कोंपलों का कातिल, नसों का हत्यारा
वो कौन है जो मेरे दिमाग में कहर बरपाए हुए है। मेरे विचारों का, अनुभूतियों का निर्ममता से संहार कर रहा है। जैसे ही किसी सोई हुई नस में स्फुरण शुरू होता है, नए अहसास की कोंपल फूटती है, कोई झपट कर झपाक से उसे काट देता है। जैसे ही पूरा दम लगाकर हाथ पैर मारता हूं, आंखों के आगे का कुहासा हटाता हूं, वैसे ही आंखों के आगे सात-सात परदे गिरा देता है।
दिमाग कुरुक्षेत्र बना हुआ है। महाभारत छिड़ी है जो सालों बाद भी खत्म नहीं हो रही। अर्जुन बार-बार भ्रमों का शिकार हो रहा है। कोई सारथी नहीं है जो अपना विराट आकार दिखाकर बता सके कि जिनको तुम जिंदा समझ रहे हो, वो तो कब के मुर्दा हो चुके हैं। चक्रव्यूह के सात द्वार बन जाते हैं। मैं पहला द्वार ही नहीं भेद पाता, सातवें की बात कौन करे। चक्रव्यूह के पहले ही द्वार पर सीखी हुई विद्या भागकर दिमाग की किसी खोह में छिप जाती है। विचारों की धार और तलवार के बिना मैं निहत्था हो जाता हूं। युद्ध के बीच में कोई आंखों में धूल फेंक देता हैं। किरकिरी असहनीय हो जाती है, दिखना बंद हो जाता है।
याद आ जाता है बावड़ी में खुद से अनवरत लड़ता (मुक्तिबोध का) वो ब्रह्मराक्षस, जो घिस रहा है हाथ-बाहें-मुंह छपाछप, फिर भी मैल, फिर भी मैल। अरसे पहले मैंने उस ब्रह्मराक्षस को मुक्त कराने का वचन दिया था, उसका शिष्य बनने का वादा किया था। लेकिन अफसोस! कुछ अदृश्य ताकतों ने मेरा भी हश्र ब्रह्मराक्षस जैसा कर दिया है।
पीढ़ियों के भूत, सदियों के बेताल नवजात विचारों का गला पनपने से पहले ही घोंट देते हैं। जिस सोच से मेरी जरा-सा भी जान-पहचान नहीं है, वह किसी कोने से निकल कर कत्लेआम पर उतारू हो जाती है। विचारों को अफीम सुंघा देती है। पलक झपकते ही नई अनुभूति हाथ में आई मछली की तरह छटक जाती है। बस, पानी पर जमी काइयां ही नजर आती हैं।
दर्शन जमकर पढ़ा, ये भी लगा कि अच्छी तरह समझ लिया। लेकिन मौका पड़ने पर कुछ काम नहीं आता। वैसे, तो स्थिरता और गति का गतिशील रिश्ता समझता हूं। लेकिन उजाले-अंधेरे को, अंश को समग्र को, निगेटिव-पॉजिटिव को अलग-अलग ही देख पाता हूं, परस्पर गुंफित रूप में नहीं। दर्शन कोई दृष्टि नहीं दे पाता।
दिल्ली की सर्द रातों जैसा घना कोहरा, जिसमें हाथ भर भी नहीं सूझता। सड़क पर गाड़ी चलती है, लेकिन अंदाज-अंदाज कर। नीचे सड़क पर असंख्य सांप सरा-सर्र भागते हैं, आगे विशाल अजगर मुंह बाए खड़ा रहता है। इस कोहरे ने मुझे क्षणवादी बनाकर छोड़ा है। बस, उतना ही जी पाता हूं जितना किसी एक पल में दिखता है। आगे जब कुछ दिखता ही नहीं तो आगे की क्या सोचूं और क्या जिऊं, कैसे जिऊं। समाज को देखूं तो कैसे, उसकी गत्यात्मकता को देखूं तो कैसे?
