बहुत सारी मुसीबतों की जड़ है ये मुआ सेकुलरवाद
भारतीय राजनीति से सेकुलरवाद के छद्म को खत्म कर देना चाहिए। अगर ऐसा हो गया तो हिंदू आतंकवाद के तरफदार कम से कम ये नहीं कह पाएंगे कि, “हम मध्यमार्गी हिन्दू, सेक्युलरिस्ट, साम्यवादी एवं नास्तिकों की दोगली/दोमुंही नीतियों के कारण हिन्दू युवाओं में भी कट्टरवादी पनप रहे हैं जो सही को सही और गलत को गलत कहने से न केवल बचता रहता है वरन् सच को भी पूरी तरह गैंग अप होकर दबाने का काम करता है।” वैसे, अपनी पिछली पोस्ट पर किन्हीं madgao महोदय की यह टिप्पणी मुझे हजम नहीं हुई। फिर भी उनकी बात का आधार इतना बड़ा है कि इसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।
पहला तथ्य। साल 1976 में 42वें संविधान संशोधन के जरिए भारतीय संविधान के आमुख में जब सेकुलर/पंथनिरपेक्ष शब्द जोड़ा गया तब देश में इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगा रखी थी। लोकतंत्र का गला घोंट दिया गया था। इसलिए इसका मकसद लोकतांत्रिक राजनीति को मजबूत करना हो ही नहीं सकता। मेरा मानना है कि किसी भी लोकतांत्रिक गणराज्य में सेकुलरवाद जैसे ढोंग की कोई ज़रूरत नहीं होती। आज हमारी सरकारी मशीनरी से लेकर निजी संस्थाओं तक में शीर्ष पर बैठे लोग आम लोगों को प्रजा समझते हैं। वो अपने काम की नहीं, अपने पद की कमाई खाते हैं। उनके दिमाग में बैठे सामंत-जमींदार को खत्म कर दीजिए, हर तरफ लोकतंत्र की बयार बहने लगेगी। पुलिस से लेकर अर्धसैनिक बलों में व्याप्त सांप्रदायिकता का जनाजा निकल जाएगा। तब सेकुलरवाद का स्वांग बेमानी हो जाएगा। फिर, शायद ही दुनिया का कोई और देश है जिसके संविधान में अलग से सेकुलर शब्द जोड़ा गया है, जबकि हर देश में मुस्लिम हैं, दूसरे अल्पसंख्यक समुदाय हैं।
दूसरा तथ्य। आज़ादी के समय गांधी चाहते थे कि राजनीति और राजसत्ता में धर्म को शामिल रखा जाए क्योंकि धर्म की पहुंच वहां तक है जहां सरकार नहीं पहुंच सकती और धर्म की नैतिकता से समाज में संवाद व सौहार्द बनाए रखने में मदद मिलेगी। लेकिन नेहरू का मानना था कि धर्म ने भारत को विभाजित किया है और एक दिन वह इसे मार डालेगा। इसलिए धर्म को राजसत्ता से पूरी तरह बाहर रखा जाए। उनकी राय में सेकुलर सत्ता ही देश में समान नागरिकता को बढ़ावा देगी। गांधी हार गए और नेहरू जीत गए। लेकिन अमल का मसला आया तो सवाल उठा है कि सरकार बाकी धार्मिक समुदायों को छोड़कर अकेले हिंदू कानून को कैसे बदल सकती है? हुआ यह कि नेहरू ने मुस्लिम पर्सनल लॉ को हाथ नहीं लगाया क्योंकि उस वक्त विभाजन के बाद भी साथ रह गए मुस्लिम समुदाय को शांत और संतुष्ट रखना था। भारतीय राजनीति में मुस्लिम तुष्टीकरण की शुरुआत यहीं से हुई।
