जीवन में घाघ और विचारों में आग! कैसे संभव है?
वाकई मुझे नहीं समझ में आता कि कोई ज़िंदगी में घनघोर अवसरवादी होते हुए विचारों में क्रांतिकारी कैसे रह सकता है? क्या जीवन और विचार एक दूसरे से इतने स्वतंत्र हैं? जहां तक मुझे पता है कि आप जैसा जीवन जी रहे होते हैं, ज़िंदगी में जिस-जिस तरह के समझौते कर रहे होते हैं, आपकी सोच और विचार उसी से तय होते हैं। आपकी जीवन स्थितियां आपके विचारों के सत्व का निर्धारण करती हैं। अपने यहां तो यहां तक कहा गया है कि आपके भोजन का भी असर आपके विचारों पर पड़ता है। धूमिल ने भी कहा था कि कांख भी ढंकी रहे और मुट्ठी भी तनी रहे, दोनों चीज़ें एक साथ नहीं हो सकतीं।
व्यक्तिगत स्तर पर बहुतेरे लोग जीवन में आगे बढ़ने के लिए मौकापरस्ती का सहारा लेते हैं। झूठ-फरेब और बड़बोलापन इनके खून में होता है। हमारी मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों के अधिकांश नेताओं के लिए तो मुंह में राम, बगल में छूरी ही असली उसूल है। लेकिन ऐसे सारे लोग समाज के सामने बेनकाब हैं। उनकी असलियत से सभी वाकिफ हैं। वो औरों का इस्तेमाल करते हैं तो दूसरे अपनी काबिलियत भर उनका इस्तेमाल करते हैं। मगर मैं सार्वजनिक जीवन में सक्रिय ऐसे बहुत से नेताओं और पत्रकारों-बुद्धिजीवियों को जानता हूं जिन्होंने जीवन में हर तरह की जोड़तोड़ और टुच्चई करते हुए भी बेहद शातिराना ढंग से क्रांतिकारी होने का लबादा ओढ़ रखा है।
नक्सली होते हुए भी ये लोग अपनी बीवी को नौकरी दिलाने के लिए पुलिस अधिकारी का प्रशस्ति-गान करते हैं। अपनी बीवी को लार टपकाते मंत्रियों की शानदार घरेलू पार्टियों में ले जाते हैं। दस-बीस हज़ार रुपयों के लिए किसी भ्रष्टतम अफसर के साथ ठहाके लगाते हैं। काम करवाने के लिए अपनी जाति के बड़े नेता के दरबार में सलाम ठोंकते हैं। पत्रकारिता में ऊंचा ओहदा पाने के लिए बॉस के सुर में सुर मिलाकर गुर्राते हैं। अकर्मण्य होते हुए भी चाटुकारिता के बल पर करियर में ऊंचे उठते रहते हैं। काबिल और ईमानदार लोग उनकी आंखों की किरकिरी होते हैं।
वैसे तो ये बराबर सुसुप्तावस्था में रहते हैं। निजी स्वार्थ या पंथ के हित ही इनकी चिंतन प्रणाली को जगाते हैं। लेकिन मोदी, गोधरा, गुजरात और अब नंदीग्राम का नाम आते ही इनकी रगों में बहता परनाला अचानक उबाल खा जाता है। ये ढोल-तमाशा लेकर चीखने-चिल्लाने लगते हैं और साबित करने में जुट जाते हैं कि ये कितने बड़े क्रांतिकारी हैं। ये इसकी परख नहीं करते कि गुजरात में वो कौन से सामाजिक, राजनीतिक, ऐतिहासिक और आर्थिक कारक हैं जिन्होंने मोदी के उभार को संभव बनाया है। बस, मुस्लिम असुरक्षा और हिंदू दंगाइयों के वीभत्स कारनामों का डंका बजाकर ये मोदी के ही एजेंडे की सेवा करते हैं।
