फर्क भीमराव और पंडित जी का
भूमि के राष्ट्रीयकरण की बात करते हुए एक संदर्भ छूट गया था। वो यह कि भूमि के राष्ट्रीयकरण की बात सबसे पहले बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर ने की थी। ये तथ्य मुझे आज ही सुबह गोरखपुर के एक मित्र अशोक चौधरी ने फोन पर बताया। बाबा साहब ने व्यापक भूमि सुधारों पर जोर दिया था। उनका कहना था कि कृषि जोत का छोटा या बड़ा होना उसके आकार से नहीं, बल्कि इससे तय होता है कि उस पर कितनी सघन खेती हो रही है, श्रम और दूसरी लागत सामग्रियों समेत उस पर कितना उत्पादक निवेश किया गया है। उन्होंने कृषि में भारी पूंजी निवेश के साथ ही औद्योगिकीकरण पर जोर देते हुए कहा था कि इससे कृषि से अतिरिक्त श्रमिकों को खपाने में मदद मिलेगी।
बाबा साहब ने भूमि के राष्ट्रीयकरण की वकालत की थी और कहा था कि जोतनेवालों के समूह को जमीन लीज पर दी जाए और कृषि को आगे बढ़ाने के लिए उन्हें को-ऑपरेटिव बनाने के लिए प्रोत्साहित किया जाए। बॉम्बे लेजिस्लेटिव काउंसिल में 10 अक्टूबर 1927 को बहस में हस्तक्षेप करते हुए उन्होंने कहा था, “कृषि समस्या का समाधान खेत के आकार को बढ़ाने में नहीं, बल्कि सघन खेती में है जिसमें ज्यादा पूंजी और श्रम को नियोजित किया जाए ...बेहतर तरीका ये है कि को-ऑपरेटिव खेती शुरू की जाए और छोटी-छोटी जोत के किसानों पर संयुक्त खेती के लिए दबाव बनाया जाए।”
अंबेडकर संवैधानिक सरकारी समाजवाद और मजबूत केंद्र के पक्षधर थे। वो एक ऐसा आर्थिक कार्यक्रम चाहते थे, जिसमें भूमि का राष्ट्रीयकरण किया जाए और सामूहिक खेती के लिए इसका वितरण किसानों में कर दिया जाए।
आधुनिक भारत पर वे पंडित जवाहर लाल नेहरू के विचारों से सहमत तो थे, लेकिन राष्ट्र निर्माण के बारे में नेहरू से अलग विचार रखते थे। नेहरू ‘भारत की खोज’ में यकीन रखते थे। उनको लगता था कि भारत पहले से ही एक महान राष्ट्र है जिसको पुनर्स्थापित करने की जरूरत है। इसके विपरीत बाबा साहब अंबेडकर का कहना था कि भारत को एक राष्ट्र मानना दरअसल एक भारी भ्रांति का पीछा करने जैसा है। हम अभी तो एक राष्ट्र बनने की कोशिश भर कर सकते हैं। जाहिर है जब नेहरू पीछे देख रहे थे, तब अंबेडकर आगे बढ़कर नए राष्ट्र के निर्माण के तानेबाने तलाश रहे थे। नेहरू प्रगतिशील दिखते हुए भी अतीतजीवी थे, जबकि अंबेडकर अतीत के अभिशाप से भारत को मुक्त कराने की जद्दोजहद में लगे थे।
बाबा साहब ने भूमि के राष्ट्रीयकरण की वकालत की थी और कहा था कि जोतनेवालों के समूह को जमीन लीज पर दी जाए और कृषि को आगे बढ़ाने के लिए उन्हें को-ऑपरेटिव बनाने के लिए प्रोत्साहित किया जाए। बॉम्बे लेजिस्लेटिव काउंसिल में 10 अक्टूबर 1927 को बहस में हस्तक्षेप करते हुए उन्होंने कहा था, “कृषि समस्या का समाधान खेत के आकार को बढ़ाने में नहीं, बल्कि सघन खेती में है जिसमें ज्यादा पूंजी और श्रम को नियोजित किया जाए ...बेहतर तरीका ये है कि को-ऑपरेटिव खेती शुरू की जाए और छोटी-छोटी जोत के किसानों पर संयुक्त खेती के लिए दबाव बनाया जाए।”
अंबेडकर संवैधानिक सरकारी समाजवाद और मजबूत केंद्र के पक्षधर थे। वो एक ऐसा आर्थिक कार्यक्रम चाहते थे, जिसमें भूमि का राष्ट्रीयकरण किया जाए और सामूहिक खेती के लिए इसका वितरण किसानों में कर दिया जाए।
आधुनिक भारत पर वे पंडित जवाहर लाल नेहरू के विचारों से सहमत तो थे, लेकिन राष्ट्र निर्माण के बारे में नेहरू से अलग विचार रखते थे। नेहरू ‘भारत की खोज’ में यकीन रखते थे। उनको लगता था कि भारत पहले से ही एक महान राष्ट्र है जिसको पुनर्स्थापित करने की जरूरत है। इसके विपरीत बाबा साहब अंबेडकर का कहना था कि भारत को एक राष्ट्र मानना दरअसल एक भारी भ्रांति का पीछा करने जैसा है। हम अभी तो एक राष्ट्र बनने की कोशिश भर कर सकते हैं। जाहिर है जब नेहरू पीछे देख रहे थे, तब अंबेडकर आगे बढ़कर नए राष्ट्र के निर्माण के तानेबाने तलाश रहे थे। नेहरू प्रगतिशील दिखते हुए भी अतीतजीवी थे, जबकि अंबेडकर अतीत के अभिशाप से भारत को मुक्त कराने की जद्दोजहद में लगे थे।
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