मोदी क्या सचमुच गुजरातियों के सिरमौर हैं?

आज नरेंद्र मोदी खुद को गुजराती अस्मिता, गुजराती गौरव और गुजराती सम्मान से जोड़कर पेश करते हैं। दंगों पर उनकी सरकार की आलोचना होती है तो कहते हैं – देखो, ये लोग सारे गुजरातियों को बदनाम कर रहे हैं। मोदी दावा कर रहे हैं कि वे सभी पांच करोड़ गुजरातियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। हालांकि बीजेपी के ही असंतुष्ट अब कहने लगे हैं कि मोदी पांच करोड़ गुजरातियों का नहीं, पांच करोड़पतियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। आइए, समझने की कोशिश करते हैं कि क्या नरेंद्र मोदी को सचमुच गुजरातियों का गौरव माना जा सकता है।

पांच साल पहले हुए विधानसभा चुनावों में बीजेपी को 182 में से 127 सीटें मिलीं तो साबित किया गया कि गुजरात में जो भी सांप्रदायिक हिंसा हुई, उसे गुजरातियों के बहुमत का समर्थन हासिल था। लेकिन हमारे लोकतंत्र का जो सिस्टम है, उसमें सीटों से जनता के असली मूड का पता नहीं चलता। जैसे, चुनाव आयोग के आंकड़ों के मुताबिक 2002 में गुजरात में कुल 61.5 फीसदी मतदान हुआ था, जिसमें से 49.9 फीसदी वोट बीजेपी को मिले थे। यानी, 30 फीसदी गुजराती ही नरेंद्र मोदी के साथ थे। क्या इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि 70 फीसदी गुजराती नरेंद्र मोदी की सांप्रदायिक राजनीति का समर्थन नहीं करते?

साल 2001 की जनगणना के मुताबिक गुजरात की आबादी उस समय 5 करोड़ 7 लाख के आसपास थी, जिसमें से 89.1 फीसदी हिंदू और 9.1 फीसदी मुसलमान हैं। ज़ाहिर है कि राज्य का एक भी मुसलमान किसी भी सूरत में मोदी के साथ नहीं जा सकता। लेकिन क्या इतनी ही मजबूती के साथ कहा जा सकता कि बाकी 90 फीसदी गुजराती हिंदू होने के नाते नरेंद्र मोदी के साथ हैं? शायद नहीं क्योंकि गुजराती आमतौर पर शांतिप्रिय होते हैं। उनके अंदर उद्यमशीलता कूट-कूटकर भरी होती है। कहते हैं कि किसी भी देश की टेलिफोन डायरेक्टरी उठा लीजिए, उसमें आपको गुजराती नाम मिल जाएंगे। धंधे के लिए ज़रूरी होता है कि सभी से मेलजोल बनाकर चला जाए क्योंकि जो व्यवसायी अपने ग्राहकों में संप्रदाय और जाति का भेद करने लगेगा, उसका धंधा चल ही नहीं सकता।

लेकिन गुजरात के कुछ जानकार ऐसा नहीं मानते। उनका कहना है कि गुजरातियों के जींस में ही मुस्लिम विरोध भरा हुआ है। उन्हें बचपन से ही बताया जाता है कि ईस्वी 1024 में जब महमूद गज़नी ने हमला किया था तो उसने दो लाख हिंदुओं को मौत के घाट उतार दिया था। आज राज्य का कोई भी हिंदू परिवार ऐसा नहीं है, जिसका एक न एक पूर्वज गज़नी की हिंसा का शिकार न हुआ हो। यही वजह है कि मुसलमानों की आबादी 9 फीसदी होने के बावजूद आम गुजराती उनकी मौजूदगी को सहन नहीं कर पाता। इन जानकारों का कहना है कि बहुत से हिंदू गुजराती भले ही 2002 के चुनावों में बीजेपी को वोट देने के लिए घर से न निकले हों, लेकिन वे अंदर ही अंदर मोदी के साथ थे।