नंदीग्राम पर शोर तो ये खूब मचा रहे हैं। जो इस पर नहीं बोल रहे हैं, उन पर ताने भी कस रहे हैं। लेकिन वाममोर्चा के बहुप्रचारित ऑपरेशन बर्गा की कलई नहीं उतारते। संविधान की उस खामी को उजागर नहीं करते जिसके तहत सरकार ‘सार्वजनिक उद्देश्य’ और Eminent Domain के नाम पर किसी की भी ज़मीन औने-पौने दामों पर हथिया सकती है। जब कुछ राजनीतिक पार्टियां शोर मचाती हैं कि कंपनियां एसईज़ेड के लिए सीधे किसानों से ज़मीन खरीदें, तब ये लोग यह सच नहीं बताते कि किसान को कृषि से भिन्न किसी काम के लिए अपनी ज़मीन को बेचने का अधिकार ही नहीं है। इनका साफ मकसद समस्या का तात्कालिक या दीर्घकालिक निदान नहीं होता। ये तो बस हल्ला मचाकर अपने क्रांतिकारी होने का ढिंढोरा पीटना चाहते हैं।
असल में ये लोग विचारों से गरीब और भावनाओं से बीमार हैं। जिस तरह ज्यादा नमक और मिर्च गरीबों की जरूरत बन जाती है और बीमारों को चटक खाना सुहाता है, उसी तरह इन्हें भी नंदीग्राम या गुजरात और मोदी की तल्खी की ज़रूरत पड़ती है। रोज़मर्रा के राजनीतिक-आर्थिक घटनाक्रमों से इनका स्नायुतंत्र इम्यून हो चुका होता है। क्रांतिकारी दिखना इनके जीवनयापन की ज़रूरी शर्त है। यह वो बैनर है, विजिटिंग कार्ड में निहित वो विशेषण है जिसके दम पर ये सामाजिक जीवन में मोलतोल करते हैं। वाकई भारतीय ठगों की परंपरा इक्कीसवीं सदी में आकर ऐसा रूप अख्तियार कर लेगी, ऐसा कोई सोच भी नहीं सकता था।
व्यक्तिगत स्तर पर बहुतेरे लोग जीवन में आगे बढ़ने के लिए मौकापरस्ती का सहारा लेते हैं। झूठ-फरेब और बड़बोलापन इनके खून में होता है। हमारी मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों के अधिकांश नेताओं के लिए तो मुंह में राम, बगल में छूरी ही असली उसूल है। लेकिन ऐसे सारे लोग समाज के सामने बेनकाब हैं। उनकी असलियत से सभी वाकिफ हैं। वो औरों का इस्तेमाल करते हैं तो दूसरे अपनी काबिलियत भर उनका इस्तेमाल करते हैं। मगर मैं सार्वजनिक जीवन में सक्रिय ऐसे बहुत से नेताओं और पत्रकारों-बुद्धिजीवियों को जानता हूं जिन्होंने जीवन में हर तरह की जोड़तोड़ और टुच्चई करते हुए भी बेहद शातिराना ढंग से क्रांतिकारी होने का लबादा ओढ़ रखा है।
नक्सली होते हुए भी ये लोग अपनी बीवी को नौकरी दिलाने के लिए पुलिस अधिकारी का प्रशस्ति-गान करते हैं। अपनी बीवी को लार टपकाते मंत्रियों की शानदार घरेलू पार्टियों में ले जाते हैं। दस-बीस हज़ार रुपयों के लिए किसी भ्रष्टतम अफसर के साथ ठहाके लगाते हैं। काम करवाने के लिए अपनी जाति के बड़े नेता के दरबार में सलाम ठोंकते हैं। पत्रकारिता में ऊंचा ओहदा पाने के लिए बॉस के सुर में सुर मिलाकर गुर्राते हैं। अकर्मण्य होते हुए भी चाटुकारिता के बल पर करियर में ऊंचे उठते रहते हैं। काबिल और ईमानदार लोग उनकी आंखों की किरकिरी होते हैं।
