गिरकर बिखर गए पंख, पर हारा नहीं बालक
मानस के बारे में ज्ञानदत्त जी ने एकदम सही कहा कि वह एक आदर्शवादी चुगद था, an emotional fool… आजकल की नौजवान पीढ़ी में ऐसे चुगद ढूंढे नहीं मिलेंगे। खैर, ज़िंदगी है, चलती रहती है। तो... मानस ने पार्टी छोड़ी तो कोई पहाड़ टूटकर नहीं गिरा। दुनिया भी अपनी तरह चलती रही और पार्टी पर भी अंश के करोड़वें हिस्से के बराबर फर्क नहीं पड़ा। साथी यथावत अपने धंधे-पानी में लगे रहे। लेकिन विदा लेते वक्त उसे एक अद्भुत बात समझ में आई। वो यह कि औद्योगिक मजदूर एकदम निष्ठुर होते हैं, मध्यवर्ग के लोग हमेशा सामनेवाले को अपने से कमतर समझते हैं, उस पर फौरन दया करने के मूड में आ जाते हैं, जबकि किसान – चाहे वह भूमिवाला हो या भूमिहीन, बड़े ही भावुक होते हैं।
मानस ने किसी को यह नहीं बताया कि वह किन्हीं सैद्धांतिक वजहों से पार्टी छोड़ रहा है; फिर, पार्टी से कोई नीतिगत विरोध था ही नहीं तो बताता क्या? उसने सभी से यही कहा कि उसे घर की बहुत याद आती है। इसलिए उसके लिए आगे काम करना संभव नहीं है। हामिद भाई और दूसरे रेल मजदूरों ने इस बात को सुना और बगैर कोई तवज्जो दिए अपने काम में लग गए। शहर के साथियों ने सुना तो कहा कि अगर कोई समस्या थी तो आप हमें बताते। हम मिल-जुलकर सुलझा देते। कहते तो आपका नया परिवार बसा देते।
लेकिन भूमिहीन किसानों में थोड़ी मुश्किल हो गई। मानस ने धीरे-धीरे यही बताया कि देखिए आप सबका कोई न कोई है। मां-बाप, भाई-बहन, बीवी-बच्चे। मेरा यहां कोई नहीं। मैं तो पत्थर के भगवान जैसा बनकर रह गया हूं। हर कोई आकर अपनी मुश्किल सुनाता है, सुलझाता है और चला जाता है। मानस ने इस सधे हुए झूठ को भावनाओं की चासनी में डालकर पेश किया। रात के यही कोई दस बजे चुके होंगे। गरमी का महीना था तो सब खुले में ही बैठे थे। सबसे पहले मिस्त्री उठे। बोले – मेरे पेट में दर्द है और चले गए। फिर एक-एक सभी ऐसे ही सिरदर्द वगैरह का बहाना करके चले गए। बिशुनदेव आखिर तक रुके रहे। लेकिन उठते-उठते वो औरों की तरह दूर जाकर नहीं, वहीं मानस के सामने ही फफक पड़े। मानस रात भर उनकी भावनाओं और स्थितियों पर सोचता रहा।
सुबह करीब नौ बजे फिर सभी एक जगह आ गए। और उनके साथ थीं मिस्त्री की माई, जिन्हें वह चाची कहता था। चाची ने पूछा-पछोरा। मानस भी किसी मां को समझाने के अंदाज में जवाब देता गया। चाची बोली – ठीक है वहां तुम्हारी मां है, तुम्हारी याद करती है, तुम्हें उसकी सेवा करनी है। लेकिन अगर तुमने मेरी कोख से जन्म लिया होता तब भी क्या हमें इस तरह छोड़कर चले जाते। अरे तुम्हें तो हमने बेटा और साथी ही नहीं माना था, तुम्हें तो हमने अपनी हर चीज से बढ़कर माना। तुम्हारे ज़रिए तो हम अपनी मुक्ति के सपने देखने लगे थे। फिर चाची थोड़ी तल्ख हो गईं। बोली - तुम्हारे हाथ-पांव सलामत हैं। अगर नहीं होते तब भी क्या तुम यूं हमसे भागकर दूर चले जाते।
मानस भी चाची की इस तरह की उलाहना सुनकर विचलित हो गया। उसने सबके सामने ऐलान कर दिया कि वह उनके बीच से नहीं जा रहा है। बस कुछ दिनों के लिए घर जाएगा। मां को समझा-बुझाकर और दूसरे से दुआ-सलाम करके वापस आ जाएगा। सब के चेहरे खिल गए। चाची ने पास बुलाया। बगल में बैठाया। सिर पर हाथ फेरा। और फिर पल्लू से अपनी आंखों के बहते आंसुओं को साफ किया। उसी दिन मिस्त्री (वो असल में ट्रैक्टर मैकेनिक थे) मानस को बाज़ार ले गए और चमड़े का एक महंगा चप्पल खरीद कर वहीं दुकान में पहनवा दिया। हवाई चप्पल डिब्बे में रख ली और बाहर निकलने पर सड़क के किनारे झटके से फेंक दी।
