Friday 2 November, 2007

जिनको बनना था तारणहार, वही कन्नी काट गए

क्या कीजिएगा जो नौजवान वर्गीय प्रतिबद्धता के बिना केवल आदर्शवाद के तहत क्रांतिकारी राजनीति में आते हैं, उनका हश्र शायद वही होता है, जैसा मानस का हो रहा था। इलाहाबाद की मीटिंग से ‘झटका’ खाने के कुछ महीनों बाद उसके ही गांव से लगभग बीस किलोमीटर दूर के एक गांव में फिर साथियों का जमावड़ा हुआ। मानस वहां पहुंचा तो अचानक मां-बाप और परिवार की याद कुछ ज्यादा ही सताने लगी। आखिर छह साल हो चुके थे उसको घर छोड़े हुए। इस बीच अम्मा-बाबूजी इलाहाबाद में उसके हॉस्टल तक जाकर पता लगा आए थे। कमरे में बक्सा, अटैची, सारी किताब-कॉपियां और दूसरे सामानों को जस का तस पाने पर उन्हें लगा कि किसी ने मानस ने मार-वार कर कहीं फेंक दिया होगा। खैर, किसी तरह दिल को तसल्ली देकर उसका सारा सामान लेकर वे वापस लौट गए थे।

बड़ी अजीब रात थी वह। मूसलाधार बारिश हो रही थी। मां-बाप जिस कस्बे में रहते थे, वहां के लिए कोई सवारी नहीं मिली तो मानस करीब 12 किलोमीटर पैदल चलकर भीगते हुए रात के करीब दो बजे अपने घर के दरवाजे पर खड़ा था। पूरे रास्ते में बार-बार रोया, लेकिन बारिश के पानी ने हमेशा आंसुओं के निशान बनने से पहले ही मिटा दिए। घर की सांकल पहले धीरे से बजाई। कोई आवाज़ नहीं आई। फिर जोर से देर तक बजाई। अंदर से अम्मा ने बाबूजी को जगाकर कहा – देखिए कौन आया है इतनी रात गए। बाबूजी ने दरवाज़ा खोला। फिर तो उसे देखकर पूरे घर में ऐसा रोना-पीटना मचा कि पूछिए मत। घर की सारी लाइट एक-एक कर जल गई। लगा जैसे दिन हो गया हो। अम्मा-बाबूजी उसके बाद सोए नहीं। मानस चार बजे के आसपास सो गया। उठा तो दोपहर के दो बज चुके थे।

मां ने बताया कि उसके लिए उसने कहां-कहां मन्नत नहीं मानी थी। दो दिन बाद उसे वह उस बाबा के पास ले गई जिसने बताया था कि बेटा जल्दी ही उसके पास आ जाएगा। मानस ने बताया कि वह बस कुछ दिनों के लिए आया है और उसे फिर वापस लौटना है। घर में रुके चार दिन ही हुए थे कि ज़िले में काम करनेवाले साथी बुलावा लेकर आ गए और फिर वह उनके साथ लखनऊ के लिए रवाना हो गया। हां, मां-बाप से जाते समय वादा ज़रूर किया कि इस बार वो हर तीन महीने पर चिट्ठी लिखता रहेगा।

लखनऊ पहुंचा तो राज्य सचिव वर्मा जी और दूसरे नौजवान साथियों के साथ मानस उर्फ राजकिशोर की एक और बैठक हुई, केवल उसी की समस्या पर। वर्मा जी ने साफ-साफ कह दिया – मानस, तुम्हारे साथ दो समस्याएं हैं। पहली समस्या है कि तुम्हें शादी करने की बेचैनी है और दूसरी समस्या यह है कि तुम्हें लगता है कि क्रांति होने में अभी लंबा वक्त लगेगा। मानस को पहली समस्या का पूरा संदर्भ याद हो आया और उसे क्यों वर्मा जी मुद्दा बना रहे हैं यह भी समझ में आ गया। (इसे पूरा जानने के लिए पढ़ें - जोगी लौटा देश और चलता रहा सिलसिला)

