दुखवा मैं कासे कहूं री मोरी सजनी
ऊपर से भले ही अलग-अलग दिखें, लेकिन साहित्यकार और धर्मगुरु एक ही श्रेणी के लोग होते हैं। ऐसी-ऐसी बातें कहकर चले जाते हैं जिन पर अमल करना मुमकिन ही नहीं होता। उनको तो बस प्रवचन देना होता है! मानस पुश्किन की लिखी बात याद करके मन ही मन यही सब बड़बड़ कर रहा था। वह अपनी समझ से पीछे लौटने के सारे पुलों को तोड़ कर निकला था। लेकिन आज उसे वहीं लौटना पड़ रहा है, जहां उसने इस जन्म में दोबारा लौटने की गुंजाइश खत्म कर दी थी। उसे एहसास हो गया है कि सफर हमेशा आगे ही नहीं बढ़ता। कभी-कभी आगे बढ़ने के लिए पीछे भी लौटना पड़ सकता है। इसलिए दुनियादारी का तकाज़ा यही है कि सारे पुलों को कभी नहीं तोड़ना चाहिए क्योंकि कभी-कभी लौटने की जरूरत भी पड़ सकती है।
दीपिका जब मानस से टकराकर खास औरताना अंदाज में बांहें झुलाती निकल गई, तब दोपहर के दो ही बजे थे। मानस के कस्बे के सबसे पास के स्टेशन चौरेबाज़ार के लिए अगली ट्रेन रात के करीब दस बजे जाती थी। लेकिन वह इससे नहीं, सुबह सवा चार बजे वाली ट्रेन से जाना चाहता था क्योंकि कम से कम 40 बार इस ट्रैक से गुजरे सफर को वो आखिरी बार सांस भरकर देखना और जीना चाहता था। खाना-वाना खाकर कई घंटे आवारागर्दी करता रहा। फिर करीब नौ बजे प्रयाग स्टेशन पहुंचकर वेटिंग एरिया में लुंगी बिछाई और झोले का तकिया बनाकर लेट गया। सुबह चार बजने का इंतज़ार करने लगा। पास में ही एक साधूबाबा घूंघट में ढंकी दो महिलाओं के साथ ‘मुफुत का सलीमा’ दिखा रहे थे, लेकिन वह अपने से ही आक्रांत था। इन दृश्यों में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं थी।
उस पर यही सच बहुत भारी गुज़र रहा था कि जिस शहर में उसने ज़िंदगी के बेहतरीन पांच-छह साल गुजारे हैं, जहां अब भी उसे जानने-पहचानने वाले 40-50 लोग हैं, उसी शहर में उसे स्टेशन पर रात बितानी पड़ रही है। लेकिन यह तो खुद उसी ने तय किया था। दिक्कत यह थी कि उसके बारे में इतनी सकारात्मक बातें फैल चुकी थीं कि वह इन लोगों को कोई उल्टी चीज़ बताकर न तो अपनी सफाई देना चाहता था और न ही उनकी दया का पात्र बनना चाहता था।
आंखों ही आंखों में सुबह हो गई। ट्रेन करीब 40 मिनट देरी से आई। यूं तो यूनिवर्सिटी के दिनों में बगैर टिकट चलना उसे काफी एडवेंचरस लगता था, लेकिन क्रांतिकारी पार्टी में इतने साल काम करने के बाद वह डरने लगा था। आज वह टिकट लेकर सफर कर रहा था। फाफामऊ के पास ट्रेन गंगा के पुल पर पहुंची तो उसे याद आ गया कि कैसे घर से आखिरी बार लौटने पर उसने इसी पुल से हाईस्कूल, इंटरमीडिएट और बीएससी के अपने सारे सर्टीफिकेट और मार्कशीट गंगा में बहा दी थीं ताकि वह लौटना भी चाहे तो घर से दफ्तर और दफ्तर से घर वाली ज़िंदगी को पाने के लिए वापस न लौट सके। लेकिन अब तो उसे इन सभी की ज़रूरत पड़ेगी।
