ये तो क्रांति की नहीं, भिखारी माफिया की सोच है!

मानस हाथ-पैर मारता रहा कि किसी तरह वह ऐसी दृष्टि हासिल कर ले जिससे वर्तमान को समझने के साथ ही उसके भीतर जन्म लेते भविष्य को भी देख सके। वैसे, उसे अब तक इस बात का यकीन हो चला था कि जिन लोगों को उसके सिर पर बैठा रखा गया है, वे उसे यह दृष्टि नहीं दे सकते। लेकिन मानस को तब रोशनी की एक किरण दिखाई देने लगी, जब पार्टी ने उसी दौरान बेहद संजीदगी से एक अभियान शुरू किया, जिसका नाम था सुदृढ़ीकरण अभियान या कंसोलिडेशन कैम्पेन। यह कुछ उसी तरह की कोशिश थी, जैसे कोई तैराक दोनों बाहें फैलाने के बाद उन्हें समेटता है, जैसे लंबे सफर पर निकला कोई पथिक थोड़ा थमकर सुस्ताता है, जैसे कोई ज़िंदगी में अब तक क्या खोया, क्या पाया का लेखाजोखा कर आगे के लक्ष्य तय करता है।

मानस इस अभियान से बेहद उत्साहित हो गया। उसे लगा जैसे मनमांगी मुराद मिल गई हो और जड़-सूत्रवादियों के दिन अब लदनेवाले हैं। यह अभियान पूरे देश में चला, अच्छा चला। छोटे-छोटे ग्रुप बनाकर मार्क्सवाद के मूलाधार का अध्ययन किया गया, संगठन के बुनियादी नियम समझे गए। लक्ष्य था, पार्टी के अब तक के सफर में सोच से लेकर व्यवहार के स्तर पर जमा हुए कूड़ा-करकट की सफाई। लेकिन मानस के कार्यक्षेत्र उत्तर प्रदेश की बात करें तो न सोच और न ही व्यवहार के स्तर पर छाई जड़ता पर कोई फर्क पड़ा।

राज्य नेतृत्व वास्तविक स्थिति को समझने के बजाय नीचे से उसी अंदाज़ में रिपोर्ट मांगता रहा जैसे इमरजेंसी के दौरान नीचे के हलकों से नसबंदी के आंकड़े तलब किए गए होंगे। खैर, अभियान खत्म हुआ तो सभी ज़िलों के प्रभारियों की समीक्षा बैठक हुई। मानस भी इसमें शामिल था। बात रखने की शुरुआत उसी ने की। फिर सभी ने एक-एक बात रखी तो सामने आया कि उत्तर प्रदेश में सुदृढीकरण अभियान के तहत कुछ भी हासिल नहीं हुआ है। अब राज्य सचिव को ऊपर रिपोर्ट भेजनी थी तो उन्होंने इसे इस तरह सम-अप किया, “चूंकि सभी साथी कह रहे हैं कि कंसोलिडेशन कैम्पेन से कुछ हासिल नहीं हुआ है। इसका मतलब ही है कि कुछ तो हासिल हुआ है तभी तो वह हासिल नहीं हो सकता।” मानस को लगा यह तो जैन दर्शन का स्याद्-वाद है। खैर, राज्य सचिव ने सेंट्रल कमिटी (जिसमें वे खुद भी शामिल थे) को सबकी सहमति से रिपोर्ट से भेज दी कि उत्तर प्रदेश में कंसोलिडेशन कैम्पेन काफी सफल रहा है।

अब मानस के अंतिम मोहभंग की शुरुआत हो चुकी थी। उसने राज्य सचिव वर्मा जी से साफ-साफ कह दिया कि अगर अगले साल भर में उसके सवाल हल नहीं हुए तो वह पार्टी छोड़कर वापस लौट जाएगा। उसने इसके समाधान के लिए एक ठोस सुझाव भी उनके सामने रखा जो उसे सुदृढ़ीकरण अभियान से समझ में आया था। संगठन का बुनियादी नियम यह है कि अगर आपके पास पांच कार्यकर्ता हों तो एक तरीका यह है कि उन्हें आप पांच अलग-अलग जगहों पर भेज दो और दूसरा तरीका यह है कि इन सभी को एक ही कार्यक्षेत्र में लगा दिया जाए और लहरों की तरह संगठन का विकास किया जाए। इसमें से दूसरा तरीका ही सही है और पहला गलत क्योंकि पहले तरीके पर अमल से पांच जगहों पर दफ्तर तो ज़रूर खुल जाएंगे, लेकिन कालांतर में ये बंद हो जाएंगे और पांच कार्यकर्ता भी हाथ से जाते रहेंगे।

