Saturday 16 August, 2008

मानस ने डूबकर पूछा, दीदी तूने ऐसा क्यों किया?

मानस एक ऐसा शख्स था जो होश संभालने के बाद हमेशा लीक से हटकर चला। जब होश नहीं था, तब भी नियति ने उसे आम लोगों के बीच से उठाकर खास स्थान पर रख दिया था। मां-बाप, भाई-बहन तंग हालात से गुजरते रहे लेकिन उसके इर्दगिर्द हमेशा एक कवच बना रहा, उसी तरह जैसे भयंकर बारिश में उफनती यमुना से गुजरते कान्हा के ऊपर शेषनाग छतरी बनकर तन गया था। लेकिन 25-26 साल का होते ही अचानक सुरक्षा की ये छतरी मानस के ऊपर से गायब हो गई। उसे इसका एहसास तब हुआ तब उसने शादी की। न देखा न भाला। सोचा सब अच्छा ही होगा। फिर बड़ी दीदी ने तो लड़की देख ही ली थी। लेकिन शादी के पहले ही दिन मानस को झटका लगा। उसने सोचा, चलता है। हर लड़की गीली मिट्टी की तरह होती है, जिसे वह थोड़ा अपने हिसाब से ढाल लेगा और थोड़ा खुद भी उसके हिसाब से ढल जाएगा। लेकिन शादी के तीन साल बाद मानस इस रिश्ते को लेकर पूरी तरह निराश हो गया। उसने बड़ी दीदी को एक खत लिखा।
इसमें लिखा था कि...

आदरणीय दीदी, प्रणाम।
अरसे बाद आपको पत्र लिख रहा हूं। अकेला हूं। नलिनी अम्मा-बाबू जी के पास गई है। होटल से अभी-अभी खाना खाकर रात 11.30 बजे कमरे पर आया हूं। शादी के बाद से ही बार-बार एक बात मेरे मन में उठती रही है, पर उसे खुद को समझा-बुझाकर दबाता रहा हूं। लेकिन मेरी लाख कोशिशों के बावजूद वो बात गाहे-बगाहे हूक बनकर टीसने लगती है। जानता हूं कि सभी भाइयों में आपका सबसे ज्यादा अनुराग मेरे साथ है। इसीलिए वह बात आपसे नहीं कह सका, न जुबान से, न पत्र के माध्यम से। लेकिन अब सोचता हूं, कह ही डालूं। कहने से कोई समाधान तो नहीं निकलेगा। हां, मन ज़रूर हल्का हो जाएगा।

दीदी, मैं जैसा भी हूं, जहां भी हूं, खुश हूं। जो कुछ किया अपनी मर्जी से किया। गांव-गांव भटका अपनी मर्जी से। नौकरी नहीं की तो अपनी मर्जी से। और, नौकरी कर रहा हूं तो अपनी मर्जी से। ज्यादा से ज्यादा कमाकर मजे से रहूं, इसके लिए मेहनत भी करता हूं। खुलकर खर्च करता हूं। बचत के नाम पर कड़का हूं, अपनी मर्जी से। बस, लगता है कि अगर केवल एक चीज़ मेरे पास होती तो मेरी ज़िंदगी में अनुशासन आ जाता और मैं हर पल चहकनेवाला इंसान होता। वह चीज़ है एक ऐसी बीवी जो कुछ हद तक मेरे अनुरूप होती। मेड फॉर ईच अदर जैसी जोड़ी की उम्मीद तो मैंने नहीं संजोयी थी, लेकिन यह अपेक्षा ज़रूर थी कि मेरी पत्नी औसत सौंदर्य व स्वास्थ्य वाली होगी, संस्कारवान व कल्चर्ड होगी।

लेकिन बड़े अफसोस की बात है कि जिस लड़की की तरफ मैं सड़क चलते देखता भी नहीं, उसे आपने अपने उस भाई की पत्नी बनाने के लिए पसंद किया, जिसका पूरे जीवन से मोहभंग हो चुका था और जिसने शादी की बात सिर्फ इसलिए स्वीकार की थी कि बंधन हो जाएगा तो पुनर्जीवन हो जाएगा।... मुझे पता है कि आप दरअसल मेरे लिए लड़की पसंद करने गई ही नहीं थीं। जीजा ने मुझे शादी के समय जाते वक्त रास्ते में बताया कि आप लोग महज खानापूरी के लिए गए थे। आप लोगों को पता था कि बाबूजी शादी पक्की कर चुके हैं। इसलिए आपको वहां जाकर बस रस्म अदायगी करनी है। आपने यही किया भी। लेकिन ऐसा करते वक्त एक बार तो सोचा होता कि आप अपने सबसे सेंसिटिव भाई की ज़िंदगी का अहम फैसला करने जा रही हैं।

