इस ब्लॉग से बुढ़ापे की पेंशन तो मिलने से रही

शनिवार शाम को जब से अभय के यहां से लौटा हूं, मन बूड़ा-बूड़ा जा रहा है। अभी तक दसियों लोगों से ढिंढोरा पीट डाला था कि आप लोग बचत में लगे रहो, मैंने तो ब्लॉग बनाकर अपने बुढ़ापे की पेंशन का इंतज़ाम कर लिया है। दस साल बाद जब रिटायर हूंगा तब तक ब्लॉग से कम से कम 1000 डॉलर कमाने लगूंगा, यानी हर महीने करीब 40,000 रुपए बैंक खाते में आ जाएंगे। बुढ़ऊ को अपने लिए और कितना चाहिए होगा? बेटियां शादी करके अपने घर जा चुकी होंगी। मकान तब तक अपना हो चुका होगा। मेडिकल इंश्योरेंस अभी से कराकर रखेंगे। बूढ़ा-बूढ़ी नियम-धरम से स्वास्थ्य का पूरा ख्याल रखेंगे। शायद तब तक इंटरनेट भी मुफ्त हो चुका होगा। बुढ़ऊ मज़े से ब्लॉग पर डायरी लिखेंगे, अपना ‘ज्ञान’ और संस्मरण बांटेंगे। टाइम-पास का टाइम-पास और कमाई ऊपर से।

लेकिन अभय ने सारा भ्रम मिट्टी में मिलाय दिया। बोले – कम से कम दस हज़ार विजिटर रोज़ आने लगेंगे, तभी कमाई की बात सोची भी जा सकती है। मैंने इधर दो-दो पोस्ट लिखकर विजिटरों की संख्या बढ़ाकर 140-150 के औसत तक पहुंचा दी थी। लेकिन शनिवार के सत्य ने ऐसी मिट्टी पलीद की कि रविवार को मानस की कथा लिखने का मन ही नहीं हुआ। मित्र ने एक और भ्रम दूर किया कि जल्दी लिखने या दो-दो पोस्ट लिखने का कोई फायदा नहीं है क्योंकि वही पाठक (ब्लॉगर) सुबह भी आते हैं और शाम को मजबूरी में दूसरी पोस्ट भी पढ़ते हैं। इस तरह असल में पाठक तो बमुश्किल 50-75 ही होते हैं।

अब मैं फिक्रमंद हो गया। आज के हालात में मर-खप कर रोज़ के 500 विजिटर भी हासिल कर लूं, तब भी महीने में 100 डॉलर (4000 रुपए) नहीं आनेवाले। यानी इंटरनेट का खर्चा भी पूरा नहीं निकलेगा। यहीं पर विमल की बात भी याद आ गई। पिछले महीने नेट का उनका बिल 7000 रुपए तक जा पहुंचा तो अचानक घर से ब्लॉग लिखना और पढ़ना ही बंद कर दिया। अब बच्चू को समझ में आया कि पसंदीदा गाने सुनाने की क्या कीमत होती है!

मैं खुद को समझाने लगा कि बीबीसी हिंदी, दैनिक जागरण, अमर उजाला या भास्कर जैसी समाचारों की साइट पर तो दसियों हज़ार लोग रोज़ आते होंगे तो क्या हमें पांच हज़ार भी नहीं मिल सकते! फिर खुद ही इस भ्रम का निराकरण भी कर डाला कि उनके जितनी वेरायटी मैं कहां से लाऊंगा। ऊपर से उनके जितना अपने ब्लॉग का प्रचार करना कतई संभव नहीं है।

खैर, इसी निराशा के बीच मैंने कहीं से ढूंढ़ी गई टेक्स्ट लिंक ऐड की साइट पर अपने ब्लॉग का जूस निकालने और ऐड के रेड पकड़ने की कोशिश की। पता चला कि आज की तारीख में दस ऐड भी साइड बार में लगा दूं, तब भी 50 डॉलर ही मिलेंगे। मैंने कहा – चलो भागते भूत की लगोंटी ही सही। फटाफट इस साइड पर रजिस्ट्रेशन करा डाला। इसके बाद असली रेट आंका गया तो पता चला कि यहां से मुझे अभी फूटी कौड़ी भी नहीं मिल सकती। साइट ने मुझे अपनी एफिलिएट साइट पर ढकेल दिया जो ऐडसेंस जैसा ही नॉनसेंस परोसती है।

अब कोई मेरे ब्लॉग पर आएगा तो मेरा लिखा पढ़ ले, यही काफी है। ऐड पर कोई शायद ही कभी क्लिक करेगा? और जब कोई क्लिक ही नहीं करेगा तो ऐडसेंस या कोई दूसरा नॉनसेंस क्यों आपके खाते में जमाराशि को ज़ीरो डॉलर से ऊपर चहुंपने देगा!!! वैसे इतना लिखने के बाद भी मैं खुद को समझा रहा हूं कि नर हो, न निराश करो मन को।

Comments

Udan Tashtari said…
आज न सही..जारी रहें..उम्मीद है आप जैसा नौजवान जब पेंशन की स्थिती में आयेगा तब बहुत नोट यहीं से कूट रहे होंगे..मेरा विश्वास है आपका लेखन देख कर..अच्छा लिख रहे हैं..इसे जारी रखे रहें.
आनंद said…
यह भरम बड़ा सुखद है ... इसे न तोडि़ए... तब तक आपके लेख की टिप्‍पणियों पर पेंशन भी पक्‍की हो जाएगी...
काकेश said…
ये भरम हमें भी था पर धीरे धीरे टूट रहा है.
अरे सर क्या कह रहे हैं सुनकर ही दम निकल गया. हम तो वैसे ही पीटे हुए है ब्लोग्गिंग की दुनिया मे ऊपर से आपकी ये ख़बर. रहा सहा दम भी निकल गया.
Batangad said…
अनिलजी
आप इस तरह की बातें कहकर बहकाइए नहीं। सच्चाई हो तो भी। आप शायद इस समय सबसे ज्यादा हिट पाने वाले ब्लॉगर्स में होंगे। जहां तक पेंशन की बात है तो, हिट से तो गारंटी नहीं है। लेकिन, आपके सैकड़ो ऐसे ही लिख दिए गए लेखों में से 2-4 से ही मिल जाएगा। इसलिए ब्लॉगिंग जिंदाबाद।
लिखा तो सही है आपने पर हर्षवर्धन जी की बात से सहमत हूं!
आप तो पिटवायेंगे अनिल भाई.. इतने सारे लोगों के भरम टूटने का ठीकरा अगर मेरे सर फूट गया तो मैं तो गया.. माफ़ी-माफ़ी..
और फिर कल क्या होगा किसने देखा है.. हिन्दी के ऐसे सुहाने दिन भी तो आ सकते हैं कि नेट की सबसे लोकप्रिय भाषा हो जाए.. ह्म्म.. कैसा दिन होगा वह..
chavannichap said…
निराश न हों.लिखाई में कमाई है.कितनी है?यह आपकी लोकप्रयता पर निर्भर है और आाप की लोकप्रियता असंदिग्ध है.
आज की तारीख में तो यह यथार्थ ही है। पर कमाई के उद्देश्य से लिखना हो तो कोई बुराई नहीँ - हाँ कुछ तौर तरीके बदलने होँगे, विषय एकरूपता उनमें अग्रगण्य है।
चरैवेति-चरैवेति!

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