वर्मा जी ने बात सुन तो ली, लेकिन गुनी नहीं। इसका प्रमाण यह है कि इलाहाबाद में राज्य के तमाम भूमिगत कार्यकर्ताओं की बैठक चल रही थी। एक सत्र बीतने के बाद मानस वहीं कमरे में आंख बंद करके पड़ा था, जैसे सो रहा हो। एक साथी ने वर्मा जी से कहा कि मानस तो कह रहा है कि उसके सवाल हल नहीं हुए तो वह साल भर पार्टी छोड़कर चला जाएगा। इस पर वर्मा जी ने कहा, “कहने दो। किसी तरह दो साल बीतने दो। फिर कहां जाएगा।”

मानस को लगा जैसे सारे शरीर का खून अचानक चीखकर उसके दिमाग में चढ़ आया हो। वर्मा जी की बात का मतलब उसे फौरन समझ में आ गया। उसकी उम्र उस समय 26 साल थी। दो साल बाद वह 28 का हो जाएगा यानी कंप्टीशन देने की उम्र तब खत्म हो जाएगी। यह उम्र खत्म हो जाएगी तो वह कहां जाएगा। पार्टी में पड़े रहना उसकी मजबूरी बन जाएगा। कमाल है, स्टेशन पर अपाहिज बनाकर बच्चों से भीख मंगवाने वाले माफिया और क्रांतिकारी मार्क्सवादी-लेनिनवादी पार्टी के राज्य सचिव, सेंट्रल कमेटी के सदस्य वर्मा जी की सोच में कितनी जबरदस्त समानता है!!!

आगे है फिर भी साल भर इंतज़ार करता रहा मानस

Comments

Anita kumar said…
हम पढ़ रहे है, आगे कि कड़ी का इंतजार है, वैसे क्या एनालिसिस है पूरे तंत्र की… सराहनीय्…
काकेश said…
मानस की उहापोह अच्छी लग रही है.इंतजार है आगी का.
एक अँधेरी दुनिया दिखा रहे हैं आप..
36solutions said…
अगली कडी का इंतजार .........

www.aarambha.blogspot.com
शायद कल वाली बात ही लिखनी पड़े. यही घुटन महसूस करता हूँ. अब लग रहा है कि मानस को तो शायद रास्ता मिलजाये. पर आपकी लिखा पढ़ कर मैं मानस की तकलीफ को समझ सकता हूँ. मुझे इंतज़ार है मानस के इस संघर्ष के एक सुखद अंत का.
मित्र, मुझे लग रहा था कि संगठन की बात कर रहे हैं कथा में तो अंतत: दादागिरी का स्तर बढ़ कर माफियागिरी तक पंहुचेगा।
संगठन बनाने और चलाने के प्रबन्ध सूत्र "गॉडफादर" उपन्यास बखूबी देता है।
और आपके कथन - "उसकी उम्र उस समय 26 साल थी। दो साल बाद वह 28 का हो जाएगा यानी कंप्टीशन देने की उम्र तब खत्म हो जाएगी।" ने तो बहुत उद्वेलित किया। खैर आगे की कथा का इंतजार है।
बात कुछ समझ में नहीं आई। शीर्ष नेतृत्व के ठस नजरिए के चलते संगठन और आंदोलन संबंधी आपकी मार्क्सवादी सोच पर राज्य कमेटी में सहमति नहीं बन सकी और इसे पूरे राज्य में लागू नहीं किया जा सका। आपकी राय अल्पमत का घेरा नहीं तोड़ पाई, लिहाजा शायद मिनट्स में उसे दर्ज कर लिया गया हो- या शायद वह भी न किया गया हो। बहरहाल, राज्य कमेटी बैठक में अगर अल्पमत पर बिल्कुल रंदा ही फेर दिया गया हो तो भी एक पूरा जिला आपकी जिम्मेदारी में था, उसमें भी क्या इसको लागू करने पर राज्य कमेटी द्वारा कोई रोक लगाई गई थी? और यह लौट जाने की बात बार-बार कहां से आ रही है? भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन की शुरुआत से लेकर आज तक हजारों लोग होलटाइमर बने और आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए अपनी क्षमता भर काम किया। ऐसा न होने पर लौट जाएंगे, वैसा न होने पर लौट जाएंगे-इसी तरह अगर वे सोचते रहते तो देश में आज न कोई कम्युनिस्ट आंदोलन का नामलेवा होता, न ही यहां के कामकाजी वर्गों के पास वैसे कोई अधिकार होते, जिन्हें आज हम हवा-पानी की तरह स्वाभाविक मान बैठे हैं।