वैसे तो ये बराबर सुसुप्तावस्था में रहते हैं। निजी स्वार्थ या पंथ के हित ही इनकी चिंतन प्रणाली को जगाते हैं। लेकिन मोदी, गोधरा, गुजरात और अब नंदीग्राम का नाम आते ही इनकी रगों में बहता परनाला अचानक उबाल खा जाता है। ये ढोल-तमाशा लेकर चीखने-चिल्लाने लगते हैं और साबित करने में जुट जाते हैं कि ये कितने बड़े क्रांतिकारी हैं। ये इसकी परख नहीं करते कि गुजरात में वो कौन से सामाजिक, राजनीतिक, ऐतिहासिक और आर्थिक कारक हैं जिन्होंने मोदी के उभार को संभव बनाया है। बस, मुस्लिम असुरक्षा और हिंदू दंगाइयों के वीभत्स कारनामों का डंका बजाकर ये मोदी के ही एजेंडे की सेवा करते हैं।
नंदीग्राम पर शोर तो ये खूब मचा रहे हैं। जो इस पर नहीं बोल रहे हैं, उन पर ताने भी कस रहे हैं। लेकिन वाममोर्चा के बहुप्रचारित ऑपरेशन बर्गा की कलई नहीं उतारते। संविधान की उस खामी को उजागर नहीं करते जिसके तहत सरकार ‘सार्वजनिक उद्देश्य’ और Eminent Domain के नाम पर किसी की भी ज़मीन औने-पौने दामों पर हथिया सकती है। जब कुछ राजनीतिक पार्टियां शोर मचाती हैं कि कंपनियां एसईज़ेड के लिए सीधे किसानों से ज़मीन खरीदें, तब ये लोग यह सच नहीं बताते कि किसान को कृषि से भिन्न किसी काम के लिए अपनी ज़मीन को बेचने का अधिकार ही नहीं है। इनका साफ मकसद समस्या का तात्कालिक या दीर्घकालिक निदान नहीं होता। ये तो बस हल्ला मचाकर अपने क्रांतिकारी होने का ढिंढोरा पीटना चाहते हैं।
असल में ये लोग विचारों से गरीब और भावनाओं से बीमार हैं। जिस तरह ज्यादा नमक और मिर्च गरीबों की जरूरत बन जाती है और बीमारों को चटक खाना सुहाता है, उसी तरह इन्हें भी नंदीग्राम या गुजरात और मोदी की तल्खी की ज़रूरत पड़ती है। रोज़मर्रा के राजनीतिक-आर्थिक घटनाक्रमों से इनका स्नायुतंत्र इम्यून हो चुका होता है। क्रांतिकारी दिखना इनके जीवनयापन की ज़रूरी शर्त है। यह वो बैनर है, विजिटिंग कार्ड में निहित वो विशेषण है जिसके दम पर ये सामाजिक जीवन में मोलतोल करते हैं। वाकई भारतीय ठगों की परंपरा इक्कीसवीं सदी में आकर ऐसा रूप अख्तियार कर लेगी, ऐसा कोई सोच भी नहीं सकता था।
Comments
सच्चाई छुप नहीं सकती बनावट के उसूलों से
व्यक्ति अपने धर्म को समझे और तदानुसार आचरण करे।
व्यवहारिक आदर्शवाद का शब्द न हो तो क्वाइन कर लिया जाये!
भीतर की आग को बेचने-भुनाने की कला में सिद्ध होकर ये घाघ भले ही बन जाएं, लेकिन उनकी आग असल में राख बन चुकी होती है। उनके कहने में कोई असर बाकी नहीं बचा होता।
सृजन, ये कहना सही नहीं है। अगर ऐसा होता, तो हम सब उनके लिखे से तिलमिलाते नहीं।