मैं आपसे पूछना चाहता हूं कि क्या आप अपने देवरों – महेंद्र, सुरेंद्र और बृजेन्द्र के बारे में भी ऐसी लापरवाही बरत सकती हैं। इतने पराए तो हम नहीं थे, न ही अफसर न बनकर इतने गए-गुजरे हो गए थे कि हीरो होंडा, गोदरेज़ की आलमारी, 25,000 रुपए नकद और कलर टीवी के एवज़ में एक शराबखोर बाप, शराबखोर भाई और खुद अपनी जान लेनेवाली मां की बेटी के साथ बांध दिया जाता। बड़े भाई चिरंतन भी आपके साथ लड़की देखने गए थे। उन्होंने खत भेजकर मुझसे कहा कि लड़की से तेरा कोई मेल नहीं है। मैंने शादी ठुकराने का मन बना लिया। लेकिन बाबूजी आए। बोले – लड़की आपने पसंद की है। बस, यहीं मुझसे चूक हो गई। मुझे आप पर पूरा विश्वास था कि आप एक संतुलित फैसला लेंगी। लेकिन आप तो खानापूरी करने गई थीं।

दीदी, दरअसल मुझे लगता है कि सारी गलती मेरी ही है। अपनी ज़िंदगी के बारे में सारे फैसले मैंने खुद किए। वे सही रहे हों या गलत, फैसले मेरे थे, इसलिए मैं उनके गलत नतीजों को दुरुस्त भी कर सकता हूं। लेकिन शादी जैसे नितांत निजी फैसले के लिए मैंने आप पर भरोसा किया। मेरी इस गलती ने मेरी ऊपर से शांत और स्थिर दिख रही ज़िंदगी को अशांत कर दिया है। मैंने नलिनी के साथ एडजस्ट करने की भरसक कोशिश की। मन को बहुत समझाया भी। सोचा कि रूप का आकर्षण न सही। स्वभाव का, गुण का आकर्षण शायद अंदर छिपा हो। पर वह भी नहीं। न बच्चों को प्यार करने, पढ़ाने-पालने का सलीका, न संस्कार देने का। बस बात-बात पर पीटना आता है। मां-बहन की गालियां देती है वो अपनी कोख से जन्मी बेटियों को। उसमें ऐसा कुछ भी नहीं, जिस पर मैं रीझ सकूं। ऊपर-ऊपर कुछ भी ढकोसला करे, लेकिन उसके अंदर स्वार्थपरता कूट-कूट कर भरी हुई है।

आखिर रूप न सही, तो कौन-से गुण देखकर उसे आपने मेरे लिए पसंद किया था। महज बीए की डिग्री ले लेने से तो कोई संस्कारवान नहीं हो जाता! हो सकता है कि जीजा के कहने पर आपने देखने की रस्म अदायगी की हो। गईं, मिठाई खाई, साड़ी दी और चली आईं। बाबूजी की हामी को आप कैसे काट सकती थीं। लेकिन अगर ऐसा था तो बड़े भाई की तरह आप भी मुझे पत्र लिखकर सही बात बता सकती थीं। मैंने खुद को बहुत समझाया कि जो जिसकी किस्मत में होता है, वही उसे मिलता है। ईश्वर और विधि के लेखे के नाम पर भी मैंने मन को समझाया। अपनी गलती भी मानी। पर, बार-बार कहीं न कहीं मेरा अंतर्मन अपने असंतुलित दाम्पत्य का दोषी आपको ठहराता है।

खैर दीदी, भयंकर तनाव में हूं। मेरी वास्तविक भावनाओं से आप ज़रूर आहत हुई होंगी। क्षमा कीजिएगा।
आपका अनुज
मानस

नोट: मानस का ये पत्र दीदी के पास पहुंचा। उन्होंने जीजा के साथ इसे पढ़ा भी। जीजा बोले – इन मास्टर के बेटों का कुछ नहीं हो सकता। लेकिन दीदी ने इस पत्र का कोई जवाब नहीं दिया। पंद्रह साल बीत चुके हैं। इस दौरान दीदी मानस को हर साल बिला नागा डाक से राखी भिजवाती रही हैं।

17 comments:

शोभा said...

