Tuesday 12 August, 2008

जीत के राष्ट्रीय प्रतीकों का इतना भयंकर अकाल!!

हर जगह से हारे हुए भारतीयों को कहीं तो जीत लेने दो – ये विमल की उस बड़ी चुभती हुई टिप्पणी का एक अंश है, जो उन्होंने मेरी एक शुरुआती पोस्ट पर की थी। लेकिन विमल की बात एक नया एहसास दे गई और वो एहसास आज भी कायम है। अभिनव बिंद्रा की जीत पर मचा हल्ला विमल की बात की तस्दीक करता है। वाकई जीत के राष्ट्रीय प्रतीकों का कितना भयंकर अकाल है अपने देश में? कभी हम कल्पना चावला और सुनीता विलियम्स में अपनी पहचान खोजते हैं, कभी बीसीसीआई की क्रिकेट टीम में तो कभी लक्ष्मी मित्तल और बॉबी जिंदल में।

पहले राजनीति में हमारे जननायक हुआ करते थे। क्रांतिकारी हमारी प्रेरणा हुआ करते थे। लेकिन राजनीति करता है, जानते ही हम मान लेते हैं कि वो भ्रष्ट होगा। और आज के सारे क्रांतिकारी सरकार की ही नहीं, हमारी नज़रों में भी आतंकवादी हो गए हैं। देश में प्रेरक राष्ट्रीय नेताओं की धारा जयप्रकाश नारायण के बाद सूख गई। वी पी सिंह जब से मंडल के नेता बने, अपनी सारी ‘ठकुराई’ खो बैठे। सब के नहीं, कुछ के नेता बन गए। वैसे भी, अवसरवाद मांडा नरेश की जन्मजात खासियत है तो इनसे कोई उम्मीद की भी नहीं जा सकती थी। इस शून्य में जैसे ही कोई प्रतीक दिखता है, लोग लपक लेते हैं। कलाम पहले एक वैज्ञानिक थे। लेकिन राष्ट्रपति बनने के बाद वो हम सबके दिलों पर राज करनेवाले राष्ट्रीय प्रतीक बन चुके हैं।

कितना दुखद है कि 120 करोड़ की आबादी वाला देश 21वीं शताब्दी में भी भगवानों और अभिनेताओं में अपना एक्टेंशन खोजने को मजबूर है। नितांत परायों में अपनी छवि ढूंढता है। भारत के 100 करोड़ से ज्यादा लोग अभिनव चंद्रा की हैसियत की बराबरी नहीं कर सकते। चंडीगढ़ के बाहर दस एकड़ का फार्म, जहां भौंकते हैं किस्म-किस्म की विदेशी नस्लों के कु्त्ते। मेन गेट से रिहाइशी महल तक पहुंचने में ही पांच मिनट लग जाएंगे। इसमें अभिनव बिंद्रा का प्राइवेट जिम, स्पा, फिजियोथिरैपी सेंटर और यहां तक कि ओलंपिक के मानकों के हिसाब से बनाया गया अपना खुद का शूटिंग रेंज भी है। और आज से नहीं, पिछले दस-बारह सालों से।

अभिनव ने आज अगर भारत को पहला ओलंपिक गोल्ड मेडल दिलाने का इतिहास रचा है तो इसमें हमारी भारत सरकार का कोई योगदान नहीं है। अभिनव के पिता ए एस बिंद्रा के मुताबिक मित्तल चैंपियंस ट्रस्ट नाम की संस्था ने ज़रूर स्पांसरशिप में थोड़ी मदद की थी, लेकिन सरकार ने कभी भी कोई मदद नहीं की। अभिनव के अभ्यास और हर ज़रूरत का पूरा खर्च घरवालों ने उठाया। अभिनव के पिता एक फूड प्रोसेसिंग और कृषि उत्पादों की फर्म हाईटेक इंडस्ट्रीज के मालिक हैं। करोड़ों का धंधा है उनका।