इसका असर यह हुआ कि आबादी का बहुलांश होते हुए भी हिंदुओं का मुखर समुदाय खुद को आज़ाद भारत की सरकार से अलग-थलग महसूस करने लगा। यह भावना अंदर-अंदर सुलगती रही। संघ परिवार इसे हवा देता रहा। 1980 में बनी भारतीय जनता पार्टी ने इस अलगाव को बड़ा फलक दे दिया। ज़ोरशोर से कहा गया कि मुस्लिम अल्पसंख्यक अपना धर्म मानने को स्वतंत्र हैं, लेकिन उन्हें अपनी भारतीय अस्मिता को, भारतीय संस्कृति को स्वीकार करना होगा क्योंकि 98 फीसदी मुसलमानों की मूल भूमि भारतवर्ष है।
संघ परिवार की इस सच-बयानी से किस को इनकार हो सकता है!! लेकिन यह नितांत कनपुरिया अंदाज़ है। कहा जाता है कि ठहरे हुए को चलाने के लिए तो हर कोई उंगली करता है, लेकिन जो चलते हुए को उंगली करे, समझ लीजिए वो कनपुरिया है। फुरसतिया सुकुल इसके अपवाद हैं। तो, संघ परिवार के लोग यह बताएंगे कि कौन-सा धर्म है जिसके अनुयायियों ने देशज संस्कृति को नहीं अपनाया है। हिंदू अपने इलाके के मुसलमानों के यहां खीर-सेवइयां खाते हैं तो दुर्गा पूजा के आयोजन में इलाके के मुसलमान भी बराबर शिरकत करते हैं। रामेश्वरम से लेकर अमरनाथ गुफा तक इसकी झलक मिलती हैं। मैथिल इलाके का मुसलमान मैथिली में ही सहज होता है और भोजपुरी इलाके का भोजपुरी में। कश्मीरी पंडितों और मुसलमानों की वेशभूषा में आपको कोई फर्क नहीं मिलेगा। पटना के सरदार जी भी उतने ही बिहारी होते हैं, जितने कि अपने लालू जी हैं।
दिक्कत यह है कि जनजीवन में रची-बसी भारतीय संस्कृति संघियों के गले नहीं उतरती। उनकी भारतीय संस्कृति कर्मकांडी संस्कृति है। जिस संस्कृति के खिलाफ महावीर और गौतम बुद्ध से लेकर कबीर और रैदास जैसे संतों ने बगावत की थी, उसी अप्रासंगिक संस्कृति को संघी सभी भारतवासियों के गले उतारना चाहते हैं। इसे तो हिंदुओं का बहुमत ही नहीं स्वीकार करेगा, अल्पमत मुसलमानों और ईसाइयों की तो बात ही छोड़ दीजिए। लेकिन नेहरू और इंदिरा के सेकुलरवाद से उपजी इस प्रतिक्रिया को जड़ से खत्म करना है तो हमें इसकी जड़ ही काट देनी होगी। यानी, संविधान के आमुख में जोड़ा गया सेकुलर शब्द जल्दी से जल्दी हटा लिया जाना चाहिए।
पहला तथ्य। साल 1976 में 42वें संविधान संशोधन के जरिए भारतीय संविधान के आमुख में जब सेकुलर/पंथनिरपेक्ष शब्द जोड़ा गया तब देश में इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगा रखी थी। लोकतंत्र का गला घोंट दिया गया था। इसलिए इसका मकसद लोकतांत्रिक राजनीति को मजबूत करना हो ही नहीं सकता। मेरा मानना है कि किसी भी लोकतांत्रिक गणराज्य में सेकुलरवाद जैसे ढोंग की कोई ज़रूरत नहीं होती। आज हमारी सरकारी मशीनरी से लेकर निजी संस्थाओं तक में शीर्ष पर बैठे लोग आम लोगों को प्रजा समझते हैं। वो अपने काम की नहीं, अपने पद की कमाई खाते हैं। उनके दिमाग में बैठे सामंत-जमींदार को खत्म कर दीजिए, हर तरफ लोकतंत्र की बयार बहने लगेगी। पुलिस से लेकर अर्धसैनिक बलों में व्याप्त सांप्रदायिकता का जनाजा निकल जाएगा। तब सेकुलरवाद का स्वांग बेमानी हो जाएगा। फिर, शायद ही दुनिया का कोई और देश है जिसके संविधान में अलग से सेकुलर शब्द जोड़ा गया है, जबकि हर देश में मुस्लिम हैं, दूसरे अल्पसंख्यक समुदाय हैं।
