क्या आप नचिकेत मोर को जानते हैं?
दो दिन पहले तक मैं भी 43 साल के इस नौजवान को नहीं जानता था। लेकिन जब से जाना है, तभी से सोच रहा हूं कि कैसे-कैसे अनोखे लोग इस दुनिया में भरे पड़े हैं। ज़रा सोचिए कि 20 साल तक दिन-रात एक कर आप करियर के उस मुकाम पर पहुंचे हैं जब कंपनी की सबसे बड़ी कुर्सी आपको मिलने ही वाली है, तब क्या आप कह पाएंगे कि नहीं, मुझे यह ओहदा नहीं चाहिए। मैं तो समाज सेवा करूंगा, बाकी ज़िंदगी विकास के कामों में लगाऊंगा। कम से कम अपने लिए तो मैं कह सकता हूं कि समाज की सेवा की इतनी ही चाह थी तो पहले तो मैं 20 साल नौकरी नहीं करता और अगर इतने लंबे समय तक नौकरी कर ही ली तो सबसे ऊपर की कुर्सी तक पहुंचकर उसे छोड़ता नहीं।
लेकिन नचिकेत मोर जब देश के सबसे बड़े निजी बैंक आईसीआईसीआई में एमडी और सीईओ के. वामन कामथ के स्पष्ट उत्तराधिकारी मान लिए गए थे, तभी उन्होंने इस दौड़ से खुद को पीछे खींच लिया। बैंक के चेयरमैन एन वाघुल ने अपने इस चहेते डिप्टी एमडी को समझाने की कोशिश की। लेकिन नचिकेत मोर ने उन्हें भी अपने फैसले का यकीन दिला दिया। फिर तय हुआ कि नचिकेत को अब आईसीआईसीआई ग्रुप के नए फाउंडेशन का प्रमुख बना दिया जाएगा, जहां से वे समाज-सेवा और विकास के कामों को अंजाम देते रहेंगे और बैंक के यांत्रिक कामों से खुद को मुक्त रखकर एक अर्थपूर्ण जिंदगी जिएंगे।
वैसे, बैंक के फाउंडेशन का प्रमुख बनाकर जिसको भी इस तरह की ‘अर्थ-पूर्ण’ ज़िंदगी जीने का मौका मिलेगा, उसके बारे में यही कहा जाएगा कि पांचों उंगलियां घी में और सिर कढ़ाई में। लेकिन 1.34 करोड़ रुपए के सालाना वेतन और बैंक के हज़ारों शेयरों के विकल्प को छोड़ना कतई सामान्य नहीं माना जा सकता। वह भी उस इंसान के लिए जो निम्न मध्यवर्गीय पृष्ठभूमि से आया हो। इस आधार से उठनेवाले लोगों में पैसे की बड़ी भूख होती है। लेकिन सिक्के का दूसरा पहलू यह भी है कि इन लोगों की अगर बुनियादी ज़रूरतें पूरी हो जाएं, सुरक्षित भविष्य का इंतज़ाम हो जाए तो इन्हें ज्यादा पैसा काटने लगता है। इनमें अजीब-सा वैराग्य समा जाता है।
नचिकेत मोर मुंबई के रहनेवाले हैं। 1985 में उन्होंने यहां के विल्सन कॉलेज से बीएससी पूरी की। फिर आईआईएम अहमदाबाद से मैनेजमेंट में पीजी डिप्लोमा किया। उसके बाद 1987 में ही आईसीआईआई बैंक से जुड़ गए। बीच में अमेरिका की पेनसिल्वानिया यूनिवर्सिटी से इकोनॉमिक्स में पीएचडी भी कर डाली। वो नौकरी करते हुए कुछ एनजीओ के साथ भी जुड़े रहे हैं। सोच भी उनकी एजीओ जैसी ही है। वह कहते हैं कि सामाजिक कामों में अक्सर लोग विचारधारा और दर्शन को लेकर उलझ जाते हैं। लेकिन असली मसला विचारधारा का नहीं, समस्याओं का सही समाधान निकालना है।
यहां एक प्रसंग का जिक्र कर देना उचित रहेगा। नचिकेत मोर हाल ही में योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिह आहलूवालिया के कहने पर बिहार के स्टडी टूर पर गए थे। मकसद था वित्तीय भागादारी का दायरा बढ़ाने के नए तरीकों का पता लगाना। वो अभी तक भारत की तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था की छवि से अभिभूत थे। लेकिन बिहार की हकीकत देखकर वे दंग रह गए। उन्होंने पाया कि बिहार में प्रति व्यक्ति सालाना आय महज 5000 रुपए है और ग्रामीण इलाकों में लोगों को बैंक की किसी ब्रांच तक पहुंचने के लिए 20 से 30 किलोमीटर चलना पड़ता है। मोर ने वहां से अपने एक साथी को एसएमएस किया, “wire up the place, put in low cost ATMs, launch biometric cards to establish identity, help scale up micro-finance institutions.”
