अवाम के बीच से आना ही पर्याप्त है क्या?

मैं कोई ऊंचे खानदान का नहीं हूं। मैं कहीं आसमान से ज़मीन पर नहीं आया। मैं एक मिडिल क्लास का आदमी हूं। मैं इस अवाम में से हूं। इसलिए इनका दुख-दर्द हमेशा मेरे पास रहता है। और, मुझे ज़िंदगी की मुश्किलात, जिंदगी की तकलीफात का पूरा अहसास है। मेरी मां की दुआएं, मेरी बेगम और बच्चों का सपोर्ट हमेशा मेरे साथ रहा है। और, ये मेरी ताकत है। अल्ला-ताला इस मुल्क को साज़िशों से महफूज़ रखे। अल्लाताला अवाम की मुश्किलें आसान करे। मेरी जान इस मुल्क, इस कौम के लिए हमेशा हाज़िर रहेगी।
ये हैं परवेज़ मुशर्रफ के आखिरी अल्फाज़ जो उन्होंने राष्ट्रपति पद से इस्तीफा देते वक्त पाकिस्तान के अवाम से कहे। उन्होंने कहा – पाकिस्तान मेरा इश्क है। उन्होंने अपनी साफ नीयत का हवाला दिया। कहा - गरीब अवाम पिसा जा रहा है जिसका उन्हें दिली रंज है। लेकिन क्या राजनीति में अवाम के बीच से आना और नीयत का साफ होना ही पर्याप्त है? मां की दुआएं और बीवी-बच्चों का सपोर्ट तो हर नेता के साथ रहता है। हमारे लालूजी से लेकर नीतीश कुमार इसका दावा कर सकते हैं। मायावती तो देश के सबसे दलित तबके से आती हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तक आम आदमी के बीच से ही उभरे नेता हैं। नीतीश जब बिहार के मुख्यमंत्री बने थे, तब उनके पैतृक घर की तस्वीरें तो आप सभी ने टेलिविजन पर देखी होंगी।

मुशर्रफ जैसा भावुक भाषण मनमोहन सिंह भी कर सकते हैं। लालू और नीतीश कुमार भी। लेकिन क्या केवल पृष्ठभूमि के आधार पर उनके कृत्यों का बहीखाता बंद किया जा सकता है? गौरतलब है कि मुशर्रफ जब राष्ट्र के नाम संबोधन में भावुक हुए जा रहे थे तब पाकिस्तान में हर तरफ मिठाइयां बांटी जा रही थीं। वो जिस अवाम की दुहाई दे रहे थे, वही अवाम सड़कों, गलियों, मोहल्लों में खुशियां बना रहा था। तो, क्या मुशर्रफ सही हैं और अवाम एहसानफरामोश है जो उनकी नौ साल की कामयाबियों की तौहीन कर रहा है? अवाम, राजनीति और व्यक्ति के रिश्तों पर हमें गंभीरता से गौर करने की ज़रूरत है।

वैसे, हमारे मनमोहन सिंह और मुशर्रफ में कुछ समानताएं भी हैं। मसलन, मुशर्रफ और मनमोहन दोनों ही कह सकते हैं कि उन्होंने जन्मभूमि छोड़कर नए राष्ट्र और अवाम की सेवा की है। मुशर्रफ की जन्मभूमि भारत है और मनमोहन की जन्मभूमि पाकिस्तान। मनमोहन सिंह की तो खासियत यह भी है कि उनके बायोडाटा के सामने बड़े-बड़े खुद को बौना महसूस कर सकते हैं। पढ़ाई में लगातार अव्वल। देश से लेकर विदेश तक में शीर्ष स्तर की नौकरियां। इसके बावजूद इस शख्स की आज भारतीय राजनीति में कोई स्वतंत्र हैसियत नहीं है। सोनिया चाहें तो एक इशारे पर राहुल गांधी को उनके सिर पर बैठा सकती हैं और मनमोहन तब राहुल की सेवा में लग जाएंगे।

इसलिए मुझे लगता है कि मुर्शरफ या किसी भी नेता की भावुक अपील पर अवाम को तवज्जो नहीं देना चाहिए। राजनीति में व्यक्ति कहां से आया है, इससे ज्यादा इस बात की अहमियत होती है कि वो किसका प्रतिनिधित्व कर रहा है, किसके हाथों में खेल रहा है, असल में किस-किस की सेवा कर रहा है।

Comments

हजार करोड़ की बात है।
मुशर्रफ हों या मनमोहन,
सोनिया हों या राहुल,
अटल हों या अडवानी,
माया हों या मुलायम,
लालू हों या नीतीश
सभी कठपुतलियाँ हैं।
नचाने वाला और कोई बेली है,
पहचान सको तो पहचानो
ये मुद्राओं भरी थैली है।
आपने बिल्कुल सही कहा है.
ये सब चोर केवल अवाम को बरगला कर अपना उल्लू सीधा करते हैं.
Anil Pusadkar said…
sare siddhant satta ki bagdor chhutate waqt yaad aate hain.satta me rahte ye sab yaad rahe to avam ko kuchh bhi yaad dilane ki zarurat na pade,magar aisa hota kahan hai.power currupts a man and .......................
शोभा said…
इसलिए मुझे लगता है कि मुर्शरफ या किसी भी नेता की भावुक अपील पर अवाम को तवज्जो नहीं देना चाहिए। राजनीति में व्यक्ति कहां से आया है, इससे ज्यादा इस बात की अहमियत होती है कि वो किसका प्रतिनिधित्व कर रहा है, किसके हाथों में खेल रहा है, असल में किस-किस की सेवा कर रहा है।
sahi baat hai.
राष्ट्रपति मुशर्रफ की विदाई पर बढिया विश्लेषण। आपने सही लिखा है। मुशर्रफ माफी के योग्य नहीं है। हो सकता है कि उनके आंसू घड़ियाली हो।
.

इनका काम है..कहना,
सच कौन नहीं जानता ?
पाकिस्तान में मुशर्रफ कोई पहले तानाशाह तो थे नहीं जो कुछ नया कहते या करते। ...वैसे वहाँ की जनता लोकतंत्र की दीवानी नहीं है। और न ही उन्हें ऐसा कोई नेता मिला जो लोकतांत्रिक ढंग से भारत की तरह संवैधानिक सत्ता परिवर्तन का रास्ता बनाए। मुशर्रफ़ के पीछे सेना की ताकत थी, संविधान की नहीं। मनमोहन तो फिर भी संविधान के तहत् नियम से बनाये गये प्रधानमंत्री हैं जो देश को सामूहिक नेतृत्व दे रहे हैं।

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