Wednesday 6 June, 2007

ये जो देश है मेरा, परदेस है मेरा

एक भारत देश हमारे बाहर है। एक देश हमारे अंदर है। लेकिन दोनों का दरमियानी फासला काफी ज्यादा है। आबादी के अलग-अलग हिस्सों के लिए ये फासला अलग-अलग है। मुंबई, कोलकाता और दिल्ली में काम करनेवाला कामगार जब अपने गांव जाता है तो बोलता है हम अपने मुलुक जा रहे हैं। गांवों के औसत खाते-पीते किसान के लिए देश कश्मीर से कन्याकुमारी और अटक से कटक तक फैला एक भूखंड है, जिसके नो-मेंस लैंड या बर्फ से ढंके सियाचिन के किसी कोने पर भी अगर चीन या पाकिस्तान की हरकत होती है तो उसका खून खौल उठता है। उसे बचपन से प्रार्थना सिखाई जाती है – वह शक्ति हमें दो दयानिधे, कर्तव्य मार्ग पर डट जाएं, जिस देश-जाति में जन्म लिया, बलिदान उसी पर हो जाएं। वह या तो जाति पर कुर्बान होता है या देश की सीमाओं की रक्षा करते हुए शहीद हो जाता है। काबिल हुआ और किसी पब्लिक स्कूल में पढ़ने के लिए स्कॉलरशिप मिल गई तो स्कूल का मोटो होता है – स्वधर्मे निधनं श्रेय: ...
स तरह भारत देश से इतर हमारे अंदर के देश में धर्म, जाति और इलाके की अस्मिता भी नत्थी हो जाती है। बाहर के देश में 28 राज्य, 14 सरकारी भाषाएं, साढ़े आठ सौ से ज्यादा बोलियां, छह बड़े धर्म, 29 बड़े त्योहार और छह जनजातीय समूह हैं। विविधता की ऐसी चुनौती दुनिया की किसी केंद्र सरकार ने नहीं झेली है, न तो यूरोपीय संघ ने, न संयुक्त राज्य अमेरिका ने और न ही अब खंड-खंड बिखर गए सोवियत संघ ने। हम अपनी पीठ थपथपाते हुए कह सकते हैं कि नगालैंड से लेकर पंजाब और कश्मीर तक अलगाव के स्वर उठे हैं, फिर भी साठ सालों से भारतीय संघ एकजुट रहा है और इस पर संसदीय लोकतंत्र का लेबल चस्पा रहा है।
लेकिन बाहर के इस भारत और हमारे अंदर के देस में इतना भयानक फासला क्यों है? क्यों पाश जैसे कवि को कहना पड़ता है कि अगर उनका कोई अपना खानदानी भारत है, तो मेरा नाम उसमें से अभी खारिज कर दो। एक समय इंदिरा इज इंडिया के नारे की नायिका इंदिरा गांधी ने हिंदू वोट बैंक बनाने की गरज से उस पंजाब में हिंदू-सिख का विभाजन खड़ा कर दिया, जहां हिंदू घरों का भी बड़ा बेटा सिख होता है। जवाहरलाल नेहरू ने 1956 में नगालैंड में जो सेना भेजी, वह वहां ऐसी जमी और उसने ऐसे जुल्मो-सितम किये कि नगा लोगों में हिंदुस्तान से ही नफरत सी हो गई। क्या केंद्र सरकार और भारतवासियों के देस में कभी तादात्म्य बन सकता है?
कभी-कभी ये भी लगता है कि कहीं किसान पृष्ठभूमि से आने के कारण मेरे अंदर ही कोई जकड़बंदी तो नहीं है कि मैं एक सीमा से आगे बढ़कर देश को देख नहीं पाता हूं। लेकिन ये भी सच है कि 15 अगस्त, 26 जनवरी या 23 मार्च को एक सघन अवसाद में आंखें पसीज जाती हैं कि हम अपराधी हैं कि हमने शहीदों के सपनों को आगे नहीं बढ़ाया। फिर कभी-कभी लगता है कि इस भावुकता भरी देशभक्ति के मायने क्या हैं। लेकिन ये सच है कि मैं आज के भारत को जज्ब नहीं कर पाता और शायद इस देश में मेरे जैसे लाखों लोग होंगे।
आज के भारत ने यकीनन विदेश में रह रहे भारतीयों को पहचान दी है। आई लव माई इंडिया, ये मेरा इंडिया उनके दिल की आवाज है। ये उनकी भी आवाज है जिनका एक पांव देश में और एक पांव विदेश में रहता है। ये लोग टाटा के कोरस या लक्ष्मी मित्तल के आर्सेलर अधिग्रहण में भारत की शान को बढ़ता देखते हैं। बाकी लोग तो कभी अमिताभ बच्चन तो कभी सचिन तेंदुलकर में अपनी राष्ट्रीय अस्मिता पाने के धोखे में जीते रहते हैं।
खास बात ये है कि मैं या मेरे जैसे लोग ही नहीं, कॉरपोरेट सेक्टर से जुड़े लोग भी चिंतित हैं कि उन्होंने राष्ट्रव्यापी वितरण तंत्र तो बना लिया, लेकिन कोई राष्ट्रव्यापी ब्रांड उन्हें खोजे नहीं मिल रहा है। पेप्सी और कोक के ‘राष्ट्र-निर्माण’ प्रयास मार्केटिंग विशेषज्ञों को अधूरे लगते हैं। उनको लगता है कि भारत के इतिहास और संस्कृति में एकीकरण का कोई तत्व नहीं है और एकीकरण का जो भी तत्व मिलेगा, वह भारत के भावी स्वरूप में मिलेगा।
कहीं ऐसा तो नहीं कि भाषाई आधार बने राज्य हमें जो अस्मिता देते हैं, वही हमारी असली राष्ट्रीय पहचान है। बाकी देश का तो यूरोपीय संघ जैसा स्वरूप होना चाहिए। जिस तरह फ्रांस, नीदरलैंड, स्विटजरलैंड, जर्मनी या ऑस्ट्रिया जैसे देशों के निवासियों के लिए यूरोपीय संघ किसी राष्ट्रीय पहचान का प्रतीक नहीं है, भारत भी एक दिन हमारे लिए वैसी ही गति को प्राप्त हो जाएगा? खैर राष्ट्र की एक कसक सालोंसाल से ही दिल में कसकती रही है। ये कब शांत होगी, पता नहीं।

1 comment:

ghughutibasuti said...

आपकी बात तो आप जानें पर मेरा राष्ट्र किसी एक राज्य तक सीमित नहीं हो सकता । कितने ही राज्यों से जुड़ी हूँ मैं । किसी एक को भी छोड़ नहीं सकती ।
घुघूती बासूती