मोर का यह सुझाव यकीनन उनके तकनीकी और कॉरपोरेट ज्ञान की श्रेष्ठता को दिखाता है। लेकिन इससे यह भी साफ होता है कि ज़मीनी हकीकत की पूरी समझ उनको नहीं है। मुझे तो यही लगता है कि किसी भी देश या समाज के राजनीतिक अर्थशास्त्र को कायदे से समझे बिना विकास का काम अंजाम तक नहीं पहुंचाया जा सकता। नचिकेत मोर अगर केवल एटीएम और बायोमेट्रिक कार्ड बनवाने जैसे कामों से भारत के वंचित तबकों तक विकास का उजाला पहुंचाना चाहते हैं तो शायद एक बिंदु पर पहुंचने के बाद उन्हें फ्रस्टेशन का शिकार होना पड़ेगा। आपकी क्या राय है?
लेकिन नचिकेत मोर जब देश के सबसे बड़े निजी बैंक आईसीआईसीआई में एमडी और सीईओ के. वामन कामथ के स्पष्ट उत्तराधिकारी मान लिए गए थे, तभी उन्होंने इस दौड़ से खुद को पीछे खींच लिया। बैंक के चेयरमैन एन वाघुल ने अपने इस चहेते डिप्टी एमडी को समझाने की कोशिश की। लेकिन नचिकेत मोर ने उन्हें भी अपने फैसले का यकीन दिला दिया। फिर तय हुआ कि नचिकेत को अब आईसीआईसीआई ग्रुप के नए फाउंडेशन का प्रमुख बना दिया जाएगा, जहां से वे समाज-सेवा और विकास के कामों को अंजाम देते रहेंगे और बैंक के यांत्रिक कामों से खुद को मुक्त रखकर एक अर्थपूर्ण जिंदगी जिएंगे।
वैसे, बैंक के फाउंडेशन का प्रमुख बनाकर जिसको भी इस तरह की ‘अर्थ-पूर्ण’ ज़िंदगी जीने का मौका मिलेगा, उसके बारे में यही कहा जाएगा कि पांचों उंगलियां घी में और सिर कढ़ाई में। लेकिन 1.34 करोड़ रुपए के सालाना वेतन और बैंक के हज़ारों शेयरों के विकल्प को छोड़ना कतई सामान्य नहीं माना जा सकता। वह भी उस इंसान के लिए जो निम्न मध्यवर्गीय पृष्ठभूमि से आया हो। इस आधार से उठनेवाले लोगों में पैसे की बड़ी भूख होती है। लेकिन सिक्के का दूसरा पहलू यह भी है कि इन लोगों की अगर बुनियादी ज़रूरतें पूरी हो जाएं, सुरक्षित भविष्य का इंतज़ाम हो जाए तो इन्हें ज्यादा पैसा काटने लगता है। इनमें अजीब-सा वैराग्य समा जाता है।
नचिकेत मोर मुंबई के रहनेवाले हैं। 1985 में उन्होंने यहां के विल्सन कॉलेज से बीएससी पूरी की। फिर आईआईएम अहमदाबाद से मैनेजमेंट में पीजी डिप्लोमा किया। उसके बाद 1987 में ही आईसीआईआई बैंक से जुड़ गए। बीच में अमेरिका की पेनसिल्वानिया यूनिवर्सिटी से इकोनॉमिक्स में पीएचडी भी कर डाली। वो नौकरी करते हुए कुछ एनजीओ के साथ भी जुड़े रहे हैं। सोच भी उनकी एजीओ जैसी ही है। वह कहते हैं कि सामाजिक कामों में अक्सर लोग विचारधारा और दर्शन को लेकर उलझ जाते हैं। लेकिन असली मसला विचारधारा का नहीं, समस्याओं का सही समाधान निकालना है।
यहां एक प्रसंग का जिक्र कर देना उचित रहेगा। नचिकेत मोर हाल ही में योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिह आहलूवालिया के कहने पर बिहार के स्टडी टूर पर गए थे। मकसद था वित्तीय भागादारी का दायरा बढ़ाने के नए तरीकों का पता लगाना। वो अभी तक भारत की तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था की छवि से अभिभूत थे। लेकिन बिहार की हकीकत देखकर वे दंग रह गए। उन्होंने पाया कि बिहार में प्रति व्यक्ति सालाना आय महज 5000 रुपए है और ग्रामीण इलाकों में लोगों को बैंक की किसी ब्रांच तक पहुंचने के लिए 20 से 30 किलोमीटर चलना पड़ता है। मोर ने वहां से अपने एक साथी को एसएमएस किया, “wire up the place, put in low cost ATMs, launch biometric cards to establish identity, help scale up micro-finance institutions.”
मोर का यह सुझाव यकीनन उनके तकनीकी और कॉरपोरेट ज्ञान की श्रेष्ठता को दिखाता है। लेकिन इससे यह भी साफ होता है कि ज़मीनी हकीकत की पूरी समझ उनको नहीं है। मुझे तो यही लगता है कि किसी भी देश या समाज के राजनीतिक अर्थशास्त्र को कायदे से समझे बिना विकास का काम अंजाम तक नहीं पहुंचाया जा सकता। नचिकेत मोर अगर केवल एटीएम और बायोमेट्रिक कार्ड बनवाने जैसे कामों से भारत के वंचित तबकों तक विकास का उजाला पहुंचाना चाहते हैं तो शायद एक बिंदु पर पहुंचने के बाद उन्हें फ्रस्टेशन का शिकार होना पड़ेगा। आपकी क्या राय है?
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अतुल