उसकी हालत न खुदा ही मिला, न बिसाले सनम वाली हो गई थी। बेहद एकाकी हो गया था वह। कोई भी ऐसा नहीं था, जिससे वह अपनी पीर बांट सके। ट्रेन भारतीय रेल की रफ्तार से चली जा रही थी और खिड़की के पास वाली सीट पर बैठा वह पुरानी यादों में हिचकोले ले रहा था। पहला दृश्य। इलाहाबाद जिले का कोरांव इलाका, जहां वह एमएससी करने के दौरान आदिवासियों और दलितों के बीच राजनीतिक काम के लिए जाता था। आखिरी बार जीप में बैठकर निकला। पीछे-पीछे आवाज़ लगाता 20 साल का एक नौजवान रमाशंकर। मानस ने ड्राइवर को हाथ मारकर जीप रुकवाई। रमाशंकर हांफते-हांफते पास आए। मानस की हथेली में कुछ डालकर बोले – साथी इसे रख लीजिए। जीप चल पड़ी। मानस ने देखा, उसकी हथेली में दो रुपए के सात मुड़े-तुड़े पुराने नोट थे। भूमिहीन परिवार के जिस लड़के पास पढ़ने की फीस नहीं जुटती थी, उसने साथी को 14 रुपए की विदाई दी थी। सुदामा के चावलों की कीमत यकीनन इसके आगे कहीं नहीं ठहरती। इस याद से मानस का गला रुंध गया।
अगला दृश्य। गोंडा ज़िले के एक गांव में पार्टी की बैठक जिसमें राष्ट्रीय सम्मेलन के लिए प्रतिनिधियों का चुनाव किया जा रहा है। मानस ने भी बोलने के लिए अपना नाम दे रखा था। अनुभव से निकली बहुत सारी ठोस बातें थीं, कई सुझाव थे। उसने ये सारा कुछ अपने साथी इलाहाबादी छात्रनेता से शेयर किया। पहले बोलने का नंबर इन्हीं मेधावी छात्रनेता का आया। उन्होंने मानस की सारी बातें बहुत सलीके से, सिलसिलेवार तरीके से बैठक में रख दीं। मानस अपना नंबर आने पर कुछ नहीं बोला क्योंकि उसके पास अब बोलने के लिए कुछ बचा ही नहीं था। मेधावी छात्रनेता राष्ट्रीय सम्मेलन के लिए प्रतिनिधि चुन लिए गए। मानस को समझ में आ गया कि पार्टी किसी द्वीप पर नहीं बसी है। जो दुनिया बाहर है, वहीं इसके अंदर भी है। जो करियरिज्म बाहर है, वह त्यागियों से भरी क्रांतिकारी पार्टी के भीतर भी मौजूद है।
दीपिका जब मानस से टकराकर खास औरताना अंदाज में बांहें झुलाती निकल गई, तब दोपहर के दो ही बजे थे। मानस के कस्बे के सबसे पास के स्टेशन चौरेबाज़ार के लिए अगली ट्रेन रात के करीब दस बजे जाती थी। लेकिन वह इससे नहीं, सुबह सवा चार बजे वाली ट्रेन से जाना चाहता था क्योंकि कम से कम 40 बार इस ट्रैक से गुजरे सफर को वो आखिरी बार सांस भरकर देखना और जीना चाहता था। खाना-वाना खाकर कई घंटे आवारागर्दी करता रहा। फिर करीब नौ बजे प्रयाग स्टेशन पहुंचकर वेटिंग एरिया में लुंगी बिछाई और झोले का तकिया बनाकर लेट गया। सुबह चार बजने का इंतज़ार करने लगा। पास में ही एक साधूबाबा घूंघट में ढंकी दो महिलाओं के साथ ‘मुफुत का सलीमा’ दिखा रहे थे, लेकिन वह अपने से ही आक्रांत था। इन दृश्यों में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं थी।
उस पर यही सच बहुत भारी गुज़र रहा था कि जिस शहर में उसने ज़िंदगी के बेहतरीन पांच-छह साल गुजारे हैं, जहां अब भी उसे जानने-पहचानने वाले 40-50 लोग हैं, उसी शहर में उसे स्टेशन पर रात बितानी पड़ रही है। लेकिन यह तो खुद उसी ने तय किया था। दिक्कत यह थी कि उसके बारे में इतनी सकारात्मक बातें फैल चुकी थीं कि वह इन लोगों को कोई उल्टी चीज़ बताकर न तो अपनी सफाई देना चाहता था और न ही उनकी दया का पात्र बनना चाहता था।