बहुत सुन्दर लिखा है। बधाई।

Dr Parveen Chopra said...

aapne to aaj behad bhavuk kar diya !!
Raakhi ki subh-kaamnayein. Kaash aaj pandrah varshon baad manas apni behen ko ik aur pyara sa khat likh kar yaan phone par hi sab gile-shikve door kar daale................!!
kaash aisa hi ho !!

شہروز said...

bahut samvedna hai bhai.
bahut khoob!

संगीता पुरी said...

दीदी तूने ऐसा क्यों किया? कितना दर्द है इस प्रश्न में।

Ashok Pandey said...

प्रेम अंधा होता है। भाई-बहन का प्रेम भी। शायद इसीलिए मानस अपना भला-बुरा खुद नहीं सोच सका।
हमारा जिस तरह का समाज है, उसमें दीदी को दोष देना ठीक नहीं। शायद उनके लिए भी कोई बेमेल जोड़ी तय कर दी जाती तो वह उनके लिए स्‍वीकार्य ही होता।

दिनेशराय द्विवेदी said...

रक्षाबंधन का यह संदर्भ भी विचित्र है। पर ऐसा बहुत हो रहा है।
मानस की पत्नी भी भारतीय परिस्थितियों की देन है। ऐसा क्यों होता है कि एक लड़की ऐसे रूप में परिवर्तित हो जाती है। वह प्रेम करना और जीवन जीना नहीं जानती। परिवार और समाज से बचपन में जो कुछ भी मिला वही दे रही है। कुछ दूसरे लोगों का दंड कुछ और लोग पा रहे हैं। यह हमारे समाज की विडम्बना है। और कानून के पास इस का कोई इलाज भी नहीं।
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रक्षा-बंधन का भाव है, "वसुधैव कुटुम्बकम्!"
इस की ओर बढ़ें...
रक्षाबंधन पर हार्दिक शुभकानाएँ!

प्रेमलता पांडे said...

नहीं पता यह क़िस्सा है या सच? पर सहानुभूति दोनो ओर जाती है। मानस भुक्तभोगी है और दुखी है पर नलिनी की यह हालत उसके पारिवारिक परिवेश की देन है। जिस घर में माँ-बाप-भाई पूरा अबा-का-अबा खराब हो वहाँ से कोई कल्चर्ड कैसे निकल सकता है। बचपन कुंठित होने के कारण विक्षिप्त और क्रोधी होगयी।
इसीलिए पहले ज़माने लोग खानदान देखकर संबंध बनाते थे।

स्वप्नदर्शी said...

दीदी को मा-बाप ने जाने क्या कह्कर भेजा होगा, उसके साथ भी हो सकता है, माता-पिता ने छल किया हो? इतना उसके पास समय न हो कि वो गुण परख पाती.
इसीलिये दोष मानष का भी है कि इतना अहम फैसला उसने बिना सक्रियता के किया.

Sanjeet Tripathi said...

मानस को लौटा लाए आप इसलिए शुक्रिया!
इस पात्र को आपने ऐसा गढ़ा है कि इससे एक अपनापा सा लगता है।
पर वर्तमान मुद्दे पर मानस की भी गलती है, वह अपनी दीदी पर सबकुछ डाल कर नही बैठ सकता।
क्या मानस ऐसा था कि वह किसी के थोपे गए निर्णय को इस तरह स्वीकार कर ले?

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

भाई साहब, वह मानस था कि मिट्टी का माधो! अपने जिन्दगी के सबसे अहम् फैसले के बारे में इतना आलसी और लापरवाह।
...दरअसल ये अप्रिय शब्द इसलिए निकल गये कि ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण शादियाँ मैने अपनी आँखों से देखी हैं और अच्छे भले ‘मानस’ को शराब में डूबते और लम्पट होते देखा है। यहाँ हो सकता है उसे अपनी दीदी पर अतिशय भरोसा करने से धोखा हुआ हो, या उसके भाग्य में ऐसा ही लिख दिया गया हो।
वैसे, बहुत ठोंक बजाकर रिश्ता करने वाले भी सुखी दाम्पत्य की गारण्टी नहीं दे सकते है, गड़बड़ी भी दोनो ओर से हो सकती है। ...फिर भी अफ़सोस तो होता है भाई।

राज भाटिय़ा said...

