खाने सबका एक टाइम-टेबल बना डाला। कुछ नए मित्र भी बनाए। लेकिन इस दौरान वह बड़ी भयानक मानसिक स्थिति से गुज़रता रहा। उसकी हालत वैसी हो गई थी, जैसी ओजोन परत के पूरी तरह खत्म हो जाने पर धरती की होगी। उसे लगता जैसे उसके शरीर की सारी खाल निकाल ली गई हो, जिसे धूल का एक कण भी तिलमिला कर रख देता है। खुले घाव पर मिट्टी के पड़ने या आंखों में जहरीला कीड़ा घुस जाने पर होनेवाली जलन और दर्द की कल्पना कर आप मानस की हालत को समझ सकते हैं।
इसी अवस्था में सोते-जागते सात महीने गुज़र गए। मानस ने इस दौरान पीओ की दो परीक्षाएं दीं, जिनमें सीटें तो कम थीं, लेकिन उसे चुन लिए जाने का पूरा भरोसा था। इसी बीच स्टेट बैंक के पीओ का विज्ञापन आया जिसमें 300 सीटें थीं और वह परीक्षा केंद्र के रूप में पटना या दिल्ली का चुनाव कर सकता था। मानस ने दिल्ली को चुना। भाई के पास से यह कहकर निकला कि वह दिल्ली में परीक्षा देकर वापस आ जाएगा। लेकिन उसका असली इरादा कुछ और था।
वह दिल्ली के लिए निकला। एक कंबल, कुछ किताबें और वही लुंगी, तौलिया और टूथब्रश लेकर। उसे पीओ की नौकरी नहीं करनी थी तो उसने स्टेट बैंक की परीक्षा दी ही नहीं। दिल्ली में पहले अनुवाद का काम किया। इसके बाद एक पत्रिका में तीन महीने नौकरी की और फिर एक नई पत्रिका में उसे अच्छी नौकरी मिल गई। तनख्वाह थी 1800 रुपए महीना। न तो उसने भाई को कोई पता-ठिकाना बताया, न घरवालों को खत लिखा। इस दौरान भाई एक बार दिल्ली आकर तीन दिन तक उसे ढूंढकर लौट गए। वो बताने आए थे कि पीओ की दोनों लिखित परीक्षाओं में वह चुन लिया गया है। लेकिन मानस तो दोबारा घर से भाग चुका था। फिर, एकदम अकेले किसी नए सफर पर निकल चुका था।
आगे है - एक दिन हो गया ब्लैक आउट
सुबराती चचा ने मानस को देखते ही बुलाकर इक्के पर बैठा लिया। जल्दी ही आठ सवारियां पूरी हो गईं और सफेद घोड़ी अपनी मस्त दुलकी चाल से इक्के को मंजिल की तरफ ले चली। रास्ते भर सुबराती किस्से सुनाते रहे कि कैसे फलाने के लड़के पर जिन्नात सवार हो गए थे और लड़का घर से भाग गया। फिर गाज़ी मियां के यहां मन्नत मांगी, उनका करम हुआ तो वही लड़का दस साल बाद जवान होकर भागा-भागा घर आ गया। मानस को लग गया कि सुबराती चाचा उसके बारे में भी यही सोच रहे हैं। खैर, वह बस हां-हूं करता रहा। इक्का ठीक उसके घर के आगे रुका। मानस ने उन्हें भाड़े के आठ रुपए दिए, सलाम किया और घर के भीतर दाखिल हो गया।
मानस ने घरवालों को अंतिम तौर पर लौट आने का फैसला सुनाया तो बाबूजी ने कहा कि सब गुरुजी (शांतिकुंज के पंडित श्रीराम शर्मा) की कृपा से हुआ है तो अम्मा ने कहा कि उसने पीर-औलिया और साधुओं से जो मन्नत मांगी थी, यह उसका नतीजा है। यह भी कहा गया कि मानस के ऊपर बुरे ग्रहों का साया था, जिसके चलते वह घर से भागा और उनके हट जाने पर लौट आया है। हफ्ते भर बाद ही मां उसे भरतकुंड के आयुर्वेदिक डॉक्टर के पास ले गई, जो डॉक्टर कम और तांत्रिक ज्यादा थे। यह वही भरतकुंड है, जिसके बारे में माना जाता है कि भरत ने राम के वनवास चले जाने पर यहीं पर बारह साल तक तप किया था।
