Thursday 29 November, 2007

राम बोलने से बन क्या जाएगा?

लगता है इनका ब्लॉग हथियाना मेरा धर्म बन गया है. लिखना तो इन्हें ही था पर मैं आ गई हूँ मेहमान ब्लॉगर बनकर. इसलिए कि मुझे इस विषय पर ज़ोर-शोर से लिखना है.

'ट्रेन पर सवा धार्मिक आस्था के तीन ताज़ा चेहरे' में जो लिखा गया वह इसलिए कि एक सार्थक बहस हो सके. कि धर्म आज भी कर्म-कांड और नाम-जाप ही है आम आदमी के लिए, यह समझा जा सके. कि ‘ऐसा ही होता आया है’ के इतिहास से निकलकर धर्म आज के सवालों और सही-गलत के संदर्भों में परिभाषित है? कि हम लकीर ही पीटते रहेंगे.

परिवार के एक बुजुर्ग व्यक्ति द्वारा खाने से पहले थाली के चारों ओर पानी छिड़कना (मेरे हिसाब से गोल लकीर खींचना) और खाते वक्त खाने की भरपूर कमियां निकालना- यह आम बात होगी- मेरा निजी अनुभव है. इसलिए कहना चाहती हूं कि इनकी तरह ज्यादातर लोगों को लकीर ही याद रहती है. लकीर खींचना ही इनका धर्म है. लकीर से जुडी कोई प्रार्थना, कोई भावना इन्हें याद नहीं रहती. कृतज्ञता, संतुष्टि और धन्यवाद ज्ञापन कहाँ खो जाते हैं पता नहीं.

आज हिन्दू धर्म की मूल भावना को, इसके लचीलेपन को याद करना चाहती हूं. कि धर्म जड़ न बना रहे.