मुझे यह जानकर भी आश्चर्य हुआ, हालांकि ये खबर पुष्ट नहीं है, कि अंबानी परिवार की कंपनी रिलायंस वेबवर्ल्ड में सभी स्थाई कर्मचारी हिंदू हैं, जबकि सभी मुसलमान या ईसाई कर्मचारी कांट्रैक्ट पर रखे गए हैं। शायद यही वजह है कि जिस तरह बाल ठाकरे मराठी सम्मान का प्रतीक बन गए हैं, उसी तरह गुजराती गौरव के लिए सिर्फ और सिर्फ नरेंद्र मोदी का ही नाम सामने आता है।

मैं यह पोस्ट लिखने बैठा तो कहना चाहता था कि हमारे लूले-लंगड़े लोकतंत्र का ही नतीजा है कि 30 फीसदी गुजरातियों का वोट पाकर भी नरेंद्र मोदी गुजरातियों का गौरव होने का दावा कर सकते हैं। लेकिन एक गुजराती पत्रकार ने जब मेरे सामने इतिहास और संस्कृति की इतनी सारी बातें फेंक दी तो मैं कन्फ्यूज हो गया। मुझे लगा कि गुजरात को खाली किताबों और अखबारों से नहीं समझा जा सकता। नरेंद्र मोदी अगर इस बार का विधानसभा चुनाव हारे तो उसकी सबसे बड़ी वजह बनेंगे बीजेपी और संघ परिवार के अंसतुष्ट। लेकिन बताते हैं कि अगर नरेंद्र मोदी ने टिकट बांटने में अपने शातिराना अंदाज का परिचय दिया और आखिरी समय पर उम्मीदवारों की घोषणा की, तो उन्हें तीसरी बार गुजरात का मुख्यमंत्री बनने से कोई नहीं रोक सकता।

Comments

Unknown said…
accha likha hai aapne.
बहुत सटीक लिखा है।बधाई।
गुजरात एक शानदार राज्य है। धर्म के नाम पर गुजरात को बर्बाद करने की कोशिश की जा रही है। गुजरात के कुछ नेता गुजरातियों सत्ता के लिये बदनाम करने की कोशिश कर रहें है।यदि सत्ता मे बने रहने के लिये राज्य में दंगे होते रहेंगे या तनाव बना रहेगा तो राज्य का विकास ठप होना तय है। रिलांयस के बारे जो बताया गया है उस पर सहज विश्वास नहीं हो रहा है।
Asha Joglekar said…
सचमुच काफी कनफ्यूजिंग है गुजरात की राजनीती ।
गुजरात को मोदी के माध्यम से नहीं, गुजरात को गुजरत के रूप में विश्लेषित किया जाना चहिये। मोदी और गुजरात को गड्ड-मड्ड करना गुजरात को डिस्टॉर्ट कर देखना है।
और महमूद गजनवी ही नहीं इतिहास के सभी मूर्ति भंजकों को वह स्थान मिलना चाहिये जिससे बामियन की अप्रतिम बुद्ध प्रतिमाओं का भंजन कोई किसी भी कोण से सही न ठहर सके।
किसी एक धर्म की, वोट बैंक रजनीति के आधार पर ठसक सहने का क्या तुक है।
ज्ञान भइया कि बात से सहमत हूँ.
Anita kumar said…
बहुत सही अनुमान लगाया है आपने , मोदी बहुत ही पहुंचा हुआ खिलाड़ी है, वो जनमत सथ न होते हुए भी कोई न कोई तरकीब सोच लेगा, बहुत अफ़्सोस होता है ये देख कर कि गुजराती जो दोस्ती की प्रतिमा माने जाते थे आज इस नजर से देखे जाते है।
खैर राजनीति कब किसी की सगी हुई है, आज गुजराती और मराठी है तो कल किसी और राज्य के लोग बदनाम होंगे

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