दूसरी समस्या पर उसने कहा कि यह तो पार्टी दस्तावेज़ में लिखा है कि क्रांति एक दीर्घकालीन प्रक्रिया है तो वह अगर मानता है कि क्रांति तुरत-फुरत में नहीं, लंबे वक्त में होनेवाली है तो इसमें गलत क्या है। फिर संगठन के बुनियादी सिद्धांत पर बहस हुई। अंत में यह तय हुआ कि इलाहाबाद में छात्र संगठन के एक नेता (जो उसके रूममेट भी रह चुके थे) उसके इलाके में बराबर जाएंगे। एक तरह से वे ही उसके इलाके के प्रभारी भी होंगे। वह अपनी व्यावहारिक और ‘दार्शनिक’ समस्याएं उनसे डिस्कस करके सुलझा सकता है। मानस को लगा – चलो कोई सूत्र तो मिला। अब ज्यादा मुश्किल नहीं आनी चाहिए।

मानस नए आश्वासनों के साथ अपने इलाके में काम करने के लिए वापस लौट गया। महीना-दर-महीना गुजरता रहा। इलाहाबाद के छात्र नेता कभी भी उसके इलाके में झांकने तक नहीं आए। काम पहले की तरह चल रहा था, चलता गया। लेकिन साल भर बीत जाने के बाद भी नेता महोदय के न आने से उसकी सारी उम्मीद जाती रही। उसे समझ में आ गया कि किनारे खड़े रहने की सुविधाजनक व्यस्तता छोड़कर कोई उसके साथ गहरे पानी में उतरने नहीं आने वाला। अब उसने पार्टी को आखिरी सलाम कहने का निश्चय कर लिया। उसने विदा लेने का पूरा प्रोग्राम बना डाला। पहले हामिद भाई और दूसरे रेल मजदूर साथियों से विदा लेगा। फिर पांच भूमिहीन किसानों की मंडली के पास जाकर अलविदा कहेगा।

नोट : यूं तो मानस की कथा बहुत लंबी है। लेकिन फिलहाल मैं इसे किसी तरह समेट लेना चाहता हूं। आप भी उसकी कथा में शायद दिलचस्पी खोते जा रहे होंगे। इसलिए कल इसकी आखिरी किश्त पेश करूंगा - टूटा टूटा एक परिंदा ऐसा टूटा कि फिर...

8 comments:

अभय तिवारी said...

नहीं भाई दिल चस्पाँ है.. आप जारी रखें..

काकेश said...

जी नहीं इतनी जल्दी ना समेटें.हम पढ़ रहे हैं जी. पूरी कथा सुनायें.

Anonymous said...

bahut satahii ban gayii hai yahan par aakar. thoda gahrayii me utariye. kya sirf party pramukh aur ek do senior logo se na an paane kii vajah se aapne party chodi?

Gyan Dutt Pandey said...

यह लगता है कि यह बन्दा आदर्शवादी चुगद है!

Anonymous said...

नहीं! एक अच्छी आत्मकथा का असमय गर्भपात मत करवाइए . इसे सहज गति से चलने दीजिए . यह एक महत्वपूर्ण व्यक्तिगत दस्तावेज़ है जिसका असंदिग्ध सामाजिक-सामुदायिक महत्व है .

यह एक मित्र का अनुरोध है और 'सीरियल पाठक' (सीरियल किलर हो सकता है तो पाठक क्यों नहीं) की धमकी . जल्दबाज़ी में फैसला न कीजिए .

बालकिशन said...

अन्तिम पंक्तियाँ पढ़ते-पढ़ते मानस के लिए एक डर मन मे समां गया है कि जाने कल क्या होने वाला है. एक बात है सर जितना आपको पढ़ रहा हूँ उतना अपने आपको आपके करीब महसूस कर रहा हूँ. एक समस्या भी महसूस कर रहा हूँ पर इसका जिक्र कल पढने के बाद करूंगा. वैसे मुझे लगता है यह समस्या औरों कि भी होगी.

Srijan Shilpi said...

आप भी टिप्पणियों के फेर में पड़ गए! मानस की कथा में हमारी दिलचस्पी बढ़ती जा रही है और आप हैं कि इसे अभी से समेटने की बात करने लगे।

इसे किसी अंजाम तक तो पहुंचाइए.....अभी तो कोई खूबसूरत मोड़ भी नहीं आया, जहां से आप इसे छोड़ सकें। जारी रखिए इसे, प्लीज।

Anita kumar said...

मानस के लिए मन में चिन्ता है, कथा जारी रखिए