दूसरा तथ्य। आज़ादी के समय गांधी चाहते थे कि राजनीति और राजसत्ता में धर्म को शामिल रखा जाए क्योंकि धर्म की पहुंच वहां तक है जहां सरकार नहीं पहुंच सकती और धर्म की नैतिकता से समाज में संवाद व सौहार्द बनाए रखने में मदद मिलेगी। लेकिन नेहरू का मानना था कि धर्म ने भारत को विभाजित किया है और एक दिन वह इसे मार डालेगा। इसलिए धर्म को राजसत्ता से पूरी तरह बाहर रखा जाए। उनकी राय में सेकुलर सत्ता ही देश में समान नागरिकता को बढ़ावा देगी। गांधी हार गए और नेहरू जीत गए। लेकिन अमल का मसला आया तो सवाल उठा है कि सरकार बाकी धार्मिक समुदायों को छोड़कर अकेले हिंदू कानून को कैसे बदल सकती है? हुआ यह कि नेहरू ने मुस्लिम पर्सनल लॉ को हाथ नहीं लगाया क्योंकि उस वक्त विभाजन के बाद भी साथ रह गए मुस्लिम समुदाय को शांत और संतुष्ट रखना था। भारतीय राजनीति में मुस्लिम तुष्टीकरण की शुरुआत यहीं से हुई।
इसका असर यह हुआ कि आबादी का बहुलांश होते हुए भी हिंदुओं का मुखर समुदाय खुद को आज़ाद भारत की सरकार से अलग-थलग महसूस करने लगा। यह भावना अंदर-अंदर सुलगती रही। संघ परिवार इसे हवा देता रहा। 1980 में बनी भारतीय जनता पार्टी ने इस अलगाव को बड़ा फलक दे दिया। ज़ोरशोर से कहा गया कि मुस्लिम अल्पसंख्यक अपना धर्म मानने को स्वतंत्र हैं, लेकिन उन्हें अपनी भारतीय अस्मिता को, भारतीय संस्कृति को स्वीकार करना होगा क्योंकि 98 फीसदी मुसलमानों की मूल भूमि भारतवर्ष है।
संघ परिवार की इस सच-बयानी से किस को इनकार हो सकता है!! लेकिन यह नितांत कनपुरिया अंदाज़ है। कहा जाता है कि ठहरे हुए को चलाने के लिए तो हर कोई उंगली करता है, लेकिन जो चलते हुए को उंगली करे, समझ लीजिए वो कनपुरिया है। फुरसतिया सुकुल इसके अपवाद हैं। तो, संघ परिवार के लोग यह बताएंगे कि कौन-सा धर्म है जिसके अनुयायियों ने देशज संस्कृति को नहीं अपनाया है। हिंदू अपने इलाके के मुसलमानों के यहां खीर-सेवइयां खाते हैं तो दुर्गा पूजा के आयोजन में इलाके के मुसलमान भी बराबर शिरकत करते हैं। रामेश्वरम से लेकर अमरनाथ गुफा तक इसकी झलक मिलती हैं। मैथिल इलाके का मुसलमान मैथिली में ही सहज होता है और भोजपुरी इलाके का भोजपुरी में। कश्मीरी पंडितों और मुसलमानों की वेशभूषा में आपको कोई फर्क नहीं मिलेगा। पटना के सरदार जी भी उतने ही बिहारी होते हैं, जितने कि अपने लालू जी हैं।