अनिल जी,जिन पर गुजारती हे वही जानते हे, एक ऎसी ही नलिनी मेरे छोटे भाई को मिली हे, मेरी मां की वजह से,यह गुण नलिनी वाले थोडे कम हे जो हमारी भाभी मे हे, वो तो दस गुणा ज्यादा हे,लेकिन भाई पता नही क्यो फ़िर भी उसी के दामन से बंधा रहना चाहता हे,
आप के लेख ने मुझे बहुत कुछ याद दिला दिया, भगवान करे ऎसी बद जुबान ओरत दुशमन को भी ना मिले,लेकिन मुझे गुस्सा भाई पर आता हे उसे तालाक क्यो नही दे देता.
धन्यवाद

विजय शर्मा said...

आप ने सुंदर चित्रण किया है पढ़ते वक्त एसा महसूस हुआ की हम इस पल को जी रहे है ऐसे कुछ दर्द हम सब के मन मैं दबा रहता है कुछ बता देते हैं और कुछ इस पर ताउमर परदा डाल के रहते है।

बाल भवन जबलपुर said...

एक सवाल के ज़रिए आप ने कितना सही मसला उठाया आपने

Anita kumar said...

मानस के दिल का दर्द समझ में आता है और पूर्णरुपेन संवेदनशील हैं। लेकिन रह रह कर मन में एक बात उठती है जब भी हमारे साथ कुछ बुरा होता है तो ये मनुष्य की प्राकृतिक प्रवत्ती है कि वो उसका दोष किसी और के सर मढ़ता है शायद मानस की दीदी इस बात को जानती है इस लिए खत का जवाब नहीं भेजा। अपने भाई की सोच पर उसे भरोसा है और जानती है कि एक दिन भाई को इस बात का एहसास होगा कि शायद दीदी भी कहीं मजबूर रही होगी अपने पिता के आग्रह के सामने, खुद भी एक गूंगी गुड़िया रही होगी।
दूसरी बात जो हमारे जहन में उठ रही है जो बात राज भाटिया जी ने कही कि ऐसी पत्नी से तलाक क्युं न ले लिया जाय या उसे वापस उसी नरक में क्युं न ढकेल दिया जाए जहां से वो आई थी, तो ये बताइए अगर नलनी की जगह मानस फ़ूहड़ और गवार होता तो भी क्या यही सलाह दी जाती। एक उपन्यास पढ़ा था जो याद आ रहा है जिसमें नायिका पढ़ी लिखी शहरी थी और ब्याह दी जाती है गांव के किसी तैली दुकानदार के साथ, जिसके पास आते ही तेल की दुर्गंध को सहन करने के लिए नायिका नशे करने की आदि हो जाती है। ब्याह समझौतों का नाम है, असली बात ये है कि क्या नलनी मानस के प्रति समर्पित थी या नहीं। थी? हम जानना चाहेगे कि क्या नलनी अब भी मानस की जिन्दगी में है?

आप की पोस्ट ने जहन में कई सवाल खड़े कर दिये। अगली पोस्ट का इंतजार रहेगा

Smart Indian said...

बेमेल विवाह हमारे समाज की हकीकत हैं. यदि दोनों में से एक भी नासमझ हुआ तो सम्पूर्ण जीवन नरक ही समझो.
अच्छा लिखा है. धन्यवाद!

आनंद said...

मानस की खबर बहुत दिनों बाद मिली। इसे पढ़कर सहानुभूति हो रही है। परंतु इसमें उसकी बहन का कोई दोष नहीं है, बस समय और किस्‍मत की बात है। लेकिन मानस अपना दर्द अपनी बहन से नहीं कहेगा तो किससे कहेगा ?
हमारी कामना है कि इतनी शिकायतों के बावजूद उसकी बहन उसे हमेशा राखी भेजती रहे।

मानस का और हाल-चाल बताते रहिए।
- आनंद

Abhishek Ojha said...

गुण-दोष सही ग़लत का तो पता नहीं... पर पूरे समय बंधे रहे... मनोव्यव्स्था साथ-साथ चली.