समय बह रहा है, मानस चल रहा है
मानस ने किसी को यह नहीं बताया कि वह किन्हीं सैद्धांतिक वजहों से पार्टी छोड़ रहा है; फिर, पार्टी से कोई नीतिगत विरोध था ही नहीं तो बताता क्या? उसने सभी से यही कहा कि उसे घर की बहुत याद आती है। इसलिए उसके लिए आगे काम करना संभव नहीं है। हामिद भाई और दूसरे रेल मजदूरों ने इस बात को सुना और बगैर कोई तवज्जो दिए अपने काम में लग गए। शहर के साथियों ने सुना तो कहा कि अगर कोई समस्या थी तो आप हमें बताते। हम मिल-जुलकर सुलझा देते। कहते तो आपका नया परिवार बसा देते।
लेकिन भूमिहीन किसानों में थोड़ी मुश्किल हो गई। मानस ने धीरे-धीरे यही बताया कि देखिए आप सबका कोई न कोई है। मां-बाप, भाई-बहन, बीवी-बच्चे। मेरा यहां कोई नहीं। मैं तो पत्थर के भगवान जैसा बनकर रह गया हूं। हर कोई आकर अपनी मुश्किल सुनाता है, सुलझाता है और चला जाता है। मानस ने इस सधे हुए झूठ को भावनाओं की चासनी में डालकर पेश किया। रात के यही कोई दस बजे चुके होंगे। गरमी का महीना था तो सब खुले में ही बैठे थे। सबसे पहले मिस्त्री उठे। बोले – मेरे पेट में दर्द है और चले गए। फिर एक-एक सभी ऐसे ही सिरदर्द वगैरह का बहाना करके चले गए। बिशुनदेव आखिर तक रुके रहे। लेकिन उठते-उठते वो औरों की तरह दूर जाकर नहीं, वहीं मानस के सामने ही फफक पड़े। मानस रात भर उनकी भावनाओं और स्थितियों पर सोचता रहा।
सुबह करीब नौ बजे फिर सभी एक जगह आ गए। और उनके साथ थीं मिस्त्री की माई, जिन्हें वह चाची कहता था। चाची ने पूछा-पछोरा। मानस भी किसी मां को समझाने के अंदाज में जवाब देता गया। चाची बोली – ठीक है वहां तुम्हारी मां है, तुम्हारी याद करती है, तुम्हें उसकी सेवा करनी है। लेकिन अगर तुमने मेरी कोख से जन्म लिया होता तब भी क्या हमें इस तरह छोड़कर चले जाते। अरे तुम्हें तो हमने बेटा और साथी ही नहीं माना था, तुम्हें तो हमने अपनी हर चीज से बढ़कर माना। तुम्हारे ज़रिए तो हम अपनी मुक्ति के सपने देखने लगे थे। फिर चाची थोड़ी तल्ख हो गईं। बोली - तुम्हारे हाथ-पांव सलामत हैं। अगर नहीं होते तब भी क्या तुम यूं हमसे भागकर दूर चले जाते।
मानस भी चाची की इस तरह की उलाहना सुनकर विचलित हो गया। उसने सबके सामने ऐलान कर दिया कि वह उनके बीच से नहीं जा रहा है। बस कुछ दिनों के लिए घर जाएगा। मां को समझा-बुझाकर और दूसरे से दुआ-सलाम करके वापस आ जाएगा। सब के चेहरे खिल गए। चाची ने पास बुलाया। बगल में बैठाया। सिर पर हाथ फेरा। और फिर पल्लू से अपनी आंखों के बहते आंसुओं को साफ किया। उसी दिन मिस्त्री (वो असल में ट्रैक्टर मैकेनिक थे) मानस को बाज़ार ले गए और चमड़े का एक महंगा चप्पल खरीद कर वहीं दुकान में पहनवा दिया। हवाई चप्पल डिब्बे में रख ली और बाहर निकलने पर सड़क के किनारे झटके से फेंक दी।
समय बह रहा है, मानस चल रहा है
Comments
वैसे मुझे लगा था कि कल की टिप्पणी से कहीं नाराज न हो गये हों आप। आखिर मानस तो आपका मानस पुत्र है न!
और बाल किशन जी आपने जिस समस्या का जिक्र कल किया था, उसे ज़रूर लिखिएगा।
बडी ही मार्मिक कहानी है. आप इसे कैसे भी आगे बढायें,परंतु मैने भी मानस सरीखे कुछ अन्य लोग देखे हैं .हालांकि सबका एक जैसा हस्र नही हुआ, परंतु सुखद अंत भी नहीं कह सकते.
आप अपने मानस को कहां ले जायेंगे, पूरी पूरी निगाह रखे हूं, परंतु कोई दर्दीला अंत मत दीजिये. कई मानस अभी गढे जा रहे , उनकी सांसे ना टूटने पायें.