Thursday 8 November, 2007

जीवन बायोलॉजिकल फैक्ट नहीं तो और क्या है?

सांप के केंचुल बदलने और आत्मा के शरीर बदलने को आप पुनर्जन्म कह सकते हैं। लेकिन मानस के लिए एक ही शरीर में आत्माओं का बदल जाना ही पुनर्जन्म है। इस समय वह तीसरे पुनर्जन्म से गुज़र रहा है। बाद के दो जन्मों की कथा कभी बाद में, अभी तो हम उसके पहले पुनर्जन्म की बात कर रहे हैं। वैसे, ज्ञानदत्त जी ने ठीक ही बताया कि मानस के साथ जो हुआ, वह किसी खास विचारधारा से जुड़े रहने पर ही नहीं, आस्था और विश्वास के किसी भी रूप से जुड़े रहने पर हो सकता है। आस्था या भरोसे के टूटने पर जो शून्य उपजता है, इंसान उसमें डूब जाता है।

हफ्ते-दस दिन में ही मानस के पैर ज़मीन पर सीधे पड़ने लगे। जीवन फिर ढर्रे पर चल निकला। इस बीच वह चिंतन-मनन से दो नतीजों पर पहुंचा। पहला, जीवन एक बायोलॉजिकल फैक्ट है। इसमें किसी को भी छेड़छाड़ करने की इज़ाजत नहीं दी जा सकती। यह शरीर जब तक और जिस हालत में जिंदा रहे, उसे ज़िंदा रहने देना चाहिए। और दूसरा, इंसान एक सामाजिक प्राणी है। उसके इर्दगिर्द के सामाजिक बंधन जैसे ही ढीले होते हैं, वह भयानक रिक्तता का एहसास करने लगता है। इसे मिटाने के लिए ज़रूरी है कि सामाजिक बंधनों को कसकर पुनर्स्थापित कर दिया जाए।

मानस के मन में अब किसी के लिए कोई कटुता नहीं बची थी। वह घर-परिवार से संबंधों को दुरुस्त करने और अतीत की टूटी-बिखरी कड़ियों को जोड़ने में जुट गया। घर जाकर सभी को अपने उत्तरदायित्व और ज़िम्मेदारी की भावना का यकीन दिलाया। वहां से लौटते हुए राजनीतिक काम वाले इलाके में गया ताकि साथी हरिद्वार के यहां से दो कार्टनों में रखी गई किताबें दिल्ली साथ ले आए। असल में मानस को किताबों से बड़ा मोह रहा है। हालांकि इलाहाबाद छोड़ते वक्त उसने जैसे-तैसे करके जुटाई गई सैकड़ों शानदार किताबें छात्र संगठन की लाइब्रेरी को दे दी थीं, जहां दो साल बाद उनके निशान भी ढूंढे नहीं मिले थे।

साथी हरिद्वार ने प्यार से बैठाया। हाल-चाल पूछा। लेकिन किताबें मांगने पर साफ कह दिया कि ये किताबें पार्टी की संपत्ति हैं और उसे नहीं दी जाएंगी, ऐसा ऊपर का आदेश है। मानस ने तर्क किया कि ये सभी किताबें तो अंग्रेज़ी में हैं, उन्हें यहां कौन पढ़ेगा। लेकिन अनुशासन के पक्के हरिद्वार ने साफ कह दिया कि ये किताबें आपने तब खरीदी थीं, जब आप होलटाइमर थे। इनमें पार्टी के सिम्पैथाइजर्स का पैसा लगा है। इसलिए पार्टी ने इन्हें जब्त कर लिया है। मानस के लिए यह छोटी, मगर गहरी चोट थी। क्या उसने पांच-छह साल तक जो मेहनत की थी, उसकी कीमत बस खाना-खुराकी तक सीमित थी? यह तो सरासर बेगार है! श्रम की ऐसी तौहीन तो पूंजीवाद भी नहीं करता।

वह खाली हाथ दिल्ली चला गया। लेकिन मन फिर भारी हो गया। खैर, उसने सिर झटक कर सोचा कि ये लोग अपने ही कर्मों से मरेंगे। वह तो इनके चंगुल से निकल चुका है। अब काहे का गिला-शिकवा। जीवन को बायोलॉजिकल फैक्ट मानकर वह धारा के साथ बहने लगा। सामाजिक बंधनों में बंधने के लिए उसने मां-बाप के कहने पर एक लड़की से शादी कर ली। शादी से पहले उसकी फोटो तक नहीं देखी। दोस्तों ने पूछा तो कहा – जिंदगी जुआ है और इसमें हारने-जीतने का अपना मज़ा है। फिर, हर लड़की गीली मिट्टी की तरह होती है, जिसे वह जैसा चाहे वैसा ढाल सकता है।

उसकी ज़िंदगी में एडवेंचर की वापसी हो चुकी थी। नौकरियों में भी उसने जमकर रिस्क लिया। दो साल में नौ नौकरियां बदलीं। मौके इतने मिलते रहे कि खुद को खुदा का राजकुमार मानने लगा। पत्रकार होने के नाते कई बार दलाल बनने के अवसर भी आए, लेकिन उसने पाया कि वह अगर चाहे भी तो नेता बन सकता है, पर किसी नेता का दलाल नहीं। परिवार और करियर में उतार-चढ़ाव आते रहे। उसे यह भी इलहाम हुआ कि इंसान क्या है, इसका निर्धारण इससे होता है कि आप कौन-सी नौकरी कर रहे हैं और आपने शादी किससे की है।