भरतकुंड में तय तिथि और समय पर तांत्रिक डॉक्टर मिश्रा जी मानस को एक खंडहरनुमा घर के तहखाने में ले गए। वहां की काली दीवारों के बीच एक हवनकुंड बना हुआ था। तांत्रिक अनुष्ठान शाम को करीब छह बजे शुरू हुआ। बीच में मानस की चुटिया वाली जगह के थोड़े से बाल कैंची से काटे गए। साथ ही हाथ-पैर की सभी उंगलियों के नाखून काटे गए। करीब दो घंटे तक दीए की रौशनी में हवन और पूजा की गई। इसके बाद मिश्रा जी ने उसे एक ताबीज़ बनाकर दी, जिसे गुरुवार को गाय के ताज़ा दूध में डुबाकर एक खास मंत्र पढ़ने के बाद दाहिनी भुजा पर बांधना था।
मानस ने यह सब मां की तसल्ली के लिए किया। वापस बनारस भाई के पास पहुंचने पर उसने ताबीज़ उतारकर किनारे रख दी। पिताजी चाहते थे कि वह सिविल सर्विसेज या पीसीएस की परीक्षा दे। लेकिन मानस का सीधा-सा तर्क था कि घोड़ा कितना भी तेज़ दौड़नेवाला हो, अभ्यास छूट जाने पर वह रेस नहीं जीत सकता। उसके पास एक ही साल और बचा है, इसलिए वह कितनी भी मेहनत कर ले, इन प्रतियोगी परीक्षाओं में कामयाब नहीं हो पाएगा। हां, गणित में वह पैदाइशी तेज़ है और उसकी अंग्रेजी से लेकर जनरल नॉलेज तक अच्छी है, इसलिए वह बैंकों में प्रोबेशनरी अफसर (पीओ) बनने की कोशिश करेगा।
सो उसने बीएचयू के ब्रोचा हॉस्टल में रहकर पीओ बनने की जोरदार तैयारी शुरू कर दी। सुबह उठने से लेकर सोने-खाने सबका एक टाइम-टेबल बना डाला। कुछ नए मित्र भी बनाए। लेकिन इस दौरान वह बड़ी भयानक मानसिक स्थिति से गुज़रता रहा। उसकी हालत वैसी हो गई थी, जैसी ओजोन परत के पूरी तरह खत्म हो जाने पर धरती की होगी। उसे लगता जैसे उसके शरीर की सारी खाल निकाल ली गई हो, जिसे धूल का एक कण भी तिलमिला कर रख देता है। खुले घाव पर मिट्टी के पड़ने या आंखों में जहरीला कीड़ा घुस जाने पर होनेवाली जलन और दर्द की कल्पना कर आप मानस की हालत को समझ सकते हैं।
इसी अवस्था में सोते-जागते सात महीने गुज़र गए। मानस ने इस दौरान पीओ की दो परीक्षाएं दीं, जिनमें सीटें तो कम थीं, लेकिन उसे चुन लिए जाने का पूरा भरोसा था। इसी बीच स्टेट बैंक के पीओ का विज्ञापन आया जिसमें 300 सीटें थीं और वह परीक्षा केंद्र के रूप में पटना या दिल्ली का चुनाव कर सकता था। मानस ने दिल्ली को चुना। भाई के पास से यह कहकर निकला कि वह दिल्ली में परीक्षा देकर वापस आ जाएगा। लेकिन उसका असली इरादा कुछ और था।
वह दिल्ली के लिए निकला। एक कंबल, कुछ किताबें और वही लुंगी, तौलिया और टूथब्रश लेकर। उसे पीओ की नौकरी नहीं करनी थी तो उसने स्टेट बैंक की परीक्षा दी ही नहीं। दिल्ली में पहले अनुवाद का काम किया। इसके बाद एक पत्रिका में तीन महीने नौकरी की और फिर एक नई पत्रिका में उसे अच्छी नौकरी मिल गई। तनख्वाह थी 1800 रुपए महीना। न तो उसने भाई को कोई पता-ठिकाना बताया, न घरवालों को खत लिखा। इस दौरान भाई एक बार दिल्ली आकर तीन दिन तक उसे ढूंढकर लौट गए। वो बताने आए थे कि पीओ की दोनों लिखित परीक्षाओं में वह चुन लिया गया है। लेकिन मानस तो दोबारा घर से भाग चुका था। फिर, एकदम अकेले किसी नए सफर पर निकल चुका था।
आगे है - एक दिन हो गया ब्लैक आउट
Comments
चल क्या रहा है मानस के दिमाग में।
तो इस तरह मानस पहुंचा पत्रकारिता मे?