फर्क भीमराव और पंडित जी का

बाबा साहब ने भूमि के राष्ट्रीयकरण की वकालत की थी और कहा था कि जोतनेवालों के समूह को जमीन लीज पर दी जाए और कृषि को आगे बढ़ाने के लिए उन्हें को-ऑपरेटिव बनाने के लिए प्रोत्साहित किया जाए। बॉम्बे लेजिस्लेटिव काउंसिल में 10 अक्टूबर 1927 को बहस में हस्तक्षेप करते हुए उन्होंने कहा था, “कृषि समस्या का समाधान खेत के आकार को बढ़ाने में नहीं, बल्कि सघन खेती में है जिसमें ज्यादा पूंजी और श्रम को नियोजित किया जाए ...बेहतर तरीका ये है कि को-ऑपरेटिव खेती शुरू की जाए और छोटी-छोटी जोत के किसानों पर संयुक्त खेती के लिए दबाव बनाया जाए।”
अंबेडकर संवैधानिक सरकारी समाजवाद और मजबूत केंद्र के पक्षधर थे। वो एक ऐसा आर्थिक कार्यक्रम चाहते थे, जिसमें भूमि का राष्ट्रीयकरण किया जाए और सामूहिक खेती के लिए इसका वितरण किसानों में कर दिया जाए।

आधुनिक भारत पर वे पंडित जवाहर लाल नेहरू के विचारों से सहमत तो थे, लेकिन राष्ट्र निर्माण के बारे में नेहरू से अलग विचार रखते थे। नेहरू ‘भारत की खोज’ में यकीन रखते थे। उनको लगता था कि भारत पहले से ही एक महान राष्ट्र है जिसको पुनर्स्थापित करने की जरूरत है। इसके विपरीत बाबा साहब अंबेडकर का कहना था कि भारत को एक राष्ट्र मानना दरअसल एक भारी भ्रांति का पीछा करने जैसा है। हम अभी तो एक राष्ट्र बनने की कोशिश भर कर सकते हैं। जाहिर है जब नेहरू पीछे देख रहे थे, तब अंबेडकर आगे बढ़कर नए राष्ट्र के निर्माण के तानेबाने तलाश रहे थे। नेहरू प्रगतिशील दिखते हुए भी अतीतजीवी थे, जबकि अंबेडकर अतीत के अभिशाप से भारत को मुक्त कराने की जद्दोजहद में लगे थे।
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