एक नग़मा था पहलू में बजता हुआ
ये तुम्हारी आंखें हैं या तकलीफ का उमड़ता हुआ समंदर, इस दुनिया को जितनी जल्दी हो बदल देना चाहिए। ये पंक्तियां हैं बच्चों जैसी निष्छल आंखों वाले उस अति संवेदनशील क्रातिकारी कवि गोरख पांडे की, जिन्होंने करीब दस साल पहले जेएनयू के एक हॉस्टल में पंखे से लटककर खुदकुशी कर ली थी। एक कवि जो दार्शनिक भी था और क्रांतिकारी आंदोलनों से भी जुड़ा था, इस तरह जिसने ज्ञान और व्यवहार का फासला काफी हद तक मिटा लिया था, वह आत्मघाती अलगाव का शिकार कैसे हो गया? यह सवाल मुझे मथता रहा है। मैं देवरिया ज़िले के एक गांव में पैदा हुए गोरख पांडे की पूरी यात्रा को समझना चाहता हूं। इसी सिलसिले में उनकी एक कविता पेश कर रहा हूं, जो उन्होंने तब लिखी थी जब वे बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में पढ़ा करते थे। कई महीनों से हाथ-पैर मारने के बाद मुझे यह कविता दिल्ली में एक मित्र से मिली है।
एक झीना-सा परदा था, परदा उठा
सामने थी दरख्तों की लहराती हरियालियां
झील में चांद कश्ती चलाता हुआ
और खुशबू की बांहों में लिपटे हुए फूल ही फूल थे
फिर तो सलमों-सितारों की साड़ी पहन
गोरी परियां कहीं से उतरने लगीं
उनकी पाजेब झन-झन झनकने लगी
हम बहकने लगे
अपनी नज़रें नज़ारों में खोने लगीं
चांदनी उंगलियों के पोरों पे खुलने लगी
उनके होठ, अपने होठों में घुलने लगे
और पाजेब झन-झन झनकती रही
हम पीते रहे और बहकते रहे
जब तलक हल तरफ बेखुदी छा गई
हम न थे, तुम न थे
एक नग़मा था पहलू में बजता हुआ
एक दरिया था सहरा में उमड़ा हुआ
बेखुदी थी कि अपने में डूबी हुई
एक परदा था झीना-सा, परदा गिरा
और आंखें खुलीं...
खुद के सूखे हलक में कसक-सी उठी
प्यास ज़ोरों से महसूस होने लगी।
एक झीना-सा परदा था, परदा उठा
सामने थी दरख्तों की लहराती हरियालियां
झील में चांद कश्ती चलाता हुआ
और खुशबू की बांहों में लिपटे हुए फूल ही फूल थे
फिर तो सलमों-सितारों की साड़ी पहन
गोरी परियां कहीं से उतरने लगीं
उनकी पाजेब झन-झन झनकने लगी
हम बहकने लगे
अपनी नज़रें नज़ारों में खोने लगीं
चांदनी उंगलियों के पोरों पे खुलने लगी
उनके होठ, अपने होठों में घुलने लगे
और पाजेब झन-झन झनकती रही
हम पीते रहे और बहकते रहे
जब तलक हल तरफ बेखुदी छा गई
हम न थे, तुम न थे
एक नग़मा था पहलू में बजता हुआ
एक दरिया था सहरा में उमड़ा हुआ
बेखुदी थी कि अपने में डूबी हुई
एक परदा था झीना-सा, परदा गिरा
और आंखें खुलीं...
खुद के सूखे हलक में कसक-सी उठी
प्यास ज़ोरों से महसूस होने लगी।
Comments
प्यास ज़ोरों से महसूस होने लगी।
--- संवेदनशील प्राणी जो सपनों की दुनिया से वास्तविक दुनिया में आता है तो .. एक तृष्णा का भाव् उसे कसक से भर देता है.
मुझे ऐसा अनुभव होता है....! हर पाठक का अलग अलग विचार भी हो सकता है
bahut baar aapke blog par aa kar laut gaye.
itanii achchii kavitaa ke liye aapka dhanyvaad
"एक कवि जो दार्शनिक भी था और क्रांतिकारी आंदोलनों से भी जुड़ा था, इस तरह जिसने ज्ञान और व्यवहार का फासला काफी हद तक मिटा लिया था, वह आत्मघाती अलगाव का शिकार कैसे हो गया?"