कल जो कह गए वो भगवान थे क्या?
किसी आदमी को खत्म करने का सबसे आसान तरीका है कि उसके आत्मविश्वास को खत्म कर दो। और, पूरी की पूरी पीढ़ी को खत्म करने का भी यही फॉर्मूला है। कई बार सोचता हूं कि हम अपनी बातों की पुष्टि के लिए पुराने लोगों का सहारा क्यों लेते हैं। गीता में भगवान कृष्ण ने कहा था, महात्मा बुद्ध ने ज्ञान दिया था, तुलसीदास रामचरित मानस में कहते हैं, कबीर कहते थे, रहीम बोले थे, गांधी का कहना था, लोहिया बोलते थे, रजनीश ने कहा था, नीत्शे के मुताबिक, मार्क्स ने अपनी संकलित रचनाओं के खंड 20 में लिखा है, राष्ट्रीयता के सवाल पर लेनिन कहते थे... अरे भाई! ये सब क्या है? और तो और हमने देखा है, देख रहे हैं और देखेंगे की ता-ता-थैया करनेवाले राजीव गांधी को भी ऐसे उद्धृत किया जा रहा है जैसे वे भारतीय राजनीति के धुरंधर रहे हों। क्या यह मरे हुए इंसान को भगवान बना देने की हमारी राष्ट्रीय आदत का नतीजा है या कुछ और? अक्सर मैं खुद से यह सवाल पूछा करता हूं।
एक बात तो तय है कि गुजरा ज़माना जानकारियों के मामले में तो आज से कमतर ही रहा है, इसलिए जब हम सर्वज्ञ नहीं हो पा रहे तो उस दौर के लोग कैसे सर्वज्ञ हो सकते हैं, उनकी कही बातें कैसे कालातीत हो सकती हैं। रहे होंगे पहुंचे संत, लेकिन आज की समस्याएं तो नई हैं। उनका समाधान पुरानी सूक्तियों में कैसे मिल सकता है। हां, उनके ज्ञान को हम सीढ़ी ज़रूर बना सकते हैं। 90 सीढ़ी के बाद ही 91वीं सीढ़ी आएगी। लेकिन यह तो नहीं होना चाहिए कि हम आगे बढ़ने के बजाय पुरानी सीढ़ी पर ही कदमताल करते रहें। नया कहीं शून्य से नहीं आता। पुराने के गर्भ से ही नए का जन्म होता है। लेकिन बचपन में मातृदेवो भव, पितृदेवो भव माननेवाले बच्चे भी बड़े होने के बाद मां-बाप से बनाकर नहीं रह पाते। फिर हम कब तक कल को आज के सिर पर बैठाए रखेंगे? सबको भगवान मानते रहेंगे?
वैसे भी भगवान की नाभि में न जाने कौन-सा अमृत भरा पड़ा है कि हर सिर कटने पर नया सिर उग आता है। पहले माना जाता था कि धरती चपटी है और सूरज इसका चक्कर लगाता है। कोपरनिकस और गैलीलियो ने इसे झूठ साबित कर दिया। डारविन के विकासवाद ने भगवान की अप्रतिम रचना का भ्रम तोड़ डाला। बीसवीं सदी में क्वांटम फिजिक्स और सापेक्षता के सिद्धांत ने विचार और पदार्थ के अलग वजूद के साथ ही अंतिम व निरपेक्ष सत्ता की मान्यता के परखचे उड़ा दिए। बिग बैंग सिद्धांत ने हज़ारों सालों से पवित्र माने जा रहे मिथकों को कपोल-कल्पना साबित कर दिया। फिर भी आज की तारीख में दुनिया के 90 फीसदी लोग भगवान की सत्ता को मानते हैं। उससे डरते हैं, उसकी आराधना करते हैं।
मुझे लगता है कि इसका सबसे बड़ा कारण हमारे पढ़ने-पढ़ाने की पद्धति है। वयस्क जीवन में कदम रखने तक हमें इतनी जानकारी हो जानी चाहिए कि जीवन के तमाम क्षेत्रों में ठीक हमारे पहले की पीढ़ी तक क्या-क्या खोजा और पाया गया है, चाहे वह विज्ञान हो, दर्शन हो, अर्थशास्त्र हो या मनोविज्ञान। यह सब समय और दौर के साथ बंधा ज्ञान होगा तो इतिहास हम खुद-ब-खुद जान जाएंगे। और, साहित्य तो हम वैसे भी अपनी कोशिश जान ही लेते हैं। उसके लिए अलग से मशक्कत की ज़रूरत नहीं है।
कल को यथार्थपरक अंदाज़ में जानना बेहद ज़रूरी है। तभी हम उससे मुक्त हो सकते है। हर ऐरे-गैरे को भगवान बनाने की आदत से बच सकते हैं। पैर आगे चलें और आंखें पीछे देखती रहें, ऐसा तो चुड़ैल को सुहाता है, इंसान को नहीं। फिर भी आप भगवान को मानिए, यह आपकी मर्जी है। जो भगवान आपको मजूबत करता है, ताकत देता है, उससे मुझे क्या, किसी को भी ऐतराज़ नहीं हो सकता है। लेकिन जो भगवान आपको-हमको कमज़ोर करता है, उसकी तरफदारी मैं नहीं कर सकता। उस भगवान का तो देर-सबेर पिंडदान करना ही पड़ेगा।
