महाकवि निराला की एक गज़ल
मुझे नहीं पता कि तकनीकी रूप से ये गज़ल है या नहीं। लेकिन हम इसे पुराने दिनों में नुक्कड़ों और मंचों पर खूब गाया करते थे। शायद ये पंक्तियां आज भी बहुतों के दिलों को छू सकती हैं, अंतिम पंक्तियां खासकर कि खुला भेद विजयी कहाए हुए जो, लहू दूसरों का पिए जा रहे हैं।
किनारा वो हम से किए जा रहे हैं।
दिखाने को दर्शन दिए जा रहे हैं।।
जुड़े थे सुहागन के मोती के दाने।
वही सूत तोड़े लिए जा रहे हैं।।
ज़माने की रफ्तार में कैसा तूफां।
जिए जा रहे हैं मरे जा रहे हैं।।
छिपी चोट की बात पूछी तो बोले।
निराशा के डोरे सिये जा रहे हैं।।
खुला भेद विजयी कहाए हुए जो।
लहू दूसरों का पिए जा रहे हैं।।
Comments
'उत्तम खोज' तो निश्चित ही कही जायेगी ये गज़ल.
*** राजीव रंजन प्रसाद
लहू दूसरों का पिए जा रहे हैं।।"
ये बताइये, ये विजयी कहाए हुए जो दूसरों का लहू पिए जा रहे हैं इनकी कोई पहचान हुई?.. इनकी शिनाख़्त करने के चक्कर में मैं रोज़ थकता रहता हूं.. आप कुछ मदद करिए न, प्लीज़..
ज़हर मिलता रहा,ज़हर पीते रहे,
रोज़ मरते रहे,रोज़ जीते रहे,
ज़िन्दगी भी हमे आज़माती रही,
और हम भी उसे आज़माते रहे!!
ज़माने की रफ्तार में कैसा तूफां।
जिए जा रहे हैं मरे जा रहे हैं।।
कि जगह यह:
ज़माने की रफ्तार में कैसा तूफां।
मरे जा रहे हैं जिए जा रहे हैं।।
---मगर मैं भी बहुत ही पुरानी याददाश्त से ही बता रहा हूँ. हो सकता है आप सही हों. कोई शायद इसे बता पाये. पुनः साधुवाद इस पेशकश के लिये.