2-3 साल पहले मेरी दीदी को लत लग गई थी जिससे भी बात करे अंत में समाप्ति करे ‘जय श्री कृष्ण’ कहकर. उसने मुझे भी कहा तो मैंने पलटकर पूछा कि क्या तुम्हें पता है कृष्ण थे भी और वह सचमुच के भगवान थे. तुम्हें पता है कि अमिताभ बच्चन, खुशबू, रजनीकांत वगैरह के मन्दिर बन चुके हैं. लोग उन्हें अभी से पूज रहे हैं. कालान्तर में सब पूजने लगेंगे क्योंकि मन्दिर बन चुके हैं. (वैसे इंटरनेट, सीडी के युग में पहचान गुम होने की संभावना कम ही है) और मन्दिर में अंदर रहने वाले का पता नहीं, हिन्दू मन्दिरों का वास्तु-शिल्प और कारीगरी अद्भुत होती है. हम फलां भगवान को क्यों पूजते हैं - यह क्यों भूल जाना हमें बेहद पसंद है. तो मैंने दीदी को ललकारा तुम्हारे पास क्या सबूत हैं कि कृष्ण उस ज़माने के बड़े कलाकार नहीं थे! दीदी उस समय खूब बिगड़ी पर बाद में उसने जय श्री कृष्ण कहना छोड़ दिया.
धर्म किसी को पूजने की, सामाजिक ज़रूरत थोड़ी न है. यह तो नितान्त निजी ज़रूरत है. मुझे जब ध्यान की ज़रूरत होती है तो ध्यान लगाने के लिए मैं नाम-जाप करती हूं.
आस्था और धर्म क्या है? धार्मिक कौन है?
मैं जब 6-7 साल की रही हूंगी तब हम श्रीनाथजी घूमने गए थे. जब मंदिर में चंद मिनटों के लिए दर्शन का समय हुआ तो सब दौड़ पड़े. (तब क्यू-सिस्टम नहीं था) टूट पड़ी भीड़ में मां के हाथों से मैं छूट गई और कुचलते-धक्के खाते पुरुषों वाले हिस्से में खदेड़ दी गई. प्रभु-भक्त दर्शनार्थियों के पैरों तले मैं दब गई होती यदि एक सज्जन ने मुझे उठाकर पुरुष-महिला हिस्से को अलग करने वाले डिवाइडर पर न बैठा दिया होता. मुझे पकड़े रखने के चक्कर में वे दर्शन भी न कर पाए. मेरे हिसाब से उन सज्जन जैसा धार्मिक व्यक्ति कोई नहीं.
जब मेरी शादी हुई तो मुझसे सर पर पल्लू डालने के लिए कहा गया. मैंने पूछा कि क्यों हमारी कोई देवी सर पर पल्लू नहीं डालती. हमारे धर्म में यह प्रथा है ही नहीं. पल्लू डालना समय, काल और ज़रूरत की देन थे. फिर ‘संस्कार‘ में रूढ़ हो गए. पर अब इसका कोई मतलब नहीं.
बात मांसाहार या शाकाहार की नहीं, उसको धर्म से जोड़ दिए जाने की है. उसे वर्जित बना दिए जाने की है. हिन्दू धर्म हमेशा से way of life रहा है, लचीला रहा है. जिसे जो माफिक आए वह सही-गलत और सकारात्मकता की मूल शर्तों के साथ उसका धर्म है. धर्म के साथ जोड़ने से कैसी निरर्थकता आ जाती है, यह जैन-धर्मियों के बिना प्याज आमलेट खाने के उदाहरण से स्पष्ट है.
मोबाइल का रिंगटोन ज़िदाबाद. अल्ला के उसूल क़ुरान में बंद रहें. मंत्र वाले का रिंगटोन जब बजता है तो क्या वह हर बार तीनों सृष्टियों (ऊँ भूर्व, भुव:, स्व:) का वरण करता है?
राम का नाम लेना धर्म है. पर स्वस्थ रहना आज के धर्म में शामिल नहीं. जबकि एकादशी के उपवास के पीछे बहुत बड़ा विज्ञान था कि हर 15वें दिन आप थोड़ा कम खाकर पेट को आराम दो!
आज के संदर्भ में राम मुझे खालिश राजनीति की याद दिलाते हैं. राजनीति द्वारा भुनाए जाने से उनके मायने बदल चुके हैं. वैसे भी राम मर्यादा (पुरुषो में उत्तम) पुरुषोत्तम कहे गए हैं, भगवान नहीं. दिन के लाख राम नाम जपने वाले मुझे राम के रोज़-ब-रोज़ के जीवन के दस नीति-नियम ही गिना दें तो मान लूं. (और मैं उस राम को भगवान मान ही नहीं पाती जिसने सीता पर यूं अविश्वास किया था)
मैं अपनी मां की ऋणी हूं जिसने मुझे हर तरह की, शास्त्रों से लेकर नए युग की कहानियां और गीत लोरी के बतौर सुनाए. रास्ता खुला रखा. मुझे नहीं समझ में आता कि राम के नाम भर से मेरे बच्चों में कौन-सी अच्छी आदतें आ जाएंगी सिवाय लकीर पीटने के.
हिन्दू धर्म यदि अपने सबसे स्वस्थ रूप में होता तो मेरे हिसाब से प्रदूषण फैलाना आज सबसे बड़ा पाप होता.
(ये कुछ अनुभव और विचार ही हैं. एक शुरुआत है. इच्छा भर है आज धर्म को सही परिभाषित करने की. लकीरी तोड़ने की. अभी आप सबकी तरफ से बहुत कुछ आना बाक़ी है. 'ट्रेन पर सवार...' पर आप सबकी टिप्पणियां, अनुभव, विचार बहुत सही लगे क्योंकि बिना किसी निजी हमले के, एक को छोड़कर, आपने अपनी बातें रखीं. एक अच्छी बहस की शुरुआत हुई यह ब्लोगिंग की शक्ति है.) आप सबसे निवेदन है कि आपके हिसाब से धर्म क्या है, आस्था क्या है ज़रूर बताएं. यहां टिप्पणी करें या अपने ब्लॉग पर लिखें. अपने ब्लॉग पर लिखें तो यहां टिप्पणी में लिंक ज़रूर छोड़ें. (यदि सारे ब्लॉगर लिख डालें तो कितनी बढ़िया सामग्री, शोध के लिए उपलब्ध हो जाएगी)

10 comments:

अभय तिवारी said...