फोटो सौजन्य: subhuman2k7
एक बात तो तय है कि गुजरा ज़माना जानकारियों के मामले में तो आज से कमतर ही रहा है, इसलिए जब हम सर्वज्ञ नहीं हो पा रहे तो उस दौर के लोग कैसे सर्वज्ञ हो सकते हैं, उनकी कही बातें कैसे कालातीत हो सकती हैं। रहे होंगे पहुंचे संत, लेकिन आज की समस्याएं तो नई हैं। उनका समाधान पुरानी सूक्तियों में कैसे मिल सकता है। हां, उनके ज्ञान को हम सीढ़ी ज़रूर बना सकते हैं। 90 सीढ़ी के बाद ही 91वीं सीढ़ी आएगी। लेकिन यह तो नहीं होना चाहिए कि हम आगे बढ़ने के बजाय पुरानी सीढ़ी पर ही कदमताल करते रहें। नया कहीं शून्य से नहीं आता। पुराने के गर्भ से ही नए का जन्म होता है। लेकिन बचपन में मातृदेवो भव, पितृदेवो भव माननेवाले बच्चे भी बड़े होने के बाद मां-बाप से बनाकर नहीं रह पाते। फिर हम कब तक कल को आज के सिर पर बैठाए रखेंगे? सबको भगवान मानते रहेंगे?
वैसे भी भगवान की नाभि में न जाने कौन-सा अमृत भरा पड़ा है कि हर सिर कटने पर नया सिर उग आता है। पहले माना जाता था कि धरती चपटी है और सूरज इसका चक्कर लगाता है। कोपरनिकस और गैलीलियो ने इसे झूठ साबित कर दिया। डारविन के विकासवाद ने भगवान की अप्रतिम रचना का भ्रम तोड़ डाला। बीसवीं सदी में क्वांटम फिजिक्स और सापेक्षता के सिद्धांत ने विचार और पदार्थ के अलग वजूद के साथ ही अंतिम व निरपेक्ष सत्ता की मान्यता के परखचे उड़ा दिए। बिग बैंग सिद्धांत ने हज़ारों सालों से पवित्र माने जा रहे मिथकों को कपोल-कल्पना साबित कर दिया। फिर भी आज की तारीख में दुनिया के 90 फीसदी लोग भगवान की सत्ता को मानते हैं। उससे डरते हैं, उसकी आराधना करते हैं।
मुझे लगता है कि इसका सबसे बड़ा कारण हमारे पढ़ने-पढ़ाने की पद्धति है। वयस्क जीवन में कदम रखने तक हमें इतनी जानकारी हो जानी चाहिए कि जीवन के तमाम क्षेत्रों में ठीक हमारे पहले की पीढ़ी तक क्या-क्या खोजा और पाया गया है, चाहे वह विज्ञान हो, दर्शन हो, अर्थशास्त्र हो या मनोविज्ञान। यह सब समय और दौर के साथ बंधा ज्ञान होगा तो इतिहास हम खुद-ब-खुद जान जाएंगे। और, साहित्य तो हम वैसे भी अपनी कोशिश जान ही लेते हैं। उसके लिए अलग से मशक्कत की ज़रूरत नहीं है।
कल को यथार्थपरक अंदाज़ में जानना बेहद ज़रूरी है। तभी हम उससे मुक्त हो सकते है। हर ऐरे-गैरे को भगवान बनाने की आदत से बच सकते हैं। पैर आगे चलें और आंखें पीछे देखती रहें, ऐसा तो चुड़ैल को सुहाता है, इंसान को नहीं। फिर भी आप भगवान को मानिए, यह आपकी मर्जी है। जो भगवान आपको मजूबत करता है, ताकत देता है, उससे मुझे क्या, किसी को भी ऐतराज़ नहीं हो सकता है। लेकिन जो भगवान आपको-हमको कमज़ोर करता है, उसकी तरफदारी मैं नहीं कर सकता। उस भगवान का तो देर-सबेर पिंडदान करना ही पड़ेगा।
फोटो सौजन्य: subhuman2k7
Comments
इसे कहना और हज़म करना आसान नहीं है. मगर सत्य है, सत्य है, सत्य है.
लोग भगवान से पीछा तो क्या छुड़ाएंगे, लगता है भगवान ही पीछा छुड़ा गया है।
But i am a bit different in the thought of GOD, basically the GOD is a fear which our previous people made and because of that fear we still exist :)
for me it is also tough to believe GOD but somehow I have a feeling that this world is so perfect that it is impossible to believe that there is no supernatural power behind it.