आज हरियाणा और पंजाब सरकार से लेकर महाराष्ट्र सरकार तक अभिनव को लाखों देने की घोषणा कर रही है। बिहार सरकार ने बिंद्रा स्टेडियम ही बनाने का ऐलान कर दिया है। यहां तक कि क्रिकेट राष्ट्रीयता को भुनानेवाली बीसीसीआई ने भी अभिनव को 25 लाख रुपए देने का ऐलान किया है। लेकिन ये सब कहां थे जब अभिनव अपने फार्म में अकेले अपने पिता के संसाधनों पर अभ्यास कर रहा था? बीजिंग ओलम्पिक से पहले कम से कम 15 कॉरपोरेट घरानों से भारतीय शूटिंग टीम को स्पांसर करने की गुजारिश की गई थी। लेकिन सभी ने इनकार कर दिया। और, अभी 15 अगस्त आएगा तो खुद ही देख लीजिएगा कि तमाम कॉरपोरेट घराने कितनी ज़ोर-शोर से इस मौके का इस्तेमाल अपनी ब्रांड छवि को चमकाने में करेंगे।

राष्ट्रीयता के इन बाहरी मुखौटों ने साफ कर दिया है कि इनका वास्ता राष्ट्र के विकास से नहीं है। ये तो संयोग से उभरे प्रतीकों को लपककर अपने राष्ट्रवादी होने का स्वांग बनाए रखना चाहते हैं। मेरी तरह शायद आप भी मानेंगे कि अभिनव अगर किसी औसत घर का बेटा होता तो इतनी प्रतिभा के बावजूद राष्ट्र के लिए अपनी अहमियत कतई नहीं साबित कर पाता।

7 comments:

Yunus Khan said...

अनिल भाई मैंने भी कल टी वी पर घोषणाओं का भद्दा प्रदर्शन देखा । ऐसा लग रहा था जैसे कव्‍वालियों या भजन संध्‍या में कोई रूपया लुटा रहा है और मीडिया एनाउंसमेन्‍ट कर रहा है कि लल्‍लन भईया ने पांच रूपये दिये धन्‍यवाद उनका । बहरहाल चाहे अभिनव हो या फिर राज्‍यवर्धन राठौड़, सभी अपने निजी संसाधनों पर नाम कमा रहे हैं । राज्‍यवर्धन के पिछले कई इंटरव्‍यूज़ में काफी तल्‍खी नज़र आई है । निशानेबाज़ी में मुंबई की एक नई लड़की भी तेज़ी से उभर रही है, उसका नाम नहीं याद आ रहा है, पर मैंने रेडियो के लिए उसका इंटरव्‍यू किया था, पता चला कि उनका परिवार काफी संपन्‍न है । और उसकी ट्रेनिंग का सारा खर्चा उठाता है । वो ट्रेनिंग के लिए अपने खर्च पर जसपाल राणा के पास उत्‍तरांचल जाती है । और जापान या यूरोप में जाकर ट्रेनिंग करती है । नाज़ों से पली और बाकायदा मैनेजमेन्‍ट के तहत आगे बढ़ती नई पीढ़ी की खिलाडि़न । मैंने उससे पूछा था कि अगर घर से संपन्‍न ना होतीं तो क्‍या इस खेल में आतीं । तो उसका जवाब था कि इस खेल में नहीं । किसी भी खेल में नहीं आ सकती थी ।
ये हमारे समय की बॉटम लाइन है ।

संजय शर्मा said...

हम उगते सूरज की इतनी पूजा करते है कि सुबह के एक दो घंटे व्यतीत होते ही काले बादल ढक ले जाता है अपने सूरज को .और हम बादल बुलाने में लग गये हैं इस बार भी .

डॉ .अनुराग said...

आपका शीषक ही सब कुछ कह गया ......

Anshu Mali Rastogi said...

रघुजी
दरअसल हम सिर्फ उगते हुए को ही सलाम करना चाहते हैं। यही हमारी औसत सोच का प्रतीक है।

Unknown said...

एक कड़वी सच्चाई से रूबरू कराता शानदार लेख…

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

घबराइए नहीं, ये सब हो-हल्ला दो-चार दिन का है। सारे नेता, कार्पोरेट घराने, और खेल प्रशासक अपने-अपने हिस्से की बेशर्मी दिखा कर कुछ देर के लिए श्रेय लूटने की होड़ लगाएंगे और बुलबुला फूटने के बाद फिर अपनी पुरानी हरामखोरी पर लौट आएंगे। अभिनव पर रूपयों और पुरस्कारों की बरसात करके आखिर ये अपनी शर्म ही तो लीप रहे हैं।

Sanjay Tiwari said...

अनिल जी एकाध जगह बिन्द्रा की जगह चंद्रा हो गया है.