इसलिए क्षणों में जीता हूं, क्षण-क्षण मरता हूं। आखिर कहां से लाऊं कोहरे को चीरने वाली दृष्टि, वो लेजर नजरिया जो अंधेरों के बीच भी सदियों से चले आ रहे छल को बेपरदा कर सके और मैं हकीकत को क्रिस्टल क्लियर देख सकूं। आमीन...
दिमाग कुरुक्षेत्र बना हुआ है। महाभारत छिड़ी है जो सालों बाद भी खत्म नहीं हो रही। अर्जुन बार-बार भ्रमों का शिकार हो रहा है। कोई सारथी नहीं है जो अपना विराट आकार दिखाकर बता सके कि जिनको तुम जिंदा समझ रहे हो, वो तो कब के मुर्दा हो चुके हैं। चक्रव्यूह के सात द्वार बन जाते हैं। मैं पहला द्वार ही नहीं भेद पाता, सातवें की बात कौन करे। चक्रव्यूह के पहले ही द्वार पर सीखी हुई विद्या भागकर दिमाग की किसी खोह में छिप जाती है। विचारों की धार और तलवार के बिना मैं निहत्था हो जाता हूं। युद्ध के बीच में कोई आंखों में धूल फेंक देता हैं। किरकिरी असहनीय हो जाती है, दिखना बंद हो जाता है।
याद आ जाता है बावड़ी में खुद से अनवरत लड़ता (मुक्तिबोध का) वो ब्रह्मराक्षस, जो घिस रहा है हाथ-बाहें-मुंह छपाछप, फिर भी मैल, फिर भी मैल। अरसे पहले मैंने उस ब्रह्मराक्षस को मुक्त कराने का वचन दिया था, उसका शिष्य बनने का वादा किया था। लेकिन अफसोस! कुछ अदृश्य ताकतों ने मेरा भी हश्र ब्रह्मराक्षस जैसा कर दिया है।
पीढ़ियों के भूत, सदियों के बेताल नवजात विचारों का गला पनपने से पहले ही घोंट देते हैं। जिस सोच से मेरी जरा-सा भी जान-पहचान नहीं है, वह किसी कोने से निकल कर कत्लेआम पर उतारू हो जाती है। विचारों को अफीम सुंघा देती है। पलक झपकते ही नई अनुभूति हाथ में आई मछली की तरह छटक जाती है। बस, पानी पर जमी काइयां ही नजर आती हैं।
दर्शन जमकर पढ़ा, ये भी लगा कि अच्छी तरह समझ लिया। लेकिन मौका पड़ने पर कुछ काम नहीं आता। वैसे, तो स्थिरता और गति का गतिशील रिश्ता समझता हूं। लेकिन उजाले-अंधेरे को, अंश को समग्र को, निगेटिव-पॉजिटिव को अलग-अलग ही देख पाता हूं, परस्पर गुंफित रूप में नहीं। दर्शन कोई दृष्टि नहीं दे पाता।
दिल्ली की सर्द रातों जैसा घना कोहरा, जिसमें हाथ भर भी नहीं सूझता। सड़क पर गाड़ी चलती है, लेकिन अंदाज-अंदाज कर। नीचे सड़क पर असंख्य सांप सरा-सर्र भागते हैं, आगे विशाल अजगर मुंह बाए खड़ा रहता है। इस कोहरे ने मुझे क्षणवादी बनाकर छोड़ा है। बस, उतना ही जी पाता हूं जितना किसी एक पल में दिखता है। आगे जब कुछ दिखता ही नहीं तो आगे की क्या सोचूं और क्या जिऊं, कैसे जिऊं। समाज को देखूं तो कैसे, उसकी गत्यात्मकता को देखूं तो कैसे?
इसलिए क्षणों में जीता हूं, क्षण-क्षण मरता हूं। आखिर कहां से लाऊं कोहरे को चीरने वाली दृष्टि, वो लेजर नजरिया जो अंधेरों के बीच भी सदियों से चले आ रहे छल को बेपरदा कर सके और मैं हकीकत को क्रिस्टल क्लियर देख सकूं। आमीन...
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