आंखों ही आंखों में सुबह हो गई। ट्रेन करीब 40 मिनट देरी से आई। यूं तो यूनिवर्सिटी के दिनों में बगैर टिकट चलना उसे काफी एडवेंचरस लगता था, लेकिन क्रांतिकारी पार्टी में इतने साल काम करने के बाद वह डरने लगा था। आज वह टिकट लेकर सफर कर रहा था। फाफामऊ के पास ट्रेन गंगा के पुल पर पहुंची तो उसे याद आ गया कि कैसे घर से आखिरी बार लौटने पर उसने इसी पुल से हाईस्कूल, इंटरमीडिएट और बीएससी के अपने सारे सर्टीफिकेट और मार्कशीट गंगा में बहा दी थीं ताकि वह लौटना भी चाहे तो घर से दफ्तर और दफ्तर से घर वाली ज़िंदगी को पाने के लिए वापस न लौट सके। लेकिन अब तो उसे इन सभी की ज़रूरत पड़ेगी।
उसकी हालत न खुदा ही मिला, न बिसाले सनम वाली हो गई थी। बेहद एकाकी हो गया था वह। कोई भी ऐसा नहीं था, जिससे वह अपनी पीर बांट सके। ट्रेन भारतीय रेल की रफ्तार से चली जा रही थी और खिड़की के पास वाली सीट पर बैठा वह पुरानी यादों में हिचकोले ले रहा था। पहला दृश्य। इलाहाबाद जिले का कोरांव इलाका, जहां वह एमएससी करने के दौरान आदिवासियों और दलितों के बीच राजनीतिक काम के लिए जाता था। आखिरी बार जीप में बैठकर निकला। पीछे-पीछे आवाज़ लगाता 20 साल का एक नौजवान रमाशंकर। मानस ने ड्राइवर को हाथ मारकर जीप रुकवाई। रमाशंकर हांफते-हांफते पास आए। मानस की हथेली में कुछ डालकर बोले – साथी इसे रख लीजिए। जीप चल पड़ी। मानस ने देखा, उसकी हथेली में दो रुपए के सात मुड़े-तुड़े पुराने नोट थे। भूमिहीन परिवार के जिस लड़के पास पढ़ने की फीस नहीं जुटती थी, उसने साथी को 14 रुपए की विदाई दी थी। सुदामा के चावलों की कीमत यकीनन इसके आगे कहीं नहीं ठहरती। इस याद से मानस का गला रुंध गया।
अगला दृश्य। गोंडा ज़िले के एक गांव में पार्टी की बैठक जिसमें राष्ट्रीय सम्मेलन के लिए प्रतिनिधियों का चुनाव किया जा रहा है। मानस ने भी बोलने के लिए अपना नाम दे रखा था। अनुभव से निकली बहुत सारी ठोस बातें थीं, कई सुझाव थे। उसने ये सारा कुछ अपने साथी इलाहाबादी छात्रनेता से शेयर किया। पहले बोलने का नंबर इन्हीं मेधावी छात्रनेता का आया। उन्होंने मानस की सारी बातें बहुत सलीके से, सिलसिलेवार तरीके से बैठक में रख दीं। मानस अपना नंबर आने पर कुछ नहीं बोला क्योंकि उसके पास अब बोलने के लिए कुछ बचा ही नहीं था। मेधावी छात्रनेता राष्ट्रीय सम्मेलन के लिए प्रतिनिधि चुन लिए गए। मानस को समझ में आ गया कि पार्टी किसी द्वीप पर नहीं बसी है। जो दुनिया बाहर है, वहीं इसके अंदर भी है। जो करियरिज्म बाहर है, वह त्यागियों से भरी क्रांतिकारी पार्टी के भीतर भी मौजूद है।
आगे है : मानस के लिए जीवन बन गया बायोलॉजिकल फैक्ट
Comments
यह भी वैसे ही हैं जैसे भाजपा के राज में आरएसएस वाले निकले!
एक तो तारतम्यता फ़िर बहाव फ़िर पाठक मन की उत्सुकता को ऐसे लाकर छोड़ते हैं कि मन में खुदबुदाहट सी मच जाती है कि आगे क्या होगा……
वाकई प्रियंकर जी सही कह रहे हैं, प्रतीक्षा!!