अनिलजी, इसी पार्टी में आपकी तुलना में लगभग तीन या चारगुना वक्त तक होलटाइमर मैं भी रहा हूं। बाद में कुछ वजहों से बात नहीं बनी तो ट्रैक बदलना पड़ा। इस दौरान पार्टी में मुझे बहुतेरे लोग ऐसे मिले, जिनके बारे में मेरी राय बहुत खराब बनी, लेकिन कुछ ऐसे भी मिले, जो भारतीय समाज के अनमोल रतन हैं। जिन्हें पाकर कोई भी समाज खुद को गौरवान्वित महसूस कर सकता है। अलग से कहना जरूरी नहीं कि ऐसे ही लोगों में एक मैं आपको भी गिनता आया हूं।

इन परस्पर विरोधी पहलुओं के चलते पार्टी के बारे में मेरी राय कभी थोड़ी अच्छी तो कभी थोड़ी खराब बनती रहती है। लेकिन बतौर संगठन इसमें भिखारी माफिया जैसी घिनौनी प्रवृत्तियां देखना तो दूर, ऐसी किसी चीज के बारे में मैं कभी सोच भी नहीं सकता। एक बार फिर निवेदन करता हूं- आप जो कुछ भी लिख रहे हैं, वह महत्वपूर्ण है, लिहाजा जितना भी हो सके, इसे बड़े टाइम-स्पेस में रखकर देखें और तात्कालिक राग-द्वेष से इसे मुक्त रखने का प्रयास करें। यह ज्यादा वस्तुगत तब होगा, जब पार्टी के साथ-साथ आप खुली नजर से अपनी भी छानबीन करते चलें, क्योंकि यहां आप कुछेक चंदाखोर, नाकारा और वाहियात लोगों के बारे में नहीं, एक आंदोलन के बारे में बात कर रहे हैं, जिसके साथ करोड़ों लोगों की उम्मीदें जुड़ी हैं।
चंदू भाई मैं कुछ ‘सोचकर’ खोजकर नहीं लिख रहा हूं। जैसा था, वैसा पेश कर रहा हूं। मैंने राज्य सचिव की तरफ से कही गई बात पेश की है। अब अगर पार्टी के राज्य सचिव स्तर के भी लोग ‘कुछेक चंदाखोर, नाकारा और वाहियात लोगों’ में शुमार हों तो उस पार्टी को इनसे इतर मैं नहीं देख सकता। रही बात अपनी छानबीन की तो मैंने शुरू में कह दिया कि आंदोलन से जुड़ने के पीछे मेरी कोई वर्गीय या कम्युनिस्ट प्रतिबद्धता नहीं, बल्कि एक न्यायपूर्ण और लोकतांत्रिक भारत का आदर्शवादी रुझान था।
दूसरी बात मैं इस आंदोलन में परिधि पर खड़े रहकर जीवनयापन करने के लिए दुकान चलानेवालों की बात कर रहा हूं, उनकी नहीं जो उत्पीड़न अवाम के लिए सचमुच समर्पित हैं, उनके बीच में रहते हैं, जीते हैं मरते हैं। मैं आज भी उनका सम्मान करता हूं, उन्हें सलाम करता हूं।
तीसरी बात, मैं पॉलिमिक्स या किसी की हेठी करने के लिए यह सब नहीं लिख रहा हूं। ये मेरे व्यक्तिगत अनुभव हैं जिन्हें ज़िंदगी में बनने-बिगड़ने के दौर के अहम दस साल लगाकर मैंने हासिल किया है और 18-20 साल बीत जाने के बावजूद उसके हैंगओवर से मुक्त नहीं हो पाया हूं।
चौथी बात, मैंने पार्टी में अपनी सोच के लागू होने की नहीं, बल्कि कुल मिलाकर उस पर छाई दार्शनिक सोच की बात की है। जिन पार्टी नेताओं पर नीतियों को लागू करने की जिम्मेदारी थी, वे मुझे कहीं से भी मार्क्सवादी नहीं लगे, बल्कि उन्होंने सुविधाजनक तरीके से इस दर्शन के सूत्रों को भुनाया।
बाकी, आपकी ज़र्रानवाज़ी के लिए शुक्रिया।
Udan Tashtari said…
मानस दिलो दिमाग पर छाता जा रहा है…अगली कड़ी का इन्तजार है.
Reyaz-ul-haque said…
फ़िलहाल नहीं पढ पा रहे हैं-हां आगे के लिए कापी कर के रखते जा रहे हैं. एक बार पूरा पढेंगे. चंदू भाई की टिप्पणी ज़रूर पढी और आपक जवाब भी. इससे कुछ अंदाज़ा हुआ. खैर, आपको पूरा पढके मेल करेंगे.

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