बने चाहे कुछ न पर बिगड़ेगा भी नहीं.. व्यक्तिगत आस्था से..। मगर जब व्यक्तिगत आस्था को एक साम्प्रदायिक डण्डे से हाँक कर एक राजनैतिक झण्डे के नीचे तपाया जाता है तब बिगड़ता है.. बहुत कुछ बिगड़ता है..

आस्था तो एक प्रकार का सम्बल है.. जो बहुत मजबूत है उसे नहीं चाहिये.. पर सभी मनुष्य कभी न कभी कमज़ोर होते ही हैं..

रवि रतलामी said...

"...आप सबसे निवेदन है कि आपके हिसाब से धर्म क्या है, आस्था क्या है ज़रूर बताएं. ..."

वस्तुतः धर्म और आस्था अज्ञान का ही एक रूप है. अरस्तू से लेकर उन्मुक्त (जी हाँ, हमारे बीच के एक अत्यंत ज्ञानी चिट्ठाकार)तक जिन्होंने धर्म को एक तरह से नकारने की बातें की हैं, तो इसके पीछे उनका संदर्भित ज्ञान ही था/है. किसी ने कहा भी है, एक की आस्था दूसरे के लिए उपहास ही होता है.

बचपन में मैं भी भगवान् को साक्षात अनुभव करता था. आज शून्य और उपहास जैसा ही अनुभव होता है. शायद थोड़ा ज्ञान मिल गया है मुझे भी...:)

Batangad said...

मैं अनिलजी के लेख पर ही लिखने वाला था। मौका नहीं मिला। मुझे लगता है कि ट्रेन में सवार तीनों ही यात्री हिंदू धर्म के लचीलेपन की व्याख्या खुद ही कर रहे थे। मुसलमान भाई की अल्लाह हो अकबर की रिंगटोन भी उसी में शामिल है।
आपने भी लिखा है 'राम का नाम लेना धर्म है. पर स्वस्थ रहना आज के धर्म में शामिल नहीं. जबकि एकादशी के उपवास के पीछे बहुत बड़ा विज्ञान था कि हर 15वें दिन आप थोड़ा कम खाकर पेट को आराम दो!'
हिंदू धर्म में आस्था, धर्म के साथ समाज जीवन कुछ इसी तरह जुड़ा था। जैसा आपने एक उदाहरण से बताया। सवाल यही है कि इस धर्म को देखने का नजरिया धीरे-धीरे आप किस तरह बदलते जाते हैं। फिर कुछ दिन बाद हम उसी में से कुछ निकालकर बहस शुरू करते है, शायद खुद को ही समझाने के लिए। वैसे अनिलजी ने सचमुच बहुत अच्छी बहस शुरू की है जितने लोग शामिल हो, अच्छा होगा।
वैसे जहां तक सवाल इस बात का है कि राम बोलने से क्या बन जाएगा तो, मेरा सवाल ये है कि आस्था पर हमले के बिना भी तो बात बन सकती है।
http://batangad.blogspot.com/2007/10/blog-post_03.html

संजय बेंगाणी said...

यह ऐसा विषय विषय है जिस पर लिखने को हजार शब्द है और लिखने बैठो तो समझ में नहीं आता कहाँ से शुरू करें.

धर्म का अर्थ मन को निर्मल बनाना होता होगा, जो ईश्वर पर आस्था से भी हो सकता है और समझ के उच्च पायदान पर उसे नकार कर भी.

बालकिशन said...