आपका लेखन मार्ग दर्शन कर रहा है. धन्यवाद
और, जो पार्टियां पहले से एक्स्पोज्ड हैं, उनके बारे में किसी को भ्रम नहीं है। जिनको लेकर भ्रम है, उसे छांटना ज़रूरी है। टुटपुंजिया दुकानों को क्रांति और समाज बदलाव का साधन मानने का भ्रम आप पाले रखिए, मुझे अब इनको लेकर कोई गफलत नहीं है।
रही बात आपके खिन्न मन और टुंड दिखाकर लोकप्रियता की भीख मांगने के आरोप की, तो मैं साफ कर दूं कि मैं पार्टी में रहता तो आपके बहुत सारे प्रिय लोगों की तरह आज टुंड दिखाकर भीख ही मांग रहा होता। आज मैं अपनी मेहनत से सम्मान की ज़िंदगी जी रहा हूं।
और, मुझे हिट ही पाना होता तो महोदय मैं सेक्स बेचता, टूटकर बनते-बिगड़ते किसान पृष्ठभूमि से आए एक आम आदर्शवादी हिंदुस्तानी नौजवान की कहानी नहीं कह रहा होता। ज़रा अपने अंदर पैठकर परखने की कोशिश कीजिए कि आप खिन्न क्यों हो रहे हैं?
चंद्रभूषण जी, हम पाठक वर्ग हैं जो एक अच्छी कहानी पढ़कर अभिभूत हो रहे हैं। यह किसी को बेपर्दा करते या होते देखकर होने वाली प्रसन्नता नहीं है, हम मानस नामक पात्र के मोहभंग की प्रक्रिया को दम साधे देख रहे हैं। इतनी उत्सुकता इसलिए है कि मानस हमें कमज़ोरियों से भरा पूरा आम आदमी लगता है, और हम कहीं न कहीं अपना जुड़ाव महसूस करते हैं। बस इतनी सी बात है। यह कुल मिलाकार आदर्शों, सपनों की एक यात्रा है। यह रोचक है, और इसमें ईमानदारी की गंध है जो आजकल लेखन में दुर्लभ दिखाई देती है। यह अच्छे लेखन की सराहना मात्र है। कृपया इसे अन्यथा न लें।
आपकी प्रतिक्रिया भी हमें दिलचस्प लगती है और आप भी हमारी पसंदीदा सूची में शामिल हैं। कृपया आप अपनी संघर्ष यात्रा भी प्रस्तुत करें, शायद हमारा कुछ और ज्ञानवर्धन हो।
युवा पीढी का आदर्श न तो ऊंची-ऊंची पगार पाने वाले करियरिस्ट होने चाहिए और न भ्रष्ट राजनेता-खिलाड़ी-सिने कलाकार . पर हो रहे हैं . हमारी-आपकी छटपटाहट के बावजूद हो रहे हैं . आदर्श तो गांधी होने चाहिए . पर हैं क्या ? अभी चंद्रभूषण जी ही अपनी ज्ञानात्मक टिप्पणी ठेल देंगे गांधी दर्शन की समालोचना में . पर अपनी वैचारिक यात्रा में साथी रहे नेताओं की आलोचना से आंतों में ऐंठन होती है . क्या किया जाए, हम ऐसे ही हैं . कोई वीतरागी तो हैं नहीं .
इधर एक फंडे से सबकी सहमति है . जो हुआ सो हुआ पर पुराने घाव क्यों कुरेदे जाएं . यह राजनीति के नरेन्द्र मोदी स्कूल की प्रमुख स्थापना है जो समय-समय पर सबको माफ़िक आती है . जैसे अभी चंद्रभूषण जी को रास आ रही है .
रही बात किस्सा सुन कर दांत चियारने की तो जो भकुआ चियार रहा हो सो चियार रहा हो,हम तो बात को पूरे 'कम्पैशन'-- पूरी सहानुभूति के साथ पढ-सुन रहे हैं .
बुरे लोग कहीं भी हों वे एक न एक दिन बेनकाब होंगे ही .कोई न कोई सच कहने की हिम्मत करेगा ही .टुंड तो बाहरी चीज़ है कई बार अनचाहे भी दिखता-दिखाता रहता है . पर अगर आत्मा कोढग्रस्त हो जाए तो क्या किया जाए ?
इसे मानस की कथा को बेचैनी के साथ पढ रहे एक सामान्य पाठक की टिप्पणी माना जाए जो अंतर्कथाओं से अपरिचित है .