साल दर साल बीतते गए। देश में ग्लोबलाइजेशन का दौर चल निकला। दुनिया में एक बैरल कच्चे तेल का दाम 16 डॉलर से 100 डॉलर पर जा पहुंचा। क्रांतिकारी पार्टी भूमिगत ढांचे से खुले में आ गई। कहीं-कहीं उसने पुरानी स्थापित कम्युनिस्ट पार्टियों और उनके जनसंगठनों को तगडी़ टक्कर दी। लेकिन कुल मिलाकर उसके जनाधार में खास फर्क नहीं पड़ा है। नेता अब किसी सिम्पैथाइजर के घर में शेल्टर लेने के बजाय दफ्तरों में रहने लगे हैं। लेकिन ऊपर से देखने पर यही लगता है कि पौधे ज़मीन से नहीं, आसमान से अपनी खुराक खींचते हैं। विष्णु जी पार्टी के केंद्रीय दफ्तर में रोजमर्रा का काम देखते हैं। वर्मा जी दूसरे राज्य में पार्टी के प्रवक्ता हो गए हैं।

इस दौरान दुर्भाग्य ने मानस को कई बार जमींदोज़ किया। लेकिन वह धूल छाड़कर फिर खड़ा हो गया। हादसे तो उसकी ज़िंदगी में ऐसे आए जैसे नियति ने उसे प्रयोग की वस्तु बना लिया हो। धीरे-धीरे नरम-गरम की आदत पड़ गई तो देश और समाज के प्रति उसका समर्पण फिर ज़ोर मारने लगा। वह विचार और कर्म में एकता बनाने की जद्दोजहद में लगा ही था कि एक दिन पार्टी के कुछ स्वनामधन्य प्रवक्ताओं और जीवन की ऊष्मा से रहित बुद्धिजीवियों ने उसे भगोड़ा, लालची, अवसरवादी और विचारों का हत्यारा करार दिया।

वह सोच में पड़ गया कि अनिश्चय के भरी ज़िंदगी में निहत्थे कूद पड़ना अवसरवाद है या आम हिंदुस्तानियों की कम्युनिस्ट आस्था और पुराने परिचय को भुनाकर नगरों-महानगरों की चौहद्दी में अपनी खोली चलाते रहना अवसरवाद है? अरे, क्रांति किसी पार्टी की जागीर नहीं होती। नेता और क्रांतिकारी किसी देश के सामाजिक-राजनीतिक जीवन की प्रयोगशाला में तैयार होते हैं। पार्टी की कार्यशालाएं तो अंध-अनुयायी, ढिंढोरची और कैडर ही तैयार करती हैं। ...इति

ईशर आवैं, दलिद्दर जाएं... सुख-समृद्धि का त्योहार दीवापली मुबारक हो!

9 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

अच्छा लिखा है।
दिवाली की बहुत-बहुत बधाई।

Udan Tashtari said...

बीच के कई चेप्टर गायब करते हुए एकाएक इति.

आप एवं आपके परिवार को दीपावली की शुभकामनाएं।

Sanjeet Tripathi said...

मेरा विरोध दर्ज करें, आपने इति नही किया इसे जल्दबाज़ी में समेट दिया है!!

अनिल रघुराज said...

संजीत जी और समीर भाई, आप सही कह रहे हैं कि मैंने जल्दबाजी में इति कर दी। क्या करता अतीत में इतने दिनों से झांकते-झांकते ऊब गया था। वैसे मानस की कथा की फुटकर-फुटकर बातें कच्ची कहानियां और अंतर्मन टैग में आती रही हैं, आगे भी आती रहेंगी। बस, इतना तारतम्य नहीं रहेगा। आप सभी लोगों ने इस चरित्र के साथ सहानुभूति दिखाई, इससे इसे और विकसित करने के बारे में मेरा उत्साहवर्धन हुआ है। मैं इसे संवेदनशील भारतीय आदर्शवादी नौजवान का प्रतिनिधि बनाना चाहता हूं। इसमें हमेशा आप लोगों के योगदान की जरूरत पड़ेगी। एक बात फिर मैं आश्वस्त कर दूं कि मैं जो भी कुछ लिखूंगा उसमें मानस की अंतर्कथा, उसके अंदर और बाहर के संघर्ष हमेशा अंतर्धारा बनकर मौजूद रहेगी। वैसे, मैं मानता हूं कि मानस की इस कथा को सचमुच मैं कहानी नहीं बना पाया। बस एक नैरेशन था, जो खिंचता गया। फिर भी आप लोगों ने तहेदिल से इसे सराहा, इसके लिए बहुत-बहुत शुक्रिया...

रवीन्द्र प्रभात said...

तम से मुक्ति का पर्व दीपावली आपके पारिवारिक जीवन में शांति , सुख , समृद्धि का सृजन करे ,दीपावली की ढेर सारी बधाईयाँ !

Gyan Dutt Pandey said...

किसी भी विचारधारा को अगर अंतत: दफन करना हो तो उसे ऑर्गनाइजेशन या पार्टी का चोला पहना देना चाहिये। फिर स्वार्थों की खींचतान उसका मर्सिया पढ़ ही देंगी!

Sanjeet Tripathi said...

अनिल जी, मानस का चरित्र संवेदनशील भारतीय आदर्शवादी नौजवान का ही प्रतीक लगा मुझे, जिसके आदर्श जब टूटते है तो सिर्फ़ आदर्श ही नही टूटते बल्कि वह खुद ही टूटा हुआ महसूस करता है। वह अपने आदर्शों को अनेकानेक बार खोखला पाता है।

Anonymous said...
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बालकिशन said...

अच्छा लगा. मानस की पूरी कथा पढ़कर. और अब मानस तैयार है. लेकिन एक डर मन मे समा गया है. कंही मानस "वर्माजी" ना बन जाए.