जीत के राष्ट्रीय प्रतीकों का इतना भयंकर अकाल!!

पहले राजनीति में हमारे जननायक हुआ करते थे। क्रांतिकारी हमारी प्रेरणा हुआ करते थे। लेकिन राजनीति करता है, जानते ही हम मान लेते हैं कि वो भ्रष्ट होगा। और आज के सारे क्रांतिकारी सरकार की ही नहीं, हमारी नज़रों में भी आतंकवादी हो गए हैं। देश में प्रेरक राष्ट्रीय नेताओं की धारा जयप्रकाश नारायण के बाद सूख गई। वी पी सिंह जब से मंडल के नेता बने, अपनी सारी ‘ठकुराई’ खो बैठे। सब के नहीं, कुछ के नेता बन गए। वैसे भी, अवसरवाद मांडा नरेश की जन्मजात खासियत है तो इनसे कोई उम्मीद की भी नहीं जा सकती थी। इस शून्य में जैसे ही कोई प्रतीक दिखता है, लोग लपक लेते हैं। कलाम पहले एक वैज्ञानिक थे। लेकिन राष्ट्रपति बनने के बाद वो हम सबके दिलों पर राज करनेवाले राष्ट्रीय प्रतीक बन चुके हैं।
कितना दुखद है कि 120 करोड़ की आबादी वाला देश 21वीं शताब्दी में भी भगवानों और अभिनेताओं में अपना एक्टेंशन खोजने को मजबूर है। नितांत परायों में अपनी छवि ढूंढता है। भारत के 100 करोड़ से ज्यादा लोग अभिनव चंद्रा की हैसियत की बराबरी नहीं कर सकते। चंडीगढ़ के बाहर दस एकड़ का फार्म, जहां भौंकते हैं किस्म-किस्म की विदेशी नस्लों के कु्त्ते। मेन गेट से रिहाइशी महल तक पहुंचने में ही पांच मिनट लग जाएंगे। इसमें अभिनव बिंद्रा का प्राइवेट जिम, स्पा, फिजियोथिरैपी सेंटर और यहां तक कि ओलंपिक के मानकों के हिसाब से बनाया गया अपना खुद का शूटिंग रेंज भी है। और आज से नहीं, पिछले दस-बारह सालों से।
अभिनव ने आज अगर भारत को पहला ओलंपिक गोल्ड मेडल दिलाने का इतिहास रचा है तो इसमें हमारी भारत सरकार का कोई योगदान नहीं है। अभिनव के पिता ए एस बिंद्रा के मुताबिक मित्तल चैंपियंस ट्रस्ट नाम की संस्था ने ज़रूर स्पांसरशिप में थोड़ी मदद की थी, लेकिन सरकार ने कभी भी कोई मदद नहीं की। अभिनव के अभ्यास और हर ज़रूरत का पूरा खर्च घरवालों ने उठाया। अभिनव के पिता एक फूड प्रोसेसिंग और कृषि उत्पादों की फर्म हाईटेक इंडस्ट्रीज के मालिक हैं। करोड़ों का धंधा है उनका।
आज हरियाणा और पंजाब सरकार से लेकर महाराष्ट्र सरकार तक अभिनव को लाखों देने की घोषणा कर रही है। बिहार सरकार ने बिंद्रा स्टेडियम ही बनाने का ऐलान कर दिया है। यहां तक कि क्रिकेट राष्ट्रीयता को भुनानेवाली बीसीसीआई ने भी अभिनव को 25 लाख रुपए देने का ऐलान किया है। लेकिन ये सब कहां थे जब अभिनव अपने फार्म में अकेले अपने पिता के संसाधनों पर अभ्यास कर रहा था? बीजिंग ओलम्पिक से पहले कम से कम 15 कॉरपोरेट घरानों से भारतीय शूटिंग टीम को स्पांसर करने की गुजारिश की गई थी। लेकिन सभी ने इनकार कर दिया। और, अभी 15 अगस्त आएगा तो खुद ही देख लीजिएगा कि तमाम कॉरपोरेट घराने कितनी ज़ोर-शोर से इस मौके का इस्तेमाल अपनी ब्रांड छवि को चमकाने में करेंगे।
राष्ट्रीयता के इन बाहरी मुखौटों ने साफ कर दिया है कि इनका वास्ता राष्ट्र के विकास से नहीं है। ये तो संयोग से उभरे प्रतीकों को लपककर अपने राष्ट्रवादी होने का स्वांग बनाए रखना चाहते हैं। मेरी तरह शायद आप भी मानेंगे कि अभिनव अगर किसी औसत घर का बेटा होता तो इतनी प्रतिभा के बावजूद राष्ट्र के लिए अपनी अहमियत कतई नहीं साबित कर पाता।
Comments
ये हमारे समय की बॉटम लाइन है ।
दरअसल हम सिर्फ उगते हुए को ही सलाम करना चाहते हैं। यही हमारी औसत सोच का प्रतीक है।