इस पोस्ट पर मैं अभय जी बात से पूरी तरह सहमत हूँ. धर्म और आस्था के ऊपर अपने विचार विस्तार से पोस्ट के माध्यम से व्यक्त करूँगा.
अनिल सर लेकिन ये दो-तीन दिनों से आपकी पोस्ट पर टिप्पानियों के माध्यम से व्यक्ति विशेष के बारे मे जो कुछ कहा जा रहा है वह अनुचित है. आप एक विषय पर पोस्ट लिखते है तो जो भी टिपण्णी करेंगे वो आपसे सहमत भी हो सकते है और असहमत भी लेकिन असहमति के कारण उनके विरुद्ध फतवा जारी करना कंहा तक जायज़ है?
सन्दर्भ-
"Pramod Singh said...
अनिल, आपको जो लिखना हो लिखें मगर खामख़ा अपना दु:ख बढ़ायें, समझदारी की बात नहीं.. इस सिलसिले में मेरा एक छोटा सुझाव ये है कि राघव आलोक, स्�वप्रेम तिवारी और बाल किशन जेसे घेटा नामों व पहचानवालों की टिप्�पणी पाने पर उसे बिना पढ़े सिंपली डिलीट कर दें ओर हाज़मा दुरुस्�त रखें.. यह निजी सलाह है, सो इसे टिप्�पणी में चढ़ाये नहीं..
27 November, 2007 1:39 PM "

बालकिशन said...

मेरे मन मे आपके लिए और प्रमोद जी लिए बहुत सम्मान है. आपलोग अगर एक बार कह भी दे कि " बालकिशन तुम्हे हमारी पोस्ट पढने और फ़िर टिपण्णी करने की कोई आवश्यकता नही है" तो फ़िर मैं नही जाऊंगा आपके ब्लॉग पर .

azdak said...

@बंधुवर बाल किशन,
नाराज़ न हों.. गुस्‍साहट में ग़लती और बालपना मुझसे ज़रूर हुई, झोंक में आपका नाम भी लिपटा गया, क्षमा चाहता हूं. मेरे गुस्‍से पर अपनी तिक्‍तता को लात लगाके प्रसंग भूल जायें..

बालकिशन said...

सर, आपके इतना कह देने मात्र से ही सम्पूर्ण प्रसंग याददाश्त की अन्तिम परत तक से हट गया है. मैं आभारी हूँ जो आपने इस नाचीज के बारे मे कुछ सोच और लिखा.

Srijan Shilpi said...

मेहमान ब्लॉगर के रूप में आपका एंट्री लेना बहुत अच्छा लगा। आशा है, नियमित लिखेंगी। बातों को स्पष्टता और तार्किकता से रखा है आपने।

आपने कहा है तो धर्म और आस्था के सवाल पर अपनी कुछ अनुभूतियों के माध्यम से लिखूंगा, अलग पोस्ट के रूप में।

Sagar Chand Nahar said...

कुछ बातें इसी तरह मेरे मन में भी उठती रही हैं कि कहीं ऐसा तो नहीं कि तुलसीदासजी या वेदव्यासजी उस जमाने के बड़े लेखक रहे हों और जिस तरह आज वेदप्रकाश शर्मा आदि उपन्यास कारों के उपन्यास छपते हैं वैसे ही उस जमाने में रामाय़ण- महाभारत बड़े साहित्य रहे हों!! इस प्रश्न का जवाब बहुत ढूंढ़ा अब तक नहीं मिला...
नाथद्वारा वाली घटना मेरे साथ भी हुई है

कई बार बात चलती है कि हिन्दी चिट्ठाकारों में स्वस्थ बहस करने की अक्ल नहीं है पर पिछले दिनों काकेशजी के ब्लॉग पर और अब अनिल सर के ब्लोग पर कल वाली पोस्ट में जिस तरह की स्वस्थ बहस हुई वह काबिले तारीफ है।
लगता है हम बचपना छोड़ने लगे हैं।