दिक्कत यह है कि जनजीवन में रची-बसी भारतीय संस्कृति संघियों के गले नहीं उतरती। उनकी भारतीय संस्कृति कर्मकांडी संस्कृति है। जिस संस्कृति के खिलाफ महावीर और गौतम बुद्ध से लेकर कबीर और रैदास जैसे संतों ने बगावत की थी, उसी अप्रासंगिक संस्कृति को संघी सभी भारतवासियों के गले उतारना चाहते हैं। इसे तो हिंदुओं का बहुमत ही नहीं स्वीकार करेगा, अल्पमत मुसलमानों और ईसाइयों की तो बात ही छोड़ दीजिए। लेकिन नेहरू और इंदिरा के सेकुलरवाद से उपजी इस प्रतिक्रिया को जड़ से खत्म करना है तो हमें इसकी जड़ ही काट देनी होगी। यानी, संविधान के आमुख में जोड़ा गया सेकुलर शब्द जल्दी से जल्दी हटा लिया जाना चाहिए।
Comments
इस तमगे का अब कोई औचित्य नहीं। इसे हटा देना चाहिए। इस पर हम आप के साथ सहमत हैं।
१.जो हम बता रहे हैं वह जरूरी नहीं कि वह सबका सच हो। हमारा समाज विषम समाज है। और जहां विषमता होती है वहां समाकलन गणित ( इंटीगरल कैलकुलस) के फार्मूले नहीं चलते कि एक व्यक्ति के अनुभव को समाकलित (इंट्रीग्रेट) करके पूरे समाज के बारे में राय जाहिर कर दी जाये।
२.घटनायें जब इतिहास/ स्मृतियों में दर्ज होती हैं तो उनमें भुनभुनाहटें/ कसमसाहटें नहीं दर्ज नहीं होतीं। वहां सिर्फ़ यही रिकार्ड हो पाता है कि कौन डटा रहा, कौन पलट गया।
३.सन ६० से लेकर सन ८० तक देश में हुये कुल ३९४९ दंगों में कुल ५३० हिंदू मारे गये जबकि मरने वाले मुसलमानों की तादाद १५९८ थी।
४.हर समाज की अपनी कुछ समस्यायें होती हैं वैसे ही मुस्लिम समाज की भी हैं, हिंदू समाज की भी हैं। न पूरी की पूरी मुस्लिम कौन गद्दार है न सारे के सारे हिंदू दूध के धुले हैं।
५.आम हिंदू या मुसलमान कभी किसी दूसरे धर्म के आम आदमी की जान नहीं लेना चाहता। वे कोई दूसरे ही लोग होते हैं जो धर्म के नाम पर आदमी को मार देते हैं। वे हैवान होते हैं, वहशी होते हैं। हैवानों और वहशियों का कोई धर्म नहीं होता।
६.अपने देश में तमाम समस्यायें हैं। गरीबी, अशिक्षा, जनसंख्या, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, सम्प्रदायवाद, जाति वाद,भाई भतीजा वाद। कौन किसके कारण है कहना मुश्किल है। मुझे तो लगता है कि सब एक दूसरे की बाइप्रोडक्ट हैं। इनका रोना रोते-रोते तो आंख फूट जायेगी।
बाकी कनपुरिये इत्ते बुरे नहीं होते भैया। हमारी बात अलग है। हम तमाम शहरों के लोगों के साथ रहते हुये (१७-१८ साल बाहर रहे) खुराफ़ाती हो गये लेकिन कि आम कनपुरिया ऐसा नहीं होता जी। लेख अच्छा है। इसी बहाने हमारी लम्बी टिप्पणी भी हो गयी।
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सहमत.
और सशक्त विचार-विश्लेषण के लिए
आपका आभार
डॉ.चन्द्रकुमार जैन
" निकाल दो हिन्दी से उर्दू लूब्ज को और उर्दू से हिन्दी शब्द को दोनो बहनें खून से लहूलुहारन हो जायेंगी।"
टिप्पणीयों में खूब नारे बाजी हुई है :)