देखते चलो, बहुत बड़ा है हमारे भीतर का भारत
एक नया भारत सतह तोड़कर निकल रहा है। यह भारत उस भारत से अलग है जिसके बारे में कभी विद्वान कांग्रेसी नेता देवकांत बरुआ ने ‘इंदिरा इज़ इंडिया’ का नारा दिया था। यह भारत उस भारत से भी अलग है जिसमें सरकार को ही भारत माना जाता है और सरकार के खिलाफ बगावत को राष्ट्रद्रोह करार दिया जाता है। यह भारत हमारे भीतर का भारत है जो किस्मत से सरकार की नज़रों से बचा रह गया है। दस-बीस साल पहले उद्योग जगत में इस भारत का परचम फहराया इंफोसिस जैसी कंपनियों और सॉफ्टवेयर जैसे उद्योग ने। और, अब खेल जगत में इसी भारत का झंडा बुलंद कर रहे हैं अभिनव बिंद्रा, सुशील कुमार और विजेन्दर। अमीर-गरीब सब इस भारत में शामिल हैं। यह जीतनेवाला भारत है, विश्व-विजय इसका ध्येय हैं। और, सरकार भी इसे इस ध्येय को हासिल करने से नहीं रोक सकती।
अभिनव बिंद्रा ने जो कुछ भी हासिल किया, सब अपने संसाधनों और हौसले के दम पर। साल भर तक पीठ के दर्द से परेशान बिंद्रा सर्जरी और फिजियो थिरैपिस्ट की मदद से खुद को फिट करते रहे, तब जाकर गोल्ड मेडल हासिल किया। न तो सरकार और न ही किसी कॉरपोरेट हाउस ने उसकी मदद की। भिवानी के विजेन्दर और जितेन्दर अपने बॉक्सिंग क्लब और कोच की बदौलत ही आज इतना आगे बढ़े हैं। विजेन्दर कांस्य पदक का हकदार बन चुका है और अब गोल्ड जीतने की ख्वाहिश रखता है। अखिल मेडल नहीं जीत पाया, लेकिन उसने विश्व चैम्पियन को हराने का सम्मान हासिल किया। भिवानी का ही जितेन्दर अगर मेडल से चूक गया तो इसकी बड़ी वजह थी प्री-क्वार्टर फाइनल मुकाबले में उसको लगी चोट। सोचिए, इस बंदे के जबड़े पर दस टांके लगे हुए थे। फिर भी वो रिंग में उतरा और 15 के मुकाबले 11 अंक लेकर अपने विरोधी को कड़ी टक्कर दी। हमें भिवानी के इन मरजीवड़ों के जज्बे को सलाम करना पडे़गा।
दिल्ली में छत्रसाल के रहनेवाले सुशील कुमार के तो कहने ही क्या!! सतपाल के अखाड़े का यह पहलवान बीस लोगों के साथ ऐसे कमरे में रहता है जिसमें हर बेड पर दो लोग सोते हैं। 1000-1500 रुपए महीने का देकर सुशील जैसे कुश्ती के शौकीन तमाम नौजवान रहने-खाने का इंतज़ाम करते हैं। कमरे में कॉकरोच और चूहे भी इनके संगी साथी हैं। ऐसा नही है कि सुशील की प्रतिभा का हमारी स्पोर्ट्स अथॉरिटी या सरकार के किसी और विभाग को पता नहीं था। सुशील कुमार 1998 के एशियन कैडेट जूनियर टूर्नामेंट में गोल्ड मेडल जीत चुका है और उसे साल 2005 में अर्जुन पुरस्कार भी मिल चुका है। लेकिन किसी ने नहीं सोचा कि इन पहलवानों को कायदे के रहने-खाने की सुविधाएं दिलवाई जाएं। अब मेडल पाने के बाद दिल्ली से लेकर हरियाणा की सरकारों ने चंद घंटों में ही सुशील के ऊपर डेढ़ करोड़ रुपए न्यौछावर दिए हैं। जैसे, सुशील खिलाड़ी न होकर मुजरे में नाचनेवाली कोई तवायफ हो, जिस पर नवाब लोग पैसे लुटा रहे हैं।
कहने का मतलब है कि जीतनेवाले भारत को आगे बढ़ाना है तो हमें नवाबी सरकार से निजात पानी होगी। लेकिन यह निजात हम पा नहीं सकते क्योंकि इसके नाखून और दांत बेहद पैने हैं। हां, हम इसको अप्रासंगिक ज़रूर बना सकते हैं। जैसे बीसीसीआई ने क्रिकेट में सरकारी तंत्र को एकदम अप्रासंगिक बना दिया है। निजी पहल और प्राइवेट क्लब स्पोर्ट्स अथॉरिटी जैसी सरकारी संस्थाओं को बेमतलब बना सकते हैं। और आप जानते ही है कि जो चीज़ बेमतलब हो जाती है, अप्रासंगिक हो जाती है, वो मिट जाती है। सरकारें भी इसका अपवाद नहीं है। ये अलग बात है कि जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक हमें सरकार से उस पैसे का हिसाब-किताब लेते रहना पड़ेगा जो हम उसे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष करों के रूप में देते हैं।
फोटो सौजन्य: Social Geographic
अभिनव बिंद्रा ने जो कुछ भी हासिल किया, सब अपने संसाधनों और हौसले के दम पर। साल भर तक पीठ के दर्द से परेशान बिंद्रा सर्जरी और फिजियो थिरैपिस्ट की मदद से खुद को फिट करते रहे, तब जाकर गोल्ड मेडल हासिल किया। न तो सरकार और न ही किसी कॉरपोरेट हाउस ने उसकी मदद की। भिवानी के विजेन्दर और जितेन्दर अपने बॉक्सिंग क्लब और कोच की बदौलत ही आज इतना आगे बढ़े हैं। विजेन्दर कांस्य पदक का हकदार बन चुका है और अब गोल्ड जीतने की ख्वाहिश रखता है। अखिल मेडल नहीं जीत पाया, लेकिन उसने विश्व चैम्पियन को हराने का सम्मान हासिल किया। भिवानी का ही जितेन्दर अगर मेडल से चूक गया तो इसकी बड़ी वजह थी प्री-क्वार्टर फाइनल मुकाबले में उसको लगी चोट। सोचिए, इस बंदे के जबड़े पर दस टांके लगे हुए थे। फिर भी वो रिंग में उतरा और 15 के मुकाबले 11 अंक लेकर अपने विरोधी को कड़ी टक्कर दी। हमें भिवानी के इन मरजीवड़ों के जज्बे को सलाम करना पडे़गा।
दिल्ली में छत्रसाल के रहनेवाले सुशील कुमार के तो कहने ही क्या!! सतपाल के अखाड़े का यह पहलवान बीस लोगों के साथ ऐसे कमरे में रहता है जिसमें हर बेड पर दो लोग सोते हैं। 1000-1500 रुपए महीने का देकर सुशील जैसे कुश्ती के शौकीन तमाम नौजवान रहने-खाने का इंतज़ाम करते हैं। कमरे में कॉकरोच और चूहे भी इनके संगी साथी हैं। ऐसा नही है कि सुशील की प्रतिभा का हमारी स्पोर्ट्स अथॉरिटी या सरकार के किसी और विभाग को पता नहीं था। सुशील कुमार 1998 के एशियन कैडेट जूनियर टूर्नामेंट में गोल्ड मेडल जीत चुका है और उसे साल 2005 में अर्जुन पुरस्कार भी मिल चुका है। लेकिन किसी ने नहीं सोचा कि इन पहलवानों को कायदे के रहने-खाने की सुविधाएं दिलवाई जाएं। अब मेडल पाने के बाद दिल्ली से लेकर हरियाणा की सरकारों ने चंद घंटों में ही सुशील के ऊपर डेढ़ करोड़ रुपए न्यौछावर दिए हैं। जैसे, सुशील खिलाड़ी न होकर मुजरे में नाचनेवाली कोई तवायफ हो, जिस पर नवाब लोग पैसे लुटा रहे हैं।
कहने का मतलब है कि जीतनेवाले भारत को आगे बढ़ाना है तो हमें नवाबी सरकार से निजात पानी होगी। लेकिन यह निजात हम पा नहीं सकते क्योंकि इसके नाखून और दांत बेहद पैने हैं। हां, हम इसको अप्रासंगिक ज़रूर बना सकते हैं। जैसे बीसीसीआई ने क्रिकेट में सरकारी तंत्र को एकदम अप्रासंगिक बना दिया है। निजी पहल और प्राइवेट क्लब स्पोर्ट्स अथॉरिटी जैसी सरकारी संस्थाओं को बेमतलब बना सकते हैं। और आप जानते ही है कि जो चीज़ बेमतलब हो जाती है, अप्रासंगिक हो जाती है, वो मिट जाती है। सरकारें भी इसका अपवाद नहीं है। ये अलग बात है कि जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक हमें सरकार से उस पैसे का हिसाब-किताब लेते रहना पड़ेगा जो हम उसे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष करों के रूप में देते हैं।
फोटो सौजन्य: Social Geographic
Comments
और ये है आज